Sangh Samjun Ghetana
Author:
Dattaprasad DabholkarPublisher:
Manovikas Prakashan LLPLanguage:
MarathiCategory:
General-non-fiction1 Reviews
Price: ₹ 224
₹
280
Available
भर वर्षांच्या अथक, एकाकी, समर्पित, कष्टप्रद, काही काळ यातनामय वाटचालीनंतर संघ आज निर्विवादपणे सत्तेत केंद्रस्थानी उभा आहे. संघाने स्पष्टपणे सांगितलंय आमचा फक्त एककलमी कार्यक्रम आहे, ‘हिंदूंचाच हिंदूस्थान' म्हणजे हे हिंदूराष्ट्र आहे. भारत हे संघराज्य नाही ते एक राष्ट्र आहे आणि हा देश एकाधिकारशाही मानतो. भारतरत्न बाबासाहेब आंबेडकर राज्यघटना बनवत असताना ऑरगनायर्झरने त्याला कडवा विरोध केलाय. या देशाची घटना मनुस्मृतीवर आधारित हवी म्हणून सांगितले. राजकारण करताना ‘वारांगनेव नृपनिती अनेकरूपा' हा मंत्र बरोबर ठेवा आणि मुखवटे घालून राजकारणात वाटचाल करा. हा आदेश संघाने राजकारणात पाठवलेल्या स्वयंसेवकांना दिलाय. पुरोगामी परिवर्तनवादी चळवळ ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने' म्हणून त्याकडे उपेक्षेने खरंतर उपहासाने पाहत उभी होती. आज ही चळवळ भांबावलेल्या खरंतर भेदरलेल्या अवस्थेत आहे. त्यामुळे खरी गरज आहे, यातून बाहेर येवून संघाची शक्तिस्थाने आणि मर्मस्थाने जाणून घेण्याची व पुरोगामी परिवर्तनवादी चळवळीने केलेले ‘हिमालयीन ब्लंडर' समजावून घेत रणनीती ठरविण्याची.या व अशा प्रश्नांचा मागोवा घेत अस्वस्थ मनस्थितीत गेल्या दहा वर्षात दत्तप्रसाद दाभोळकर यांनी लिहिलेल्या काही प्रमुख लेखांचे हे संकलन. आज आपणासमोर असलेल्या धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक राजकारणाचा चक्रव्यूह समजावून घेण्यासाठी हे पुस्तक वाचले आणि संग्रहीपण ठेवले पाहिजे.
Sangh Samjun Ghetana | Dattaprasad Dabholkar
संघ समजून घेताना | दत्तप्रसाद दाभोळकर
ISBN: 9788196774875
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: यह हमारे समय पर की गयी टिप्पणी है कि जो लोग सत्ता के क़रीब हैं, वे भी सत्य बोलने से डरने लगे हैं... सत्ता के गलियारों में पैठे लोगों की आलोचना के प्रति बढ़ती असहिष्णुता के बावजूद, प्रभाकर सत्ता को आईना दिखाते हैं। यह हमारे संविधान में निहित मूल्यों के बचाव के प्रति उनकी आस्था का गवाह है। -संजय बारू द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक भारत को और ज़्यादा परकालाओं की ज़रूरत है, लेकिन ऐसा होना बहुत कठिन है। उनके नज़रिये से सहमत होना अपने आप में कोई ख़ास बात नहीं है। ख़ास बात यह है कि यथास्थिति को चुनौती देने के उनके (और दूसरों के भी) अधिकार को स्वीकार किया जाए। -द वीक सुस्पष्ट और सुबोध शैली में लिखे गए इन आलेखों के विषय भी व्यापक हैं—भाजपा की जनसंख्या-राजनीति से लेकर हिजाब बनाम भगवा स्कार्फ़ तक और कृषि क़ानूनों से लेकर लखीमपुर खीरी तक... यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि यह किताब उन सबको पढ़नी चाहिए जिनमें सत्ता के सामने सच कहने का साहस है। -अविजित पाठक, द ट्रिब्यून इस किताब में प्रभाकर ने जिन विषयों को लिखने के लिए चुना अनूठापन उनमें नहीं है... अनूठापन आँकड़ों और सांख्यिकी पर उनकी पकड़ में है। ...उससे भी अहम है आँकड़ों की उनकी व्याख्या जिसे वे हिन्दुत्व की बड़ी परियोजना की रौशनी में करते हैं जिसमें उनका अनुभव दिखाई देता है। —सफ़वत ज़रगर स्क्रॉल.इन
Anna
- Author Name:
C. N. Annadurai
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- Description: Everyone regarded Anna as one of the most remarkable figures produced by Tamil Nadu. His greatness stems from the widespread acclaim he received from prominent leaders of his era. His various talents demonstrate his capabilities as an effective administrator, deep thinker, prolific writer, insightful journalist, and above all, a humanitarian that leaves us in awe of his literary contributions. He observed the living conditions of Tamils during his time and aimed to instigate change through his writing and speeches. Inspired by Periyar's thoughts and pride in Tamil heritage, he emerged as a towering advocate for humanism, dedicated to protecting the Tamil community and working toward their advancement. Anna once referenced influential figures like Shelley, Byron, Keats, Coleridge, Emerson, and Bacon, remarking that they are not foreigners in the truest sense. Is Tiruvalluvar simply a Tamil? They are all global citizens and educators, and Anna holds a similar esteemed position as a worldwide citizen. Anna is recognised as a pioneer in short stories that explore the tension between tradition and modernity. He is a relentless journalist and a guiding light as a dramatist. In addition to being a remarkable orator, his political acumen further defines him as the genius of his century. In summary, Anna is a true phenomenon.
