Hindi Lalit Nibandh : Swarup Vivechan
Author:
Vedvati RathiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Unavailable
प्रस्तुत पुस्तक डॉ. वेदवती राठी के दस वर्षों के अध्यवसाय के फलस्वरूप लिखी गई है। अत: अब तक हिन्दी ललित निबन्ध के विषय में जो धारणाएँ व्यक्त की गई हैं, उनका समावेश तो प्रस्तुत पुस्तक में है ही, विविध प्रश्नों पर मौलिक चिन्तन करके अपना अभिमत देकर विदुषी लेखिका ने भरपूर चेष्टा की है कि ललित निबन्ध के विविध पक्षों पर गहन विश्लेषणाधृत विचार एक पुस्तक में मिल सकें। स्वाभाविक है कि यह पुस्तक हिन्दी ललित निबन्ध विषय पर मील का पत्थर सिद्ध होगी।</p>
<p>प्रस्तुत पुस्तक में अब तक उपलब्ध ज्ञान के विविध पक्षों से सम्बद्ध विषयों पर लेखिका के बेबाक विचार संकलित हैं। इसके निष्कर्ष प्रामाणिक एवं पर्याप्त सूझ-बूझ पर आधारित हैं। विचारों की स्पष्टता एवं भाषाभिव्यंजना की परिपक्वता देखते ही बनती है। लेखिका द्वारा इस पुस्तक के तैयार करने में जो गहन अध्यवसाय एवं असाधारण श्रम किया गया है, इसका अनुमान इस कृति को पढ़कर ही लगाया जा सकता है।</p>
<p>कुल मिलाकर हिन्दी ललित निबन्धों के स्वरूप के विविध पक्षों पर स्पष्ट विचार इस पुस्तक को विशिष्ट बनाते हैं।</p>
<p>—डॉ. श्रीराम शर्मा
ISBN: 9788180317668
Pages: 199
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
आमतौर पर माना जाता है कि आर्य और द्रविड़ भाषाओं का सम्बन्ध दो अलग-अलग भाषा परिवारों से है। ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता’ पुस्तक इसी धारणा का खंडन करती है और यह सिद्ध करने का प्रयास करती है कि आर्य और भारोपीय भाषाओं का स्रोत वही है जो द्रविड़ भाषाओं का।
जिन तथ्यों को आधार मानकर यह प्रबन्ध अपनी इस धारणा को स्पष्ट करता है, उनमें सबसे प्रमुख यह है कि भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं में तात्विक विभेद नहीं है और यह कि इन भाषाओं का विकास भारतीय परिवेश में ही हुआ था।
विभिन्न भाषाओं की शब्दावली और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए यह पुस्तक भाषा की आदिम अवस्था और विकास क्रम का विश्लेषण भी करती है तथा वैदिक, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक बोलियों की सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि इन बोलियों के स्वरूप को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम इन्हें अलग मानकर चलेंगे।
लेखक के अपने शब्दों में इस ‘कृति का गम्भीरता से अध्ययन करने के बाद इतना तो स्पष्ट हो जाएगा कि इसका उद्देश्य कुतूहल उत्पन्न करना नहीं है।’ यह एक बेहद उलझी हुई समस्या को समझने और उसका कोई समाधान ढूँढ़ने का एक जिम्मेदार प्रयास है।
भाषा के गम्भीर अध्येताओं के लिए एक विचारोत्तेजक कृति।
Kavita Ke Prasthan
- Author Name:
Sudhir Ranjan Singh
- Book Type:

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Description:
‘कविता के प्रस्थान’ को आधुनिक हिन्दी की कविता की सम्पूर्ण पड़ताल कहा जा सकता है। एक गम्भीर और सजग शोध जिसका उद्देश्य सिर्फ़ इतिहास-क्रम प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि कविता के इतिहास के वैचारिक प्रस्थान-बिन्दुओं और पड़ावों को रेखांकित करना भी है। बल्कि वही ज़्यादा है।
आधुनिक हिन्दी के आरम्भिक विकास और उसमें कविता की उपस्थिति को विभिन्न रचनाओं, कृतियों और विचार-सरणियों के सोदाहरण विवेचन से लेकर उसके बाद 'कविता क्या है’ इस पूरी बहस का विस्तृत परिचय देते हुए पुस्तक वर्तमान कविता तक पहुँचती है। हिन्दी कविता के इस बृहत् वृत्तान्त में कविता और उसके साथ-साथ चल रही आलोचना, दोनों का सर्वांग परिचय हमें मिलता है। साथ ही उन तमाम विवादों और प्रयोगों का भी जो हिन्दी काव्येतिहास में कभी दिलचस्प और कभी निर्णायक मोड़ रहे हैं। 'प्रतिमानों की राजनीति’ और 'काव्यशास्त्रीय प्रस्थान-बिन्दु’ शीर्षक आलेख इस लिहाज़ से ख़ास तौर पर पठनीय हैं।
आलोचना को जो चीज़ सबसे ज़्यादा मदद पहुँचाती है, वह रचना ही है, लेखक की इस मूल धारणा के चलते यह आलोचना-पुस्तक अध्येताओं के लिए जितनी उपयोगी होगी, उससे ज़्यादा विचारोत्तेजक होगी। उनका मानना है कि आलोचना को कोई काव्यशास्त्र पहले से प्राप्त नहीं होता, अपना शास्त्र उसे ख़ुद गढ़ना पड़ता है और उसी तरह सदैव रचनारत रहना होता है जैसे अपने वृत्त में कविता ख़ुद रहती है।
व्यवस्थित अध्ययन और सन्दर्भ सामग्री के विपुल प्रयोग के कारण हिन्दी कविता के विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक विशेष रूप में उपादेय साबित होगी।
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