Ulua, Bulua Aur Main

Ulua, Bulua Aur Main

Language:

Hindi

Pages:

264

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

528 mins

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Book Description

इस ग्लोबलाइज़्ड दुनिया में जहाँ चारों ओर समरूपता का हठ पाँव पसार रहा है, ऐसे में ‘उलुआ, बुलुआ और मैं’ भरी दुपहरी में छाँव की तरह है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई यह रचना व्यक्ति के साथ-साथ अपने समय, अंचल और ग्राम्य-संस्कृति की भी कथा कहती है। वैसे तो हर व्यक्ति का जीवन अगर दर्ज हो जाए तो महाकाव्य का विषय है। मुक्तिबोध ने सच ही कहा है कि 'मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है।' इस रचना की चमक इतिहास की धार में बह रहे क़िस्से, शब्द और लोग-बाग हैं जिन्हें लेखक ने शिद्दत के साथ पकड़ने की कोशिश की है। यह रचना आज़ादी के पहले और उसके बाद के कुछ समय के बदलावों का साहित्य रचती है। साहित्य की परम्परा से वाक़िफ़ लोगों को इसमें रेणु, रामवृक्ष बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय जैसे मिट्टी के रचनाकारों की छवि दिखाई पड़ सकती है। साथ ही वैसे इतिहास और संस्कृतिकर्मी जो लोगों के सुख-दु:ख, खान-पान, आचार-व्यवहार, लोकगाथाओं आदि को भी इतिहास-अध्ययन का विषय मानते हैं, उनके लिए भी यह रचना फलदायी साबित होगी। शैली के तौर पर यह कभी आपको आत्मकथा, कभी उपन्यास, कभी कहानी तो कभी ललित निबन्ध का अहसास कराती चलती है।</p> <p>कुल मिलाकर ‘उलुआ, बुलुआ और मैं' अपने समय और समाज के निर्वासित लोगों, शब्दों, गँवई संस्कृति और समय की आपा-धापी में छूट रहे जीवन के विविध राग-रंगों को फिर से साहित्य की दुनिया में पुनर्जीवित करने का एक प्रयास है।</p> <p>—अरुण कमल

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