Jung Andhvishwaso Ki
Author:
Narendra DabholkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
कुशेरा के नेत्रोपचार करनेवाले गुरव बंधु हों, निःसन्तानों को सन्तान प्रदान करानेवाली पार्वती माँ हों, या एक ही प्रयास में व्यसनमुक्त करानेवाले शेषराव महाराज हों, थोड़ा-सा विचार करें, तो समझ में आता है कि लोग असहाय होते हैं। अतः वे दैववादी बनते हैं। इसी से अंधविश्वास का जन्म होता है। समाज जागरूक नहीं है। लोग अविवेकी, व्याकुल हैं, यह बिल्कुल सच है; लेकिन क्या लोगों की इस कमज़ोरी का इस्तेमाल उनकी लूट करने के लिए किया जाए? क्या लोगों की पीड़ा से अपनी झोली भरी जाए?</p>
<p>लोग श्रद्धा रखते हैं, देवाचार माननेवाले हैं, इसका यह मतलब नहीं कि लोग मूर्ख हैं और इसी कारण वे श्रद्धा, देवाचार, नैतिकता, पवित्रता आदि से सम्बन्धित बन्धनों का पालन करते हैं। हम देवताओं की ओर जाते हैं, वह चमत्कार के डर से नहीं बल्कि प्रेमभाव के कारण होता है। लेकिन प्रेम में भय और दहशत का कोई स्थान नहीं है। इस श्रद्धा में जो चीज़ें ग़ैरज़रूरी और अतार्किक हैं, उनका परीक्षण क्यों न किया जाए? कालबाह्य मूल्यों के प्रभावहीन होने से तथा नवविचारों के प्रभावी व्यवहार से लोग परिवर्तन चाहते हैं। हम जब ऐसा कहते हैं कि हिन्दू धर्म की बुनियादी मूल्य-व्यवस्था ही असमानता पर आधारित है, तो वास्तव में यह विधान भूतकाल को सम्बोधित करके किया गया होता है। जन्म से जातीय वरीयता का पुनरुज्जीवन आज कोई नहीं चाहता। प्रत्येक धर्म में मूल नीति तत्त्व बहुतांश रूप में समान हैं। प्रखर नास्तिक भी इसे स्वीकार करेगा। धर्म जब कर्मकांड मात्र रह जाता है, तब उसका विकृतिकरण होता है। क्या चमत्कार धर्मश्रद्धा का हिस्सा है?</p>
<p>स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "जिस शुद्ध हिन्दू धर्म का सम्मान मैं करता हूँ, वह चमत्कार पर आधारित नहीं है। चमत्कार एवं गूढ़ता के पीछे मत पड़ो। चमत्कार सत्य-प्राप्ति के मार्ग में आनेवाला सबसे बड़ा रोड़ा है। चमत्कारों का पागलपन हमें नादान और कमज़ोर बनाता है।"</p>
<p>इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में 'महाराष्ट्र अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति' विगत 24 वर्षों से कार्यरत है। अपने नि:स्वार्थ कार्यकर्ताओं के साथ उसने इस दौरान अनेक बार आन्दोलन किए हैं, अनेक बार अपनी जान जोखिम में डालकर और अपनी जेब से पैसा ख़र्च करके समाज में चल रहे अन्धविश्वासों के व्यापार का विरोध किया है। इस पुस्तक में ऐसे ही कुछ आन्दोलनों की रपट है। इन घटनाओं का विवरण पढ़कर पाठक स्वयं ही समझ सकता है कि अन्धविश्वासों से यह जंग कितनी ख़तरनाक लेकिन कितनी ज़रूरी है।
ISBN: 9789389598476
Pages: 310
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह पुस्तक ‘भारतीय डायस्पोरा : विविध आयाम’ प्रवासन के अर्थ, विकास और प्रभाव पर महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार, ‘आज का डायस्पोरा उन्नीसवीं सदी की अभिशप्त, प्रताड़ित और शोषित मानवता नहीं है। आधुनिक डायस्पोरा उत्तर-औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी काल में राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) के निर्माण और संचालन में निर्णायक भूमिका निभा रहा है। यही कारण है कि आज इस शब्द का प्रयोग विभिन्न देशों के मानव समूहों के विस्थापन, प्रवासन और पुनर्वसन के संसार को रेखांकित करने के लिए किया जाता है।’
