Bihari Ka Naya Mulyankan
Author:
Bachchan SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
प्रस्तुत पुस्तक में ‘बिहारी सतसई’ का मूल्यांकन करते समय तत्कालीन सामन्तीय परिवेश को बराबर दृष्टि में रखा गया है। बिहारी दरबार में रहते थे, पर उनको दरबारी नहीं कहा जा सकता। उनमें चाटु की प्रवृत्ति नहीं थी, वे वेश-भूषा, रहन-सहन, आन-बान आदि में किसी सामन्त-सरदार से कम न थे, उनका दृष्टिकोण पूर्णतः सामन्तीय था, जो ‘सतसई’ के काव्य तथा शैलीगत सतर्कता और सज्जा में अभिव्यक्त हो उठा है। उनके प्रेम, नारी-सम्बन्धी भाव, गाँव-सम्बन्धी विहार सभी पर सामन्त-कवि की छाप है, दरबारी कवि की नहीं। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने पर ही ‘सतसई’ का सम्यक् आकलन किया जा सकता था। इसके लिए भी सतसई को ही साक्ष्य माना गया है। इससे सुविधा भी हुई। तत्कालीन परिस्थिति और राजनीतिक स्थिति के नाम पर कहीं से इतिहास के दस-बीस पृष्ठ फाड़कर चिपकाने नहीं पड़े। ‘नयी-समीक्षा’ का आग्रह भी कुछ ऐसा ही है।
ISBN: 9788180318351
Pages: 183
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: यह पुस्तक गहन अध्ययन, चिंतन, मनन के उपरांत ठोस प्रमाणों और वैज्ञानिक समझ का समावेश करते हुए लिखी गई है। रागात्मक चेतना को काव्य की आत्मा सिद्ध करते हुए संस्कृत काल से चली आ रही रस, ध्वनि, अलंकार , औचित्य, रीति, सात्विक बुद्धि की काव्य के संदर्भ में इनके आत्मा होने के अस्तित्व मान्यताओं को खारिज कर, यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन सबको आलोकित करने वाला एक ही प्राण तत्त्व है - रागात्मक चेतना। यही सच्चे अर्थों में काव्य की आत्मा है। इसी रागात्मक चेतना से रस, ध्वनि, अलंकार, औचित्य, रीति आदि की सत्ता प्रकाशमय होती है। इसी रागात्मक चेतना को आधार बनाकर अति प्राचीन और वर्तमान समय तक सर्वमान्य सिद्धांत साधारणीकरण को असत्य सिद्ध किया है। इस नाते पुस्तक - काव्य की आत्मा और आत्मीयकरण एक शोधपूर्ण वैज्ञानिक प्रमाणों से युक्त अद्भुत, मौलिक, और सुधी शोध कर्त्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण कृति है।
Nirala Ki Kavityan Aur Kavyabhasha
- Author Name:
Rekha Khare
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक में काव्यभाषा के संवेदनात्मक स्तर पर रचना-प्रक्रिया के जटिल और संश्लिष्ट स्वरूप के परीक्षण का प्रयत्न किया गया है। निराला की स्थिति सभी छायावादी कवियों में विशिष्ट रही है। उनका काव्य-व्यक्तित्व सबसे अधिक गत्यात्मक, प्रखर तथा अन्वेषी रहा है, जिसका जीवन्त साक्ष्य प्रस्तुत करती है उनकी काव्यभाषा। काव्यभाषा को लेकर निराला के मानस में रचनात्मक बेचैनी उनके विविध और गतिशील भाषा-स्वरों में देखी जा सकती है। व्यक्ति के रूप में तो एक लम्बे अरसे तक वे उपेक्षित रहे, कवि के रूप में भी उनकी प्रतिभा को सही रूप में बहुत समय तक नहीं पहचाना गया। बाहर मैं कर दिया गया हूँ। ‘भीतर, पर, भर दिया गया हूँ’, में कवि के इस मानसिक द्वन्द्व की ध्वनि सुनी जा सकती है।
Company Raj Aur Hindi
- Author Name:
Sheetanshu
- Book Type:

- Description: उपनिवेशवाद ने अपने विस्तार के लिए एक ख़ास क़िस्म के लेखन को काफ़ी प्रश्रय दिया था। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज और तद्युगीन अन्य संस्थानों द्वारा उत्पादित ज्ञान के भंडार का अब तक का अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि अध्येताओं के मानस में ‘प्राच्यवाद’ का भूत कुछ इस तरह जड़ जमाकर बैठ गया है कि उनके बौद्धिक मानस से द्वन्द्वात्मक दृष्टि ही काफ़ूर हो चुकी है। औपनिवेशिक दौर के सम्पूर्ण लेखन को इस तरह की सीमा में बाँधकर एक ही चश्मे से देखने से वास्तविक भौतिक परिस्थितियों और उनके प्रभावों का उद्घाटन कठिन हो जाता है। यह ठीक है कि औपनिवेशिक सत्ता ज्ञान का अपने पक्ष में अनुकूलन करती रही है लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अनुकूलन चाहे कितना भी हो, द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों में ज्ञान की भूमिका के अन्य आयाम भी होते हैं। इन आयामों को हम तभी पहचान सकते हैं जब हम समय में विद्यमान दूसरे प्रभावी कारकों पर भी नज़र बनाए रखें। यह एक ऐतिहासिक दायित्व का कार्य है कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा हिन्दुस्तान के आर्थिक दोहन और आधुनिकता में हस्तक्षेप के बारे में हम तर्क जुटाएँ, लेकिन इस क्रम में हमने अगर पंक्तियों के बीच विद्यमान तथ्यों को विस्मृत कर दिया है, तो उसका पुन: उद्घाटन भी किया जाना चाहिए। ज्ञान की चेतना अन्याय के विरोध के साथ किसी भी क़िस्म के छद्म के अनावरण की पक्षधर होनी चाहिए। इसीलिए इस पुस्तक में कम्पनी की नीतियों का पुनर्विश्लेषण कर और कॉलेज के साथ उसके सम्बन्धों में विद्यमान सूक्ष्म भेदों को प्रकाशित कर, सत्ता और ज्ञान के सम्बन्धों की बारीकियों को उजागर किया गया है। दोनों की भाषा-नीति का फ़र्क़ बताकर हमारी दृष्टि की एकरेखीयता को उद्घाटित किया गया है। इन सबके साथ-साथ हिन्दी भाषा और साहित्य की विकास परम्परा और हिन्दी-उर्दू रिश्ते को एक बार फिर से विश्लेषित कर नए गवाक्ष खोले गए हैं।
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