Prakashwata
Author:
Dattaprasad DabholkarPublisher:
Manovikas Prakashan LLPLanguage:
MarathiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 256
₹
320
Available
नानाजी देशमुख यांचा गोंडा प्रकल्प
आणि शंभर ग्रामदानी खेड्यांचा कारभार पाहणारा
गोविंदपूर आश्रम यांची शोधयात्रा म्हणजे
प्रकाशवाटा- हे पुस्तक होय.
या पुस्तकाची समीक्षा करणारी अनेक पाने दुर्गा भागवतांनी आपल्या रोजनिशीत लिहिली होती. त्यानंतर आपले जीवन आणि जीवनविषयक तत्त्वज्ञान आडपडदा न ठेवता सांगणारी एक दीर्घ मुलाखत नानाजी देशमुख यांनी दिली होती. त्याचा समावेश असलेलं हे पुस्तक पस्तीस वर्षांपूर्वी प्रकाशित झालं होतं.
नानाजी देशमुखांचे हे दोन्ही प्रकल्प जे प्रश्न सोडवण्यासाठी कार्यरत होते, तेच प्रश्न आज अधिक गंभीर स्वरुपात आपल्यासमोर उभे आहेत. ते सोडवण्यासाठी जे आज अंधारात चाचपडत आहेत, नवे मार्ग शोधत आहेत, त्यांना हे दोन्ही प्रकल्प आणि नानाजी देशमुख व दुर्गा भागवत यांचे विचार यांचा अभ्यास करावा लागेल. म्हणूनच पस्तीस वर्षानंतर पुन्हा एकदा हे पुस्तक वाचकांच्या हाती देत आहोत. कारण ‘यशाहूनही प्रयत्न सुंदर' असे सांगत दीपस्तंभाप्रमाणे हे दोन प्रकल्प आणि या दोघांचे विचार उभे आहेत.
Prakashwata | Dattaprasad Dabholkar
प्रकाशवाटा | दत्तप्रसाद दाभोळकर
ISBN: 9788196774882
Pages: 240
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘चाणक्य के जासूस’ अनेक अर्थों में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। यह न केवल इतिहास को एक नई दृष्टि से देखती है बल्कि जासूसी की तमाम पुरातन-ऐतिहासिक तकनीकों का विशद विवेचन भी करती है। चाणक्य के बारे में प्रचलित अनगिनत मिथकों से इतर इसमें हमें उनका वह रूप दिखलाई पड़ता है, जो जासूसी का शास्त्र विकसित करता है और उसे राजनीतिशास्त्र का अपरिहार्य अंग बनाकर मगध साम्राज्य के शक्तिशाली किंतु अहंकारी शासक धननन्द का अन्त सम्भव करता है। बेशक धननन्द का महामात्य कात्यायन जो इतिहास में राक्षस के रूप में प्रसिद्ध है, भी जासूसी में कम प्रवीण न था, लेकिन उसके पास केवल सत्ता-बल था। उसकी जासूसी विद्या नैतिकता की बजाय निजी स्वार्थपरता से संचालित थी। लेकिन चाणक्य ने अपनी जासूसी में व्यावहारिकता और नैतिकता का सामंजस्य हमेशा बनाए रखा और मगध साम्राज्य की जनता के कल्याण के उद्देश्य को कभी नहीं भूला। यह उपन्यास दिखलाता है कि चाणक्य ने सम्राट धननन्द को खून की एक भी बूँद बहाए बिना अपने बुद्धिबल से मगध साम्राज्य के सिंहासन से अपदस्थ किया और चंद्रगुप्त को उस पर बिठाकर राष्ट्र के सुदृढ़ भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। इसमें इतिहास का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला वह जासूसी तंत्र अपने पूरे विस्तार में दिखलाई पड़ता है, जो हमेशा से नेपथ्य में रहकर ही अपना काम करता है। इतिहास का एक महत्वपूर्ण कालखंड इस उपन्यास का आधार है। लेकिन यह एक साहित्यिक कृति है। इसलिए इतिहास को दुहराने की बजाय इसमें उस कालखंड के ऐतिहासिक मर्म को तथ्यसंगत ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी क़ायम है। उपन्यास में लेखक ने जासूसी की आधुनिक विधियों का भी पर्याप्त उल्लेख किया है और तमाम ऐतिहासिक और आधुनिक सन्दर्भों से उसे विश्सनीय बनाया है। इस लिहाज से यह खासा शोधपूर्ण उपन्यास है, ख़ासकर इसलिए भी कि ख़ुद लेखक भी लम्बे समय तक जासूसी सेवा में रहा है। बेहद पठनीय और रोमांचक कृति! —शशिभूषण द्विवेदी
MANAS MEIN LAUKIK JNAN
- Author Name:
Dr. Shrikrishna +1
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- Description: अपने दिल का हाल जानने अपोलो अस्पताल जाना हुआ। हमेशा की तरह मेरे दिल की जाँच-पड़ताल के बाद मेरे दिल के डॉक्टर ने पहली बार अपने दिल का हाल भी बयान किया। देश के जाने-माने इस हृदयरोग विशेषज्ञ के दिल में राम-ही-राम बसते हैं। रामचरितमानस के पाठ से इनका दिनारंभ होता है। इन्हें यह भी भान है कि अनंत लोग इनकी तरह मानस का नित्य वाचन करना चाहते हैं पर समयाभाव आड़े आ जाता है। ऐसे लोगों की सुविधा के लिए इन्होंने कोरोना काल की फुरसत का लाभ उठाकर रामचरितमानस में से वे छंद, दोहे, चौपाइयाँ और सोरठे छाँटे हैं, जिनमें लौकिक ज्ञान निहित है। इनकी विदुषी सहधर्मिणी डॉ. किरण गुप्ता के शब्दों में ‘सांसारिक जीवन के विविध पक्षों पर विराम लगाते हुए, मात्र अपने कार्य पर ही केंद्रित रहना संभवतः इनके चुनौतीपूर्ण काम की अनिवार्यता है। सात्त्विक, सादा, कर्मठ एवं अनुशासित जीवन तथा रोगियों के प्रति निरंतर निष्काम सेवाभाव ने ही संभवतः इन्हें अध्यात्म के उच्चतम पथ पर अग्रसित किया है।’ डॉ. किरण ने डॉ. एस.के. गुप्ता द्वारा चयनित पाठ्य-सामग्री को तारतम्यता देकर इस संकलन को परिपूर्णता भी दी है। डॉक्टर दंपती ने चाहा कि प्रकाशन पूर्व मुझे इसका संपादकीय दृष्टि से अवलोकन करना चाहिए। मैंने वही किया। कहना न होगा, मानस के इस संक्षिप्त संस्करण के पठन ने इसकी उपयोगिता तो स्वयंसिद्ध की ही, मैं इसके चयनकर्ता की सोच, पारखी नजर, गुणग्राह्यता और इनकी सहधर्मिणी की सार-संक्षिप्तता का प्रशंसक हुए बिना भी न रह सका। —आमुख से...
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