Samay Aur Sahitya
Author:
Vijay Mohan SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
हर लेखक अपनी रचनात्मकता, अपनी समझ और अपनी सहमति-असहमति के<br />माध्यम से अपने समय के साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक प्रवाह में हस्तक्षेप भी करता है।<br />रचनाकार किसी भी विधा का हो, उसका यह पक्ष अपने दौर में उसकी स्थिति को समझाने-रेखांकित<br />करने में सहायक होता है।<br />विजयमोहन सिंह हमारे समय के सजग कथाकार और आलोचक हैं; इस पुस्तक में उनकी उन गद्य<br />रचनाओं को शामिल किया गया है जो बीच-बीच में उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं और संगोष्ठी-सेमिनारों<br />आदि के लिए लिखी थीं। इनमें कुछ निबन्ध हैं, कुछ पुस्तक-समीक्षाएँ हैं, कुछ समसामयिक विषयों<br />पर टिप्पणियाँ हैं; और कुछ श्रद्धांजलियाँ भी। ऐसा करने के पीछे एक उद्देश्य यह भी रहा है कि<br />सामान्य साहित्यिक संकलनों की तरह यह पुस्तक एकरस न लगे।<br />विजयमोहन सिंह के वैचारिक लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अतिरिक्त और ओढ़ी हुई<br />गम्भीरता से पाठक को आतंकित नहीं करते। वे अपना मन्तव्य सहज भाव से व्यक्त करते हैं, लेकिन<br />बहुत ‘कन्विंसिंग’ ढंग से। बकौल उनके, ‘‘ये अपने समय तथा साहित्य के प्रति प्रतिक्रियाएँ हैं।’’
ISBN: 9788183614979
Pages: 176
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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मुंशी प्रेमचन्द से सुरेन्द्र प्रकाश तक की उर्दू कहानी का यह विवरण २०वीं सदी के माहौल और समाज का विवरण भी है। मैं साहित्य की किसी भी विधा को उसकी ज़मीन और ज़माने से अलग करके देखने में असमर्थ हूँ ख़ासतौर पर कथा-कहानी को। सार्त्र ने १९४८ में साहित्य की प्रतिबद्धता पर अपनी धारणा व्यक्त करते हुए कविता के मुक़ाबले में कहानी को अपने समय और भौतिक वातावरण में ज़्यादा उलझा हुआ बताया था, ज़्यादा Committed, ज़्यादा Engaged यानी ज़्यादा प्रतिबद्ध और ज़्यादा व्यस्त। इस तरह हमारे कथा-साहित्य की हदें इतिहास से जा मिलती हैं। लेकिन साहित्य, बहरहाल, इतिहास नहीं होता। साहित्य इतिहास के समानान्तर अपनी एक अलग दुनिया बनाता है। यह दुनिया इतिहास से ज़्यादा रोचक, ज़्यादा सशक्त होती है, अपनी कलात्मकता और सौन्दर्य के कारण। इसीलिए इतिहास के किसी भी युग की सीमाओं के मुक़ाबले में साहित्य और कला की सीमाएँ ज़्यादा विस्तृत और ज़्यादा दिनों तक ज़िन्दा, रोचक और पायदार रहती हैं।
—प्रस्तावना से
Rachna Se Samvad
- Author Name:
Malayaj
- Book Type:

- Description: मलयज की आलोचना की सबसे महत्त्वपूर्ण क्षमता है निर्णय लेना, निष्कर्ष तक पहुँचना और निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए पाठ के साथ रचना-प्रक्रिया और लेखक की अनुभूति को समझना। रचना की समीक्षा करते समय उनके लिए सिर्फ रचना ही खास नहीं बल्कि रचनाकार की अनुभूति भी खास है जिसका अध्ययन वे रचना के समानान्तर करते हैं और तत्पश्चात अपने निष्कर्ष देते हैं। रचनाकार की अनुभूति के अध्ययन करने की प्रक्रिया रचना के पाठ के समानान्तर चलती है। एक अन्य अर्थ में उनकी आलोचना अधिक रचनात्मक मालूम होती है। उनके समीक्षा लेख रचनात्मकता की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर अपने निष्कर्षों तक पहुँचते हैं। उनके समीक्षा लेखों को पढ़ते हुए बहुधा आभास होता है कि मलयज कोई रचना लिख रहे हैं। उनके पास आलोचना की बिल्कुल नयी भाषा है इस भाषा में आलोचना का पाठ किसी रचना के पाठ सरीखा लगता है। मलयज की भाषा में अपनी बात को कहने का जोखिम लेने की क्षमता है इसलिए उनके कई लेखों के शीर्षक तक कई रचनाकारों और उनके प्रशंसक पाठकों को नागवार लगे हैं। त्रिलोचन और शमशेर पर लिखे उनके लेख इस बात की तस्दीक़ करेंगे। अपनी बात को कहने में मलयज कोई उदार रवैये की खोज में नहीं दिखते। बल्कि तल्ख़ से तल्ख़ बात को कैसे सलीके और उदारता से कहा जाए ये उन्हें आता है। आज आलोचना जिस सलीके और नएपन या विशिष्टता की चाहत रखती है वह मलयज की आलोचना हमें सिखा सकती है। मलयज रचना प्रक्रिया की सैद्धांतिकी को अपनी आलोचना में व्यवहृत करने का प्रयास करते जान पड़ते हैं। ये कुछ ऐसी बाते हैं जो उन्हें उनके समकालीनों ही नहीं बल्कि आज के और उनसे पूर्व के आलोचकों से भी विशिष्ट बनाती हैं।
Navan Dashak : Naven Dashak Ki Hindi Kavita Par Ekagra
- Author Name:
Avinash Mishra
- Book Type:

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Description:
युवा कवि-उपन्यासकार-आलोचक अविनाश मिश्र की यह पुस्तक उनके द्वारा नवें दशक के नौ कवियों पर किए गए व्यवस्थित चिन्तन की प्रस्तुति है। इन आलेखों में उन्होंने समकालीन आलोचना की स्वीकृत-प्रचलित परिपाटी से हटकर जिस तरह नवें दशक की कविता और उसके कवियों को समझा है, वह हिन्दी आलोचना में मौजूद एक बड़ी ख़ाली जगह को भी भरता है, और कविता के साथ आलोचना के भविष्य के प्रति भी आश्वस्त करता है।
उन्हीं के शब्दों में : नवाँ दशक नए तक पहुँचने की आँधीनुमा चाल का काल है। इस काल में बहुत कुछ अतीत का अंग होकर अप्रासंगिक होने के लिए अभिशप्त है। यहाँ एक स्थिति दूसरी स्थिति को बहुत तीव्रता से अपदस्थ कर रही है। यह सांस्कृतिक स्पन्दनों, मानवीय सम्बन्धों और पृथ्वी के नए सिरे से परिभाषित होने की घड़ी है। यह 'विचारधारा पर विचार' का समय है। यह वैश्वीकरण के तीव्र प्रवाह में अपनी जड़ें और प्राचीन रुचियाँ गँवाकर बाज़ार में गड्डमड्ड हो जाने का वर्तमान है। इस दौर का साहित्य मूलत: बाज़ार में रहकर बाज़ार-विरोध या अधिक तर्कयुक्त ढंग से कहें तो बाज़ारवाद-विरोध का साहित्य है।
इस महादृश्य में हिन्दी कविता ने अपने काम को बहुत फैला लिया। उसने अपने दायरे से बाहर देखना शुरू किया। उसने अपनी और अपने से गुज़र रहे जन की आँखें पीछे की ओर भी उत्पन्न कीं और इस प्रकार वास्तविक शत्रुओं की शिनाख़्त की। उसका काम कम से चलना बन्द हो गया। वह हाशियों तक फैलती चली गई। वह गति के साथ रही और यथार्थ के भी। वह सही अर्थों में समकालीन रही और उसने अपने ठीक पहले की कविता से बहुत अलग नज़र आने के कार्य भार को भी तरजीह दी।
अविनाश मिश्र ने इन आलेखों में इस निर्णायक कविता-समय को उसी समग्रता में पकड़ा है जिसकी ज़रूरत इस कार्यभार के लिए थी। पूर्व-कथन के रूप में एक लम्बा आलेख इस पुस्तक के लिए उन्होंने विशेष तौर पर लिखा है जिसमें बीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में सामने आए कवियों पर एक विहंगम दृष्टि डाली है। पुनः उन्हीं के शब्दों में हिन्दी आलोचना पर यह भी एक आक्षेप है कि वह प्राय: प्रतिष्ठित को प्रतिष्ठित और उपस्थित को उपेक्षित करती/रखती है। इस अर्थ में यह आलोचना-पुस्तक पूर्णत: उपस्थित को सम्बोधित है।
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