Gopan Aur Ayan : Khand—1
Author:
Sitanshu YashashchandraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ एक विस्तृत सेमिओटिक नेटवर्क अर्थात संकेतन-अनुबन्ध-व्यवस्था का अन्य-समतुल्य हिस्सा हैं। मूल बात ये है कि विशेष को मिटाए बिना सामान्य अथवा साधारण की रचना करने की, और तुल्यमूल्य संकेतकों से बुनी हुई एक संकेतन-व्यवस्था रचने की जो भारतीय क्षमता है, उसका जतन होता रहे। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय राज्यसत्ता, उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली, सम्मोहक वाग्मिता के छल पर टिकी हुई धनसत्ता एवं आत्ममुग्ध, असहिष्णु विविध विचारसरणियाँ/आइडियोलॉजीज़ की तंत्रात्मक सत्ता आदि परिबलों से शासित होने से भारतीय क्षमता को बचाते हुए उस का संवर्धन होता रहे।</p>
<p>गुजराती से मेरे लेखों के हिन्दी अनुवाद करने का काम सरल तो था नहीं। गुजराती साहित्य की अपनी निरीक्षण परम्परा तथा सृजनात्मक लेखन की धारा बड़ी लम्बी है और उसी में से मेरी साहित्य तत्त्व-मीमांसा एवं कृतिनिष्ठ तथा तुलनात्मक आलोचना की परिभाषा निपजी है। उसी में मेरी सोच प्रतिष्ठित (एम्बेडेड) है। भारतीय साहित्य के गुजराती विवर्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाने बिना मेरे लेखन का सही अनुवाद करना सम्भव नहीं है, मैं जानता हूँ। इसीलिए, इन लेखों का हिन्दी अनुवाद टिकाऊ स्नेह और बड़े कौशल्य से जिन्होंने किया है, उन अनुवादक सहृदयों का मैं गहरा ऋणी हूँ।</p>
<p>ये पुस्तक पढ़नेवाले हिन्दीभाषी सहृदय पाठकों का सविनय धन्यवाद, जिनकी दृष्टि का जल मिलने से ही तो यह पन्ने पल्लवित होंगे। </p>
<p>—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)</p>
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<p>''हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खंडों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जिल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।" —अशोक वाजपेयी
ISBN: 9789388753173
Pages: 299
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)
''हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जि़ल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।" —अशोक वाजपेयी
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हिन्दी में कृति की राह से गुज़रने की बहुत बात की जाती है, लेकिन सच्चाई यह है कि उसमें आलोचना और रचना का आपसी सम्बन्ध काफी कुछ टूट चुका है। जहाँ तक कविता की बात है, ज़्यादा शक्ति उसके सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों को स्पष्ट करने में ख़र्च की जा रही है। जब कविता से अधिक उसके कारणों को महत्त्व दिया जाएगा, तो अनिवार्यतः उसके सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकाले जाएँगे, वे पूरी तरह से सही नहीं होंगे। कविता अन्ततः एक कलात्मक सृष्टि है, जिसमें उसके देश और कालगत सन्दर्भ स्वयं छिपे होते हैं। आलोचना का काम रचना से ही आरम्भ कर उन सन्दर्भों तक पहुँचना है, न कि उन सन्दर्भों को अलग से लाकर उनमें रचना को विलीन कर देना। प्रस्तुत पुस्तक में इस कठिन काम को अंजाम देने का भरसक प्रयास किया गया है।
निराला, शमशेर और मुक्तिबोध हिन्दी के ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता का पाठ अत्यधिक जटिल है। हिन्दी काव्यालोचन उस पाठ से उलझने से बचता रहा है, जबकि संज्ञान और सौन्दर्य दोनों का मूल स्रोत वही है। डॉ. नंदकिशोर नवल निराला और मुक्तिबोध के विशेष अध्येता हैं और शमशेर में उनकी गहरी दिलचस्पी है। स्वभावतः उन्होंने इस पुस्तक के लेखों में उक्त कवियों की कुछ प्रसिद्ध कविताओं का पाठ-विश्लेषण करते हुए उनके सौन्दर्योन्मीलन की चेष्टा की है। उनका कहना है कि पाठ-विश्लेषण काव्यालोचन का प्रस्थानबिन्दु है। निश्चय ही उससे शुरू करके वे वहीं तक नहीं रुके हैं।
