Nirala Sahitya Mein Pratirodh Ke Swar
Author:
Vivek NiralaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
प्रस्तुत पुस्तक प्रतिरोध की संस्कृति के ऐतिहासिक विकासक्रम में निराला की प्रतिरोधी चेतना को उनके समग्र रचनात्मक जगत में चिन्हित करती है। कहना न होगा कि निराला के साहित्य की गहरी समझ और साफ़-सुथरी वैचारिकी के नाते अनायास ही यह किताब रामविलास जी का स्मरण कराती है। रामविलास जी के प्रभाव के बतौर हम देखते हैं कि यह किताब, जीवन-संघर्ष और रचना दोनों के जटिल अन्तर्द्वन्द्वों के रिश्तों को समझते हुए आगे बढ़ती है।</p>
<p>निराला की कविताओं पर काफ़ी काम हुए हैं पर विवेक यहाँ निराला के कविता-संसार में अन्य पहलुओं के साथ ही दलित और स्त्री अस्मिताओं की महत्त्वपूर्ण शिनाख़्त भी करते हैं। कथा-साहित्य में निराला के उपन्यासों और कहानियों में यथार्थवाद की गहरी समझ को चिन्हित करते हुए विवेक, निराला के गहन समयबोध को निराला के ही शब्दों में रेखांकित करते हैं—“...यह लड़ाई जनता की लड़ाई है और फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ विजय पाना हमारे और विश्व के कल्याण के लिए ज़रूरी है।”</p>
<p>निराला की यह चिन्ता आज हमारे लिए और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब विकास और धर्मान्धता साथ-साथ फल-फूल रहे हैं और फासीवादी ख़तरा एकदम आसन्न है। निराला के शोषण-विरोधी चिन्तन पर लिखा गया अंश किताब का बेहतरीन हिस्सा है। विवेक इस हिस्से में निराला के कम चर्चित पर बेहद महत्त्वपूर्ण लेखों के सहारे उनकी निःशंक साम्राज्यवाद-विरोधी, सामन्तवाद-विरोधी दृष्टि पर प्रकाश डालते हैं। अपने समकाल की राजनैतिक हलचलों, वैश्विक स्थितियों और उपनिवेशवादी शासन की गहरी समझ निराला के चिन्तनपरक लेखों में मौजूद है।</p>
<p>विवेक ने इस पुस्तक में निराला की रचनाओं के नए अस्मिता केन्द्रित पाठ पर सवालिया निशान लगाते हुए निराला को उद्धृत किया है—“तोड़कर फेंक दीजिए जनेऊ जिसकी आज कोई उपयोगिता नहीं, जो बड़प्पन का भ्रम पैदा करता है और सम स्वर से कहिए कि आप उतनी ही मर्यादा रखते हैं जितना आपका नीच से नीच पड़ोसी चमार या भंगी रखता है।” यह पुस्तक भारतीय आधुनिक साहित्य की शोषणविरोधी परम्परा को बढ़ाने में निराला के योग को बेहतरीन ढंग से रेखांकित करती है। इसे पढ़ना एक विचारोत्तेजक अनुभव से गुज़रना है।</p>
<p>—मृत्युंजय
ISBN: 9788180314001
Pages: 383
Avg Reading Time: 13 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Hindi Gadya Lekhan Mein Vyangya Aur Vichar
- Author Name:
Suresh Kant
- Book Type:

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Description:
व्यंग्य क्या है? उसका हास्य से क्या सम्बन्ध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या समस्त विधाओं में व्याप्त रहनेवाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक क्यों है, पद्यात्मक क्यों नहीं? वह बैठे-ठाले क़िस्म की चीज़ है या एक गम्भीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? यह प्रतिबद्धता क्या चीज़ है?...
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रायः पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं। उदाहरण के लिए, हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी पहले मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी मानते थे, पर कहते हिचकते थे। नरेन्द्र कोहली मानते हैं और कहते भी हैं। ऐसे ही, कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, जो कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते...
असलियत क्या है? इसे वही स्पष्ट कर सकता है, जो स्वयं एक अच्छा व्यंग्यकार होने के साथ-साथ कुशल समीक्षक भी हो। सुरेश कांत में इन दोनों का मणिकांचन संयोग है। अपनी इस प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपने इस शोधपूर्ण कार्य में व्यंग्य के तमाम पहलुओं को उनके वास्तविक रूप में उजागर किया है। व्यंग्य का अर्थ, उसका स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसकी पृष्ठभूमि, उसकी परम्परा, उसके तत्त्व, उसकी उपयोगिता आदि पर प्रकाश डालते हुए वे उसकी सम्पूर्ण संरचना उद्घाटित कर देते हैं, जिसके ‘अभाव’ के चलते परसाई को व्यंग्य विधा प्रतीत नहीं होता था। व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया में वैचारिकता की भूमिका रेखांकित करते हुए वे व्यंग्य और विचार का सम्बन्ध भी स्पष्ट करते हैं। भारतेन्दु से लेकर अब तक के सम्पूर्ण हिन्दी-व्यंग्य-कर्म का ज़ायज़ा लेते हुए वे हिन्दी-व्यंग्य की ख़ूबियों और उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों को एक साथ प्रकट करते हैं।
आज एक ओर जहाँ व्यंग्य-लेखन एक ज़रूरी माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर उसका बहुआयामी विस्तार हुआ है, उसकी लोकप्रियता और माँग भी अपने चरम पर है, वहीं अधिकाधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी ख़तरा भी मौजूद है। व्यंग्य चूँकि एक हथियार है, अतः उसका विवेकसंगत प्रयोग नितान्त आवश्यक है। हर किसी पर इस अस्त्र का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे किसी के पक्ष में प्रयुक्त करना है तो किसी के विरुद्ध। यह विवेक व्यंग्य के मूल में विद्यमान विचार से प्राप्त होता है। व्यंग्य विचार से पैदा भी होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा प्राप्त कर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकारों का सबसे बड़ा कर्तव्य भी है और उनके समक्ष गम्भीर चुनौती भी—यही इस शोध का निष्कर्ष है।
Garo Literature
- Author Name:
Caroline Marak
- Rating:
- Book Type:

- Description: Indian Literature in Tribal Languages documented and translated into english By Caroline Marak
Bharat Ki Bhasha Samasya
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

- Description: भारत की भाषा-समस्या एक ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्या है। सुप्रसिद्धप्रगतिशील आलोचक और विचारक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार यह ‘विशुद्ध भाषा-विज्ञान कीसमस्या’ नहीं बल्कि ‘बहुजातीय राष्ट्र के गठन और विकास की ऐतिहासिक-राजनीतिक समस्या’ है। स्वाधीनता के तीन दशक बाद भी अगर यह समस्या ज्यों-की-त्यों बनी है तो सम्भवतः इसलिए कि उनकी तरह औरों ने भी इस समस्या को इसके वास्तविक और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का प्रयास नहीं किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रामविलास जी ने भाषा-समस्या के विभिन्न पक्षों की विस्तार से चर्चा की है तथा इस बात पर बल दिया है कि सबसे पहले अंग्रेज़ी के प्रभुत्व को समाप्त करना आवश्यक है, क्योंकि वह भारत की सभी भाषाओं पर साम्राज्यवादियों द्वारा लादी हुई भाषा है। भारत की भाषा-समस्या के हल के लिए वह ‘अनिवार्य राष्ट्र-भाषा’ नहीं, बल्कि सम्पर्क भाषा की बात करते हैं जो हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी के जातीय स्वरूप की चर्चा के सन्दर्भ में वह यह स्पष्ट करते हैं कि हिन्दी और उर्दू में ‘बुनियादी एकता’ तथा हिन्दी की जनपदीय बोलियाँ परस्पर-सम्बद्ध हैं। भाषा-समस्या पर भारतीय जनता का सामाजिक और सांस्कृतिक भविष्य निर्भर करता है, इसलिए वह इसे आवश्यक मानते हैं कि ‘हम अपने बहुजातीय राष्ट्र की विशेषताएँ पहचानें, इस राष्ट्र में हिन्दी-भाषी जाति की भूमिका पहचानें।’इस पुस्तक में दिए गए उनके अकाट्य तर्क समस्या को समझने की सही दृष्टि ही नहीं देते, समस्या-समाधान की दिशा में मन को आन्दोलित भी करते हैं।
Nagarjun Ka Gadya Sahitya
- Author Name:
Ashutosh Rai
- Book Type:

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Description:
नागार्जुन के व्यक्तित्व, विचार और कृतित्व का परिचय देते हुए लेखक ने उनके अभावग्रस्त जीवन, पारिवारिक स्थिति और अनवरत संघर्ष को जिस तरह रेखांकित किया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि आरम्भ से ही वे संघर्षों के बीच रास्ता तलाशनेवाले प्राणी एवं लेखक रहे हैं। उनकी मस्ती, व्यंग्य एवं यायावरी एक तरह से उनकी जिजीविषा के प्राण रहे हैं।...
आशुतोष जी ने नागार्जुन की औपन्यासिक कला पर भी ध्यान आकर्षित किया है और उनकी आत्मकथात्मक एवं वर्णन शैली पर प्रकाश डाला है तथा हल देने की उनकी ललक के कारण आई शिल्पगत लचरता को भी रेखांकित किया है।
संक्षेप में ही सही बाबा की कहानियों, निबन्धों, संस्मरणों, यात्रावृत्त, डायरी, नाटक और आलोचना जैसी गद्य-विधाओं पर गहराई से विचार करते हुए आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं, जो सार्थक हैं तथा लेखक की तटस्थ पैनी समीक्षा-दृष्टि को आलोकित करती हैं। इस प्रकार नागार्जुन के गद्य साहित्य की समस्त विधाओं की पड़ताल करने के लिए लेखक का लेखकीय प्रयास मुकम्मल और कामयाब है।
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