Swatantra Bharat Ki 75 Pramukh Rajneetik Ghatnayen
Author:
Mamta ChandrashekharPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Available
आजादी का अमृत महोत्सव' भारत के गौरवमय स्वाधीनता संग्राम की गाथा को वर्तमान की छाती पर उकेरने का एक सुनहरा अवसर है। भारतीय स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण होने की इस पावन वेला में, यह वक्त है, उन जाने-अनजाने अनंत बलिदानियों को श्रद्धाजंलि अर्पित करने का, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का, जिनके खून से सींची गई जमीं पर आज हम भारतीय अपने सुकून की चादर बिछा रहे हैं, अपने गरिमामय जीवन की बुनियाद रख रहे हैं।
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ISBN: 9789355213884
Pages: 360
Avg Reading Time: 12 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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लोक-साहित्य एवं लोक-संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन एवं उन्नयन के प्रयास के अनुक्रम में ‘लोक साहित्य एवं संस्कृति’ पुस्तक के सृजन की योजना बनी है। इस आशा के साथ कि उच्च शिक्षा में अध्ययनरत छात्रों, शोधार्थियों एवं अकादमिक जगत् से जुड़े हुए विद्वत समाज के मनोविज्ञान में लोक साहित्य और संस्कृति के प्रति एक बौद्धिक व आत्मिक रिश्ते का अंकुरण प्रस्फुटित होगा। भारत की सामासिक संस्कृति, अक्षय सामाजिक-सांस्कृतिक लोक परम्परा, लोकाचार, लोक व्यवहार, लोक विश्वास और लोक मान्यताओं से बनी हुई इस सभ्यता के भीतर दाखिल हो कर हम लोकजीवन व लोक-संस्कृति के सापेक्ष जीवन मूल्यों व ‘जीवन जीने की कला’ के रहस्य सूत्र की तलाश कर सकेंगे। लोक साहित्य व संस्कृति में हमारी सांस्कृतिक विरासतों की गहरी जड़ें व गौरव के भाव सन्निहित हैं।
वैश्वीकरण और बाजारवाद के इस दौर में जब हमारे मूल्य, संस्कृति, परम्परा और सरोकार तेजी से धराशायी हो रहे हैं, जब छद्म विकास, अपरिमित मुनाफा और दिखावे का मुखौटा लगाकर हमारी अस्मिता को विनष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा रहा हो, जब हमारा जीवन बाजार के हाथों नियंत्रित और संचालित होने लगे, जब हमारी संवेदनाएँ छीजने लगे, जब एकल परिवार हमारी प्राथमिकता में अपनी जगह बनाने लगे, तब ऐसे समय में हमें लोक साहित्य और संस्कृति से वैचारिक ऊष्मा व प्रेरणा की असंख्य रोशनी मिलती है। यह रोशनी समय के तमाम धुंध और अन्धेरे को छांटने में सक्षम और कारगर है।
लोक साहित्य में लोक अन्तर्मन की अनुगूँज ध्वनित हैं। इस गूँज में सामूहिकता है। भावनात्मक एकता है। जीवन का राग और सौन्दर्य है। अधिकार, अस्तित्व, अस्मिता, अध्यात्म और जीजिविषा का प्रश्न है। वंचितों और पीड़ितों के जरूरी सवाल हैं। स्त्री स्वायत्तता और अधिकार के प्रश्न केन्द्र में हैं। इसमें निश्छल हँसी भी है और करुण चीत्कार भी है। इसमें सृजन और संहार दोनों का रंग समाहित है। लोक साहित्य की सभी विधाओं में जीवन के सारे अनिवार्य तत्वों का समावेश है। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से लोक साहित्य का अध्ययन अपेक्षित है। अतएव राष्ट्र निर्माण, सामाजिक भागीदारी व मानवीय विकास में लोक साहित्य की भूमिका अद्वितीय है। इसमें रंच मात्र भी संशय नहीं है।
Hindi Kavita : Naye-Purane Paridrishya