Kattarata Jitegi Ya Udarata
- Author Name:
Prem Singh
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक भारतीय राजनीति और समाज को पिछले दो दशकों से मथनेवाली साम्प्रदायिकता की परिघटना को समझने और उसके मुक़ाबले की प्रेरणा और सम्यक् समझ विकसित करने के उद्देश्य से लिखी गई है। चार खंडों—वाजपेयी (अटल बिहारी), संघ सम्प्रदाय, जॉर्ज फर्नांडीज, गुराज—में विभक्त इस पुस्तक में साम्प्रदायिकता के चलते पैदा होनेवाली कट्टरता, संकीर्णता और फासीवादी प्रवृत्तियों और उन्हें अंजाम देने में भूमिका निभानेवाले नेताओं, संगठनों, शक्तियों आदि का घटनात्मक ब्यौरों सहित विवेचन किया गया है। इसमें मुख्यतः साम्प्रदायिकता के राष्ट्रीय जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक-अकादमिक आयामों पर पड़नेवाले दुष्प्रभावों/दुष्परिणामों की भी शिनाख़्त और आकलन किया गया है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा भूमंडलीकरण की विचारधारा के साथ मिलकर देश की आर्थिक और राजनैतिक सम्प्रभुता पर गहरी चोट कर रही है। पुस्तक में दोनों के गठजोड़ का उद्घाटन करते हुए, उसके चलते दरपेश नवसाम्राज्यवादी ख़तरे के प्रति आगाह किया गया है।
पुस्तक की विषयवस्तु साम्प्रदायिकता और उससे होनेवाले बिगाड़ को चिन्हित करने तक सीमित नहीं है। इसमें धर्मनिरपेक्षता, उदारता, लोकतंत्र और समाजवाद की विचारधारा के पक्ष में लगातार जिरह की गई है। इस रूप में यह सरोकारधर्मी और हस्तक्षेपकारी लेखन का सशक्त उदाहरण है।
भाषा की स्पष्टता और शैली की रोचकता पुस्तक को सामान्य पाठकों के लिए पठनीय बनाती है।
Dosti
- Author Name:
Amarkant
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- Description: ‘दोस्ती’ कथाकार अमरकान्त के संस्मरणों का संग्रह है। इसकी शुरुआत ही एक ऐसे संस्मरण से होती है जिसमें हमें बाद में अत्यन्त प्रतिष्ठित हुए रचनाकारों के शुरुआती दिनों और उनके संघर्षों का विवरण प्राप्त होता है। ‘लेखक की दोस्ती’ शीर्षक इस वृत्तान्त में कमलेश्वर, मार्कण्डेय, भैरवप्रसाद गुप्त, दुष्यन्त कुमार और अन्य समकालीनों की मित्रताओं और निजी व सामाजिक-रचनात्मक द्वन्द्वों का लेखा-जोखा पढ़ते ही बनता है। संस्मरण विधा में प्रवेश करते ही अमरकान्त जी की लेखनी इतनी चुटीली और चुस्त हो जाती है कि उनकी एक-एक पंक्ति आपको पकड़कर रखती है। उपरोक्त के अलावा इस पुस्तक में महादेवी वर्मा, नागार्जुन, रेणु, रवीन्द्र कालिया, मोहन राकेश आदि से सम्बन्धित संस्मरणों के अलावा कुछ यात्रा-वृत्तान्त भी शामिल हैं। ‘मेरा बचपन कब समाप्त हुआ’ शीर्षक लम्बे संस्मरण में अमरकान्त अपने जीवन के उन दिनों को याद करते हैं जब उनकी किशोर चेतना अलग-अलग दिशाओं से समझ और संस्कार ग्रहण कर रही थी। इस आलेख में कई बेहद मनोरंजक घटनाओं के विवरण भी उन्होंने दिए हैं और उस समय के सामाजिक-राजनीतिक हालात के भी। अमरकान्त और उनके समय को जानने-समझने में उनके ये संस्मरण साहित्य के अध्येताओं और पाठकों, दोनों को रुचिकर तथा सार्थक प्रतीत होंगे।
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