अज्ञेय, केदार और नागार्जुन अपेक्षाकृत सरल कवि हैं, लेकिन चूँकि कविता-पात्र एक जटिल वस्तु है, इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में उनकी कुछ कविताओं से भी आत्मिक साक्षात्कार किया गया है। नमूने के रूप में रघुवीर सहाय की एक कविता की भी पाठ-केन्द्रित आलोचना दी गई है। इस तरह की पुस्तक हिन्दी काव्य-प्रेमियों के लिए एक ज़रूरी पुस्तक है, जो उनकी आस्वादन क्षमता को विकसित करेगी।
Lokvadi Tulsidas
- Author Name:
Vishwanath Tripathi
- Book Type:

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Description:
कई लोगों का ख़याल है कि तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि हमारे देश की अधिकांश जनता धर्म-भीरु है। और क्योंकि तुलसी की कविता भक्ति का प्रचार करती है, इसलिए वह इतनी लोकप्रिय और प्रचलित है।
लेकिन इस पुस्तक के लेखक का तर्क है कि सभी भक्त-कवि तुलसी-जैसे लोकप्रिय नहीं हैं। यदि धर्मभीरुता ही लोकप्रियता का आधार होती तो नाभादास, अग्रदास, सुन्दरदास, नन्ददास आदि भी उतने ही लोकप्रिय होते।
वे इस पुस्तक में बताते हैं कि तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने राम के परम्परा-प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया है। उन्होंने राम की संघर्ष-कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन की संघर्ष-कथा के आलोक में देखा है। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन: स्थापित नहीं किया है, बल्कि अपने युग के नायक राम को चित्रित किया है।
तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि यथार्थ की विषमता से देश को उबारने की छटपटाहट उनकी कविता में है। देश-प्रेम इस विषमता की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए तुलसी दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित राम-राज्य का स्वप्न निर्मित करते हैं। यही उनकी कविता की नैतिकता और प्रगतिशीलता है।
Bhartiya Puralipi
- Author Name:
Rajbali Pandey
- Book Type:

- Description: पुरालिपि-शास्त्र बड़ा ही रोचक विषय है। यह लिपि के विकास का अध्ययन सम्मुख रहता है। श्री डब्ल्यू.जी. बुहलर और महामहोपाध्याय पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के बाद पुरालिपि के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण खोज हुए हैं। मुअनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाइयों के बाद इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी और नई स्थापनाएँ हुई हैं। इन स्थानों से प्राप्त सामग्रियों से भारतीय लेखन-कला की प्राचीनता और उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ है। इस हालत में भारतीय पुरालिपि पर एक ऐसी पुस्तक की बड़ी उपयोगिता है। इस पुस्तक ने पुरालिपि क्षेत्र के तीस वर्षों का व्यवधान पाटने का काम किया है। प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन काल से सन् 1200 ई. तक भारतीय लेखन-कला का इतिहास प्रस्तुत है। विषय को सुगम बनाने के लिए क्रमबद्ध प्रकरणों में उसका विवेचन प्रस्तुत है। अन्त में आवश्यक सारणियाँ भी दी गई हैं। पुरालिपि-शास्त्र के छात्रों, भावी शोधकर्ताओं और अनुसन्धित्सु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ विशेष उपयोगी है।
Aastha Aur Saundarya
- Author Name:
Ramvilas Sharma