- Author Name:
S. Tankmani Amma
- Book Type:

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Description:
लोकगीतों से शुरू होकर आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के विभिन्न परिवेशों से गुज़रकर आधुनिक काल तक पहुँच गई हिन्दी कविता अपनी विकास-यात्रा की विविध मंज़िलों को तय करके सम्प्रति इक्सीसवीं शदी के दूसरे दशक के अन्तिम चरण तक पहुँच चुकी है। इस लम्बी विकास-यात्रा के दौरान हिन्दी कविता स्थल और काल के परिवेश के अनुकूल नूतन प्रवृत्तियों को आत्मसात् कर कई आन्दोलनों से होकर गुज़री है। प्रचलित प्रवृत्तियों से भिन्न प्रवृत्तियाँ जब काव्यक्षेत्र में घर कर लेती हैं तथा कविता उनके अनुकूल परिभाषित होती है तभी तो नए काव्यान्दोलनों का प्रादुर्भाव होता है। इन काव्यान्दोलनों ने समय-समय पर कविता की संवेदना और संरचना में परिवर्तन और परिवर्द्धन उपस्थित कर दिए हैं। सुखद आश्चर्य की ही बात है कि ‘कवि की मौत', 'कविता की मौत' जैसे वैश्विक नारों और चुनौतियों का सामना करते हुए, अपनी संजीवनी शक्ति के बल पर कविता अब भी सम्पूर्ण मानवराशि को तथा प्रकृति और पर्यावरण को बचाए रखने की कोशिश में लगी हुई है। विनष्ट होते अथवा क्षरित होते श्रेष्ठ मानव मूल्यों को बचाने की चिन्ता ही समकालीन विविध विमर्शों में मुखरित होती है। तभी मुक्तिबोध की ये पक्तियाँ सार्थक सिद्ध होती हैं–
"नहीं होती। कहीं भी ख़त्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है...
हिन्दी कविता की यात्रा अभी जारी है–वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओँ से जूझते हुए...मानव हित की चिन्ता करते हुए।
Hindi Ka Gadhyaparv
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
नामवर सिंह न सीमित अर्थों में साहित्यकार थे और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक थे।
यह पुस्तक साक्ष्य है नामवर जी के लेखन-जीवन का—एक दस्तावेज़ी साक्ष्य। इसमें उनका पहला प्रकाशित निबन्ध है और अन्तिम निबन्ध ‘द्वा सुपर्णा...’ और ‘पुनर्नवता की प्रतिमूर्ति’ भी।
पूर्व प्रकाशित ख्यातिनाम और लोकप्रिय पुस्तकों के बावजूद इस तरह की पुस्तक का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि इस एक अकेली पुस्तक में नामवर जी की विकास-यात्रा के प्राय: सभी पड़ावों की झलक मौजूद है। निबन्धों के लेखन-काल की ही तरह उनके विषय भी विस्तृत क्षेत्र में फैले हैं। परन्तु इस पुस्तक के केन्द्र में है—आलोचना। वैश्विक पृष्ठभूमि वाले आलोचकों जॉर्ज लूकाच, लूसिएँ गोल्डमान और रेमंड विलियम्स से लेकर भारतीय परम्परा को पुनर्नवा करनेवाले गौरव नक्षत्रों—आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा पर लिखे गए निबन्ध यहाँ एक साथ मौजूद हैं। दीर्घ सक्रियता की अवधि में नामवर जी ने पुस्तक समीक्षाएँ प्राय: नहीं लिखीं। इस पुस्तक में अलग-अलग अवसरों पर लिखी गईं पाँच समीक्षाएँ भी मौजूद हैं।
Ramvilas Sharma
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के कृतित्व की विकास-यात्रा में एक-दूसरे की अपरिहार्य भूमिका और उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। यदि नामवर सिंह नहीं होते तो सम्भवतः रामविलास शर्मा के कृतित्व की विशिष्टता, उनकी उपलब्धि और मूल्यांकन कुछ और प्रतीत होते। उसी तरह रामविलास शर्मा की अनुपस्थिति में नामवर सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व शायद कुछ और प्रतीत होता।
