Samsaamyik Hindi Natkon Mein Khandit Vyaktitwa Ankan
Author:
Dr. T.R. PateelPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में खंडित व्यक्तित्व एक आधुनिक संकल्पना है। आज का मानव टूटा हुआ, थका हुआ, हारा हुआ व्यक्ति है और इसी कारण उसका व्यक्तित्व भी खंडित है। इस विषय पर फुटकर रूप में कुछ विवेचन कतिपय पुस्तकों में अवश्य हुआ है किंतु अपनी समग्रता में खंडित व्यक्तित्व की परिधि में इसके अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई थी। डॉ. टी. आर. पाटील की यह पुस्तक ‘समसामयिक हिंदी नाटकों में खंडित व्यक्तित्व अंकन’ इस अभाव की पूर्ति का एक सफल प्रयास है ।<br>डॉ. पाटील ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में जहाँ खंडित व्यक्तित्व के अर्थबोध और अर्थ-विस्तार के साथ उसकी अवधारणा पर अपने गम्भीर विचार प्रस्तुत किए हैं, वहीं 1947 से 1985 तक प्रकाशित प्रतिनिधि नाटकों को परिलक्षित कर उनमें अंकित खंडित व्यक्तित्व के विविध आयामों को विवेचित-विश्लेषित किया है। इस संदर्भ में उन्होंने प्रेम और यौन समस्या, आत्मविश्लेषणवाद, मानव का असंगत जीवन, राजनीतिक-आर्थिक चेतना, सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से प्रभावित हिंदी नाटकों में प्रतिबिंबित खंडित व्यक्तित्व को विस्तार के साथ विश्लेषित किया है।<br>खंडित व्यक्तित्व को रंगमंच पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से नाटककारों ने जिस रंगमंच की अभिनव कल्पना की है उसमें मंच-सज्जा, पात्रों के क्रिया-व्यापार, पात्रों का अतर्द्वंद्व, पात्रों की वेश-भूषा, प्रकाश-योजना, ध्वनि-योजना, गीत-संगीत के विशिष्ट प्रयोग, नव्य यांत्रिक साधन तथा विविध रंगकर्मियों और निर्देशकों का योगदान और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं को दिखाने का जो सफल प्रयास डॉ. पाटील ने किया है, वह इस पुस्तक की एक अनुपम उपलब्धि है।
ISBN: 9788171192748
Pages: 332
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
हिन्दी कविता और आलोचना की दुनिया लम्बे अरसे से ‘मुख्यधारा’ के इकहरे आख्यान से संचालित होती रही है, वह भी सवर्ण पुरुष-दृष्टि से। शिक्षा और संसाधनों पर उसका वर्चस्व साहित्य और कला को भी अपने ढंग से अनुकूलित करता रहा है। स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित समूहों की अभिव्यक्तियाँ इसी आधार पर या तो विस्मृत कर दी गईं या हाशिये पर डाल दी गईं।
आलोचना का स्त्री पक्ष सुजाता को अस्मिता-विमर्श की संश्लिष्ट धारा की प्रतिनिधि के रूप में सामने लाती है। वह गहन शोध द्वारा इतिहास के विस्मृत पन्नों से दमित अभिव्यक्तियों की निशानदेही करती हैं और समकालीन सृजन की बारीक परख भी। वह सबसे पहले हिन्दी कविता की मुख्यधारा की जड़ता को उजागर करती हैं, फिर लोक और परम्परा में स्त्री-कविता के निशान ढूँढ़ते हुए उसे नाकाफ़ी पारम्परिक कैननों में रखे जाने पर सवाल उठाती हैं और उसे परखने की स्त्रीवादी आलोचना-दृष्टि प्रस्तावित करती हैं। यह किताब एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह है जो हिन्दी आलोचना में एक ज़रूरी कैनन–स्त्रीवाद–को जोड़ती हुई उसे विमर्श के केन्द्र में ले आती है।
जहाँ वैश्विक स्तर पर हेलेन सिक्सू, लूस इरिगिरे, जूलिया क्रिस्टेवा जैसी आलोचकों ने स्त्री-भाषा को लेकर महत्त्वपूर्ण काम किए हैं, वहीं हिन्दी में अभी इस पर कुछेक अकादमिक काम के अलावा कोई ठोस बहस दिखाई नहीं देती। ऐसे में यह किताब ख़ासकर हिन्दी कविता और आम तौर पर भारतीय साहित्य में स्त्री-भाषा की समझ विकसित करने के लिए एक आवश्यक सैद्धान्तिक उपकरण उपलब्ध कराती है। साथ ही ‘आस्वाद की लैंगिक निर्मिति’ की सैद्धान्तिकी भी प्रस्तावित करती है।
पुस्तक का विशेष खंड वह है जिसमें सुजाता कुछ प्रमुख स्त्री कवियों के लेखन का विश्लेषण करते हुए स्त्रीवादी आलोचना की पद्धति भी प्रस्तावित करती हैं।
यह पुस्तक आलोचना की कथित मुख्यधारा को चुनौती भी है और वैकल्पिक, सर्वसमावेशी पद्धति का प्रस्ताव भी।
Mahakavi Soordas
- Author Name:
Nandulare Vajpeyi
- Book Type:

- Description: भक्तिकाल के इस अप्रतिम कवि के जीवन और साहित्य पर जितना कुछ उल्लेखनीय अध्ययन अब तक हुआ है, उसमें आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की यह पुस्तक विशिष्ट स्थान रखती है। उपलब्ध स्रोत-सामग्री का तुलनात्मक अध्ययन करके आचार्य वाजपेयी ने महाकवि के जीवन-तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी इस पुस्तक में दी है, और साथ ही उनके कृतित्व और भक्ति के सिद्धान्त-पक्ष का विवेचन भी किया है। आकार में लघु होते हुए भी सूर-साहित्य का इतना समग्र अनुशीलन इस पुस्तक में है कि निस्संकोच भाव से इसे 'गागर में सागर' की संज्ञा दी जा सकती है।
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