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Description:
डॉ. रामविलास शर्मा की यह मूल्यवान आलोचनात्मक कृति भारोपीय साहित्य और समाज में क्रियाशील आस्था और सौन्दर्य की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है। इस सन्दर्भ में रामविलास जी के इस कथन को रेखांकित किया जाना चाहिए कि अनास्था और सन्देहवाद साहित्य का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं है, बल्कि वह यथार्थ जगत की सत्ता और मानव-संस्कृति के दीर्घकालीन अर्जित मूल्यों के अस्वीकार का ही प्रयास है। उनकी स्थापना है कि साहित्य और यथार्थ जगत का सम्बन्ध सदा से अभिन्न है और कलाकार जिस सौन्दर्य की सृष्टि करता है, वह किसी समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना की उपज न होकर विकासमान सामाजिक जीवन से उसके घनिष्ठ सम्बन्ध का परिणाम है।
रामविलास जी की इस कृति का पहला संस्करण 1961 में हुआ था। इस संस्करण में दो नए निबन्ध शामिल हैं। एक ‘गिरिजाकुमार माथुर की काव्ययात्रा के पुनर्मूल्यांकन’ और दूसरा ‘फ़्रांस की राज्यक्रान्ति तथा मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या’ को लेकर। इस विस्तृत निबन्ध में लेखक ने दो महत्त्वपूर्ण सवालों पर ख़ास तौर से विचार किया है कि क्या मानवजाति के सांस्कृतिक विकास के लिए क्रान्ति आवश्यक है और फ़्रांस ही नहीं, रूस की समाजवादी क्रान्ति भी क्या इसके लिए ज़रूरी थी? कहना न होगा कि समाजवादी देशों की वर्तमान उथल-पुथल के सन्दर्भ में इन सवालों का आज एक विशिष्ट महत्त्व है।
संक्षेप में, यह एक ऐसी विवेचनात्मक कृति है जो किसी भी सौन्दर्य-सृष्टि की समाज-निरपेक्षता का खंडन करते हुए उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों और आस्थावादी मूल्यों का तलस्पर्शी उद्घाटन करती है।
Sahaj Sadhna
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
- Book Type:

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Description:
पिछले पाँच दशकों में शैक्षणिक-विकास की दिशा में काफ़ी कुछ घटित हुआ है। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। जहाँ शिक्षा के प्रति हमारी सामाजिक रुचि में इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं यह भी सत्य है कि शिक्षा और शिक्षण-पद्धतियों की गुणवत्ता में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, लेकिन निरक्षरों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई है। हमारे शिक्षा-तंत्र का ढाँचा आज भी शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक बालक को भविष्य का कोई नक़्शा और एक सुदृढ़ व्यक्तित्व की गारंटी देने में असमर्थ है। जो शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, उनमें उनकी अपनी और स्कूलों की सम्पन्नता-विपन्नता से वर्ग-भेद की खाई भी कम नहीं हो पा रही है और जो शिक्षा के क्षेत्र से बाहर हैं, उन्हें इस तरफ़ आकर्षित करने के लिए जिस लगन, कर्मठता और संवेदनशीलता की आवश्यकता है, वह भी कहीं देखने में नहीं आती—न सरकारी प्रयासों में और न व्यक्तिगत या संस्थागत स्तर पर। इस पुस्तक में समाहित आलेखों की प्रमुख चिन्ता यही है।
लेखकद्वय ने प्राथमिक शिक्षा को अपने चिन्तन का केन्द्रीय बिन्दु बनाते हुए शिक्षा के पूरे परिदृश्य को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इन आलेखों के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इनकी रचना शिक्षा के क्षेत्र में व्यावहारिक स्तर पर काम करते हुए हुई; विभिन्न शिक्षाविदों, शिक्षकों तथा दूसरे सहयोगियों के साथ काम करते हुए जो अनुभव और सबक़ हासिल हुए, लेखकद्वय ने उन्हीं को इन आलेखों में पिरोने की कोशिश की है।