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जीवन, संस्कृति, साहित्य और राजनीति से जुड़ी यात्रा में ‘हमराही' से हैं। दोनों एक-दूसरे के चिन्तन और समालोचना को गहराई से प्रभावित करते प्रतीत होते हैं। शीर्षस्थ समीक्षकों ने एक-दूसरे को प्रभावित करने के साथ-साथ एक-दूसरे का मूल्यांकन भी किया है।
सच तो यही है कि रामविलास शर्मा के कृतित्व, उपलब्धि, प्रासंगिकता और सीमाओं का बोध साहित्य-जगत को लगभग उतना ही है, जितना नामवर सिह ने अपनी समीक्षा से प्रस्तुत किया है। तथ्य है कि आज भी हम रामविलास शर्मा के कृतित्व को ‘...केवल जलती मशाल’ और ‘इतिहास की शव-साधना’ के दो ध्रुवान्तों के मध्य ही विश्लेषित करने को मजबूर हैं। रामविलास शर्मा के सन्दर्भ में यह नामवर सिह की समीक्षा की अपरिहार्यता और केन्द्रीयता का दुर्निवार तथ्य और प्रमाण हैं।
रामविलास शर्मा को समीक्षित करने के क्रम में यह संस्कृति, भारतीयता, साहित्य, आलोचना, विचारधारा और अन्ततः जीवन को समीक्षित करनेवाली अपरिहार्य एवं अविस्मरणीय समालोचना पुस्तक प्रतीत होती है।
Gopan Aur Ayan : Khand—1
- Author Name:
Sitanshu Yashashchandra
- Book Type:

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Description:
गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ एक विस्तृत सेमिओटिक नेटवर्क अर्थात संकेतन-अनुबन्ध-व्यवस्था का अन्य-समतुल्य हिस्सा हैं। मूल बात ये है कि विशेष को मिटाए बिना सामान्य अथवा साधारण की रचना करने की, और तुल्यमूल्य संकेतकों से बुनी हुई एक संकेतन-व्यवस्था रचने की जो भारतीय क्षमता है, उसका जतन होता रहे। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय राज्यसत्ता, उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली, सम्मोहक वाग्मिता के छल पर टिकी हुई धनसत्ता एवं आत्ममुग्ध, असहिष्णु विविध विचारसरणियाँ/आइडियोलॉजीज़ की तंत्रात्मक सत्ता आदि परिबलों से शासित होने से भारतीय क्षमता को बचाते हुए उस का संवर्धन होता रहे।
गुजराती से मेरे लेखों के हिन्दी अनुवाद करने का काम सरल तो था नहीं। गुजराती साहित्य की अपनी निरीक्षण परम्परा तथा सृजनात्मक लेखन की धारा बड़ी लम्बी है और उसी में से मेरी साहित्य तत्त्व-मीमांसा एवं कृतिनिष्ठ तथा तुलनात्मक आलोचना की परिभाषा निपजी है। उसी में मेरी सोच प्रतिष्ठित (एम्बेडेड) है। भारतीय साहित्य के गुजराती विवर्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाने बिना मेरे लेखन का सही अनुवाद करना सम्भव नहीं है, मैं जानता हूँ। इसीलिए, इन लेखों का हिन्दी अनुवाद टिकाऊ स्नेह और बड़े कौशल्य से जिन्होंने किया है, उन अनुवादक सहृदयों का मैं गहरा ऋणी हूँ।
ये पुस्तक पढ़नेवाले हिन्दीभाषी सहृदय पाठकों का सविनय धन्यवाद, जिनकी दृष्टि का जल मिलने से ही तो यह पन्ने पल्लवित होंगे।
—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)
''हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खंडों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जिल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।" —अशोक वाजपेयी
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