Muktibodh Sahitya Mein Nayi Pravrittiyan
Author:
Doodhnath SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Unavailable
अपनी कविताओं में विचारों के आवेग को मुक्तिबोध अपने आत्मचित्रों से सन्तुलित और संवर्धित करते हुए उसमें हर बार एक नया रंग भरते चलते हैं। इस रूप में मुक्तिबोध आधुनिक यूरोपीय चित्रकारों की चित्रशैली और चित्रछवियों के अत्यन्त निकट हैं। कविताएँ केवल शब्दों और लयों और विचारों से ही नहीं सजतीं, कविता में बीच-बीच में प्रकट होनेवाले वे आत्मचित्र हैं जो उनके अन्तर्कथ्य को तराशते हैं। उनका यह आत्म उतना ही क्षत-विक्षत, उतना ही रोमानी, उतना ही यातनादायी है जितना खड़ी बोली के दूसरे कवियों का।</p>
<p>मुक्तिबोध कम्युनिस्ट होते हुए भी ललकार के कवि नहीं हैं, ललकार के भीतर की मजबूरी के कवि हैं। यही वह भविष्य दृष्टि है जो उन्हें हिन्दी के दूसरे कवियों से अलग करती है। वे बाहर देखते ज़रूर हैं लेकिन आत्मोन्मुख होकर। उनकी नज़र बाहरी दुनिया के तटस्थ काव्यात्मक कथन में नहीं है, बल्कि बाहरी दुनिया के भीतरी टकरावों में है। इसीलिए वे हिन्दी के एक अलग और अनोखे क़िस्म के कवि हैं जिनकी तुलना किसी से नहीं।
ISBN: 9788126725342
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: प्रस्तुत पुस्तक अवधी भाषा के प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियों का संग्रह है। यह पुस्तक न तो सऌपूर्ण मुहावरों का वृहद्कोश है और न हम ऐसा दावा करते हैं। मुहावरे भाषा की जीवंतता को दरशाते हैं। किसी बात को सही तरीके से बताने के लिए मुहावरे और लोकोक्तियों का सहारा लिया जाता है। प्रायः किसी बात के मर्म को बताने के लिए लऌंबे विवरण के बजाय मुहावरे या लोकोक्तियों के द्वारा सुगमता से और शुद्ध रूप में बताया जा सकता है। मुहावरे समाज की स्थितियाँ भी बताते हैं। मुहावरे और लोकोक्तियों में भेद किया जा सकता है। मुहावरे छोटे और किसी विशेष बात के संदर्भ, दृष्टांत या निष्कर्ष से बने होते है और धीरे-धीरे प्रचलित हो जाते हैं, जिनका उपयोग भाषा में सऌंप्रेषण के साथ-साथ चुटीलापन भी प्रदान करता है। लोकोक्ति किसी पूर्व घटना की उपमा या दृष्टांत होने के साथ-साथ कुछ उपदेश या ज्ञान की बात भी बताती है। मुहावरे आज भी गढे़ जा रहे हैं, जो प्रायः मीडिया व फिल्म के माध्यम से लोगों तक पहुँचते हैं, पर वही मुहावरे जीवित रह पाते हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में ठेठ अवधी मुहावरों के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में प्रचलित मुहावरों का भी समावेश किया गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में इन सभी मुहावरों और लोकोक्तियों को अक्षरानुसार सूचीबद्ध किया गया है, जिससे किसी भी मुहावरे को ढूँढ़ने में आसानी रहे। यह पुस्तक सामान्य पाठकगण, भाषाविद् तथा भाषा के शोध छात्रों में समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
Hindi Ki Sahitiyak Sanskriti Aur Bhartiya Adhunikata
- Author Name:
Rajkumar
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी की आधुनिक संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता को एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र में रूपान्तरित कर देने के वृहत् अभियान के हिस्से के रूप में हुआ। इस प्रक्रिया में गांधी जैसे चिन्तकों के विचारों की अनदेखी तो की ही गई, मार्क्स के चिन्तन को भी बहुत ही सपाट और यांत्रिक ढंग से समझने और लागू करने का प्रयास किया गया। यह पुस्तक गांधी और मार्क्स का एक नया भाष्य ही नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि भारतीय आधुनिकता की विलक्षणताओं को भी रेखांकित करने का उपक्रम करती है। आधुनिकता की परियोजना के संकटग्रस्त हो जाने और उत्तर-आधुनिक-उत्तर-औपनिवेशिक चिन्तकों द्वारा उसकी विडम्बनाओं को उजागर कर दिए जाने के उपरान्त गांधी और मार्क्स का ग़ैर-पश्चिमी समाज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ एक राजनीतिक और रणनीतिक ज़रूरत है। इस ज़रूरत का एहसास भारतीय और पश्चिमी समाज वैज्ञानिकों के लेखन में इन दिनों बहुत शिद्दत से उभरकर आ रहा है। विडम्बना ये है कि हिन्दी की दुनिया ने अभी भी इस प्रकार के चिन्तन को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है। इस दृष्टि से विचार करने पर आधुनिकता के साथ पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, विज्ञान, तर्कबुद्धि और लोकतंत्र का वैसा सम्बन्ध ग़ैर-पश्चिमी सभ्यताओं के साथ नहीं बनता है, जैसा पश्चिमी सभ्यताओं के साथ दिखाई पड़ता है। इस बात का एहसास गांधी को ही नहीं, हिन्दी नवजागरण के यशस्वी लेखक प्रेमचन्द को भी था। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचन्द ने आधुनिकता से जुड़े हुए राष्ट्रवाद समेत सभी अनुषंगों की तीखी आलोचना की और उसके विकल्प के रूप में कृषक संस्कृति, देशज कौशल, शिक्षा और न्याय-व्यवस्था के महत्त्व पर ज़ोर दिया। देशज ज्ञान को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति ज्ञान के स्रोत के रूप में सिर्फ़ अंग्रेज़ी के माहात्म्य को स्वीकार नहीं कर सकता था। इसलिए गांधी और प्रेमचन्द ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान पर इतना ज़ोर दिया। लेकिन, हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति के अधिकांश में, भारतीय भाषाओं की अस्मिता और उनके साहित्य का अध्ययन भी यूरोपीय राष्ट्रों के साहित्य के वज़न पर किया गया। आधुनिक साहित्यिक विधाओं का चुनाव और विकास भी बहुत कुछ पश्चिमी देशों के साहित्य के निकष पर हुआ। यह सब हुआ जातीय साहित्य और जातीय परम्परा का ढिंढोरा पीटने के बावजूद। यह पुस्तक साहित्य के इतिहास-अध्ययन की इस प्रवृत्ति और साहित्यिक विधाओं के विकास की सीमाओं और विडम्बनाओं को भी अपनी चिन्ता का विषय बनाती है और सही मायने में अपनी जातीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा को एक उच्चतर सर्जनात्मक स्तर पर पुनराविष्कृत करने की विचारोत्तेजक पेशकश करती है।
—पुरुषोत्तम अग्रवाल
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