Aalochana Aur Vichardhara
- Author Name:
Namvar Singh
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Description:
‘आलोचना और विचारधारा’ डॉ. नामवर सिंह के व्याख्यानों का संग्रह है। इन व्याख्यानों के केन्द्र में ‘आलोचना’ है। संकलित 22 व्याख्यान किसी निश्चित परियोजना के तहत नहीं दिए गए हैं। इसीलिए इनमें कोई पूर्व निश्चित सिलसिला नहीं है। इन व्याख्यानों का समय भी दो दशक से अधिक तक फैला हुआ है। बावजूद इसके इनमें एक आन्तरिक एकता और सुसम्बद्धता है।
नामवर जी के व्याख्यानों की यह दूसरी पुस्तक है। ये व्याख्यान नामवर जी के उत्तरवर्ती समय की वैचारिकता की स्पष्ट झलक देते हैं। पूर्ववर्ती लेखन में वैचारिक संघर्ष के क्रम में समय-समय पर वे ‘आलोचना’ के बारे में अपनी राय रखते रहे, परन्तु आलोचना में स्वीकृत अवधारणाओं की विस्तृत समीक्षा करने और हिन्दी आलोचना की पूरी परम्परा पर एक साथ विचार करने के अवसर कम ही आए। इन व्याख्यानों में व्यक्त विचार वस्तुतः नामवर जी के सम्पूर्ण रचनात्मक जीवन के सार की तरह देखे जा सकते हैं। यह एक तरह से ‘मधु कोष’ है।
पुस्तक चार खंडों में बँटी हुई है। पहले खंड में संकलित दोनों व्याख्यान ‘नामवर के निमित्त’ के कार्यक्रमों में दिए गए थे। इधर के वर्षों में एक आलोचक के रूप में उनकी सभी प्रमुख चिन्ताएँ यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दूसरे खंड के व्याख्यान नामवर जी की आलोचना की मूल दृष्टि को स्पष्ट करने में मदद करते हैं। इनका परिप्रेक्ष्य स्पष्टतः वैचारिक और अवधारणात्मक है।
तीसरे खंड के व्याख्यानों का सम्बन्ध हिन्दी की आलोचना विशेषतः उसके समकालीन परिदृश्य से है। आलोचना के समक्ष मौजूद संकटों को पहचानने की कोशिश करते ये व्याख्यान ज़रूरी विवादों के परिप्रेक्ष्य में अपना पक्ष मज़बूती से रखते हैं। चौथे खंड में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और राहुल सांकृत्यायन पर केन्द्रित व्याख्यान हैं। आचार्य द्विवेदी पर एक शृंखला में दिए गए तीन व्याख्यानों में पहली बार उनकी रचनात्मकता की विशिष्टता का प्रकटन होता है।
नामवर जी की परवर्ती आलोचना में राहुल सांकृत्यायन के विचारों की एक अनुगूँज सुनी जा सकती है। डॉ. रामविलास शर्मा से संस्कृति सम्बन्धी विवादों का एक सिरा यहाँ तक भी जाता हुआ, स्पष्टतः देखा जा सकता है।
Anuvad : Siddhant Avam Vyavahar
- Author Name:
Dr. Jayanti Prasad Nautiyal
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- Description: यद्यपि अनुवाद विषय पर अभी तक लगभग पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, परन्तु सभी की विषय-व्याप्ति अलग-अलग है। विद्यार्थियों को एक ही स्थान पर अनुवाद सम्बन्धी समस्त जानकारी आसान व संक्षिप्त रूप में मिल सके, यह पुस्तक इस उद्देश्य से लिखी गई है। हिन्दी को राजभाषा के रूप में केन्द्रीय सरकार के उपक्रमों, सरकारी कार्यालयों तथा बैंकों में लागू कर दिए जाने से हिन्दी अनुवादक एवं हिन्दी अधिकारी पदों हेतु लिखित परीक्षा में अनुवाद भी दिया जाता है। अत: लिखित परीक्षा देनेवाले अभ्यर्थियों को भी अनुवाद हेतु अधिकतम जानकारी प्राप्त हो सके, इसे भी ध्यान में रखकर कुछ नए अध्याय जोड़े गए हैं। इसके अलावा यह पुस्तक उनके लिए भी उपयोगी होगी जो अनुवाद के क्षेत्र में नए-नए हैं अथवा आरम्भिक स्तर पर अनुवाद शिक्षण से जुड़े हैं, जैसे—बीएड, पाठ्यक्रम व भाषाविज्ञान में डिप्लोमा जैसे विषयों में भी अनुवाद विषय रखा जाता है, अत: इसके स्तर को भी ध्यान में रखकर यह पुस्तक लिखी गई है।
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