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वीरकाव्य–प्रणेताओं को चरित कवि कहा गया है। क्योंकि उनके काव्य का उद्देश्य अपने चरितनायक के जीवन के विभिन्न पक्षों का यशोगान ही है।
सामान्यत: ‘रीतियुग के कवि’ से तात्पर्य रीतिमुक्त एवं रीतिभुक्त कवियों से है, क्योंकि साहित्य की दृष्टि से उन्हें ही आलोच्यकाल का प्रतिनिधि कवि माना गया है।
कवि भावलोक का प्राणी होता है। युग–जीवन उसके सृजन में प्रतिबिम्बित अवश्य होता है, किन्तु उसके चित्र को सम्यक् एवं पूर्णरूप से देखने के लिए काव्येतर स्रोतों से विवेच्य काल की सामाजिक परिस्थितियों का ज्ञान अपेक्षित है। इस दृष्टिकोण से पहले अध्याय में काव्येतर स्रोतों से तत्कालीन समाज की प्रतिमा निर्मित करने का प्रयास किया गया है। दूसरे अध्याय से काव्य–स्रोतों के आधार पर तत्कालीन समाज का अध्ययन आरम्भ होता है जिसमें समाज की सामान्य रचना को लिया गया है। इसमें समाज के भौतिक एवं धार्मिक विभाग, हिन्दुओं की वर्णाश्रम व्यवस्थाएँ और पारिवारिक रचना अन्तर्भुक्त हैं। तीसरे अध्याय में तत्कालीन समाज के राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन को देखने का प्रयत्न किया गया है। चौथे अध्याय में रहन–सहन के अन्तर्गत मानव जीवन की मूल आवश्यकताएँ, असन–वसन–आवास, और मनुष्य के सहज सौन्दर्यबोध से परिचालित शृंगार–प्रसाधन और अलंकरण के उपविभाग हैं। पाँचवें अध्याय में लोकजीवन के उल्लास एवं आह्लाद को वाणी देनेवाले संस्कार–पर्वादि का विवेचन किया गया है। छठे अध्याय में रीतिकालीन काव्य में चित्रित समाज के नारी–सम्बन्धी दृष्टिकोण की विवेचना की गई है। सातवें अध्याय में आलोच्यकाल के उन विश्वासों एवं प्रत्ययों का अध्ययन किया गया है जो हिन्दू जाति को एक अलग व्यक्तित्व और विवेच्य युग को अलग सत्ता प्रदान करते हैं। इसे जीवन–दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है, जिसके अन्तर्गत सम्बन्धित युग की विभिन्न प्रवृत्तियों, धर्म एवं धर्माभास, विश्वासों एवं अज्ञात आधारवाले विश्वासों, कर्मफलवाद, भाग्यवाद व पुनर्जन्म एवं सांस्कृतिक समन्वय आदि हैं।
सात अध्यायों में विभाजित शशिप्रभा प्रसाद की महत्त्वपूर्ण आलोच्य कृति है ‘रीतिकालीन भारतीय समाज’। अध्येताओं, शोध–छात्रों एवं पुस्तकालयों के लिए अत्यन्त उपयोगी पुस्तक।
Jharkhand Ki Adivasi Kala Parampara
- Author Name:
Manoj Kumar Kapardar
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- Description: प्राकृतिक संपदाओं और सौंदर्य से परिपूर्ण झारखंड कला की दृष्टि से एक समृद्ध राज्य है। दशकों पहले जब हजारीबाग के पास इसको के शैलचित्रों की खोज हुई थी, तब दुनिया ने जाना कि हमारे पूर्वज कितने कुशल चितेरे थे । ऐसी अनेक आकृतियों एवं निशानों से पटी पड़ी है झारखंड की धरती अब शोधकर्ता भी प्रकृति की इस अद्भ्रुत रचना का मर्म समझने में लगे हैं। संताल समाज के लोगों द्वारा सदियों से 'जादोपटिया कला' के प्रति खासा रुझान देखा गया है। इनके चित्रों में जीवन का जितना गहरा सार है, उतना ही गहरा रेखाओं का विस्तार है । यह कला संताली समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रही है। झारखंड का जनजातीय समाज इतना हुनरमंद है कि अपनी जरुरत की चीज से लेकर अन्य समाज की जरुरतों को भी पूरा करने में वह सक्षम है। शिल्पकला, चित्रकला और देशी उत्पादों से जरूरत के असंख्य सामान तैयार करने में जनजातीय समाज के कौशल का कोई सानी नहीं है। इनके घरों की दीवारों पर इतनी अद्भ्रुत चित्रकारी होती है कि उसकी मिसाल दुर्लभ है | मिट्टी, गेरू और पत्तों से बने रंण इतने सजीव तरीके से दीवारों पर उभरते हैं कि लगता है, सारा गाँव ही कलाकारों का गाँव है । इनकी कलाकृतियों में सिर्फ हुनर ही नहीं दिखता, बल्कि विभिन्न आकृतियों के माध्यम से समाज को संदेश भी देते हैं कि देखो, हमारा जीवन फूल, पत्ती, पशु-पक्षी और प्रकृति से कितनी गहराई से जुड़ा है।
Bharat Aur Bharatiya Mansikata
- Author Name:
Bhagwan Singh
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- Description: यदि इतिहास का सम्बन्ध सामान्य जन से है तो इतिहासकार उन संस्थाओं, विश्वासों, आग्रहों और विचारों की उपेक्षा नहीं कर सकता जिनसे जनसाधारण की मानसिकता निर्मित होती है। लेकिन आज हम समाज-चिन्तन के एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं जहाँ इतिहास पर ही बात करना खतरनाक होता जा रहा है। एक मनस्वी के रूप में इतिहासकार खत्म हो रहा है। उसका पुनर्जन्म एक योद्धा के रूप में हो रहा है। ‘भारत और भारतीय मानसिकता’ पुस्तक में शामिल निबन्ध इतिहास-लेखन की वास्तविक भूमिका को रेखांकित करते हुए भारतीय समाज की प्राचीनतम अवस्था से लेकर आधुनिक काल तक के कुछ प्रश्नों को उठाते हैं। मुख्य रूप में जो एक बात इन आलेखों में उभरकर आती है वह है एक राष्ट्र के रूप में भारतीय चेतना के विकास का इतिहास और यह प्रश्न कि भारत के सन्दर्भ में ‘नेशन’ की यूरोपीय उन्मादी अवधारणा का कोई अर्थ है या नहीं। ‘नेशन’ की मौजूदा अवधारणा औद्योगिक क्रान्ति के बाद तेजी से विकास करने वाले देशों के व्यवसायियों की जरूरत थी, फिर ऐसा हुआ कि हर देश उसे एक आदर्श मानने लगा। पुस्तक में शामिल ‘आदिम भारत में भाषाओं का अन्तर्मिलन’ भारतीय बोलियों की शब्दावली के अध्ययन की जरूरत को रेखांकित करता है जिससे दसियों हजार साल पहले के विषय में अहम जानकारियाँ मिल सकती हैं जब अनेक भाषाभाषी समूह इस महाद्वीप में विचरण कर रहे थे। बहुलता में एकात्मता के ऐसे ही सूत्रों की तलाश करती यह पुस्तक आज हर उस पाठक की समझ को विस्तार देगी, जो इस देश की सहिष्णु चेतना को समझना-जानना चाहता है!
Vaikalpik Oorja Ka Sach
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- Description: सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व स्तर पर भारत के नेतृत्व को लेकर जो प्रशंसा की जाती है और हम ख़ुद भी जो सारे विश्व को पीछे छोड़ देने का दम भरते हैं, वह पूरी तरह से दिवास्वप्न है। वास्तविकता यह है कि हम इन दोनों ही क्षेत्रों में सिर्फ़ उपभोक्ता हैं, उत्पादक नहीं। हम अपने यहाँ इन ऊर्जाओं के लिए बस मार्केट बना रहे हैं। यही सच्चाई है। पुस्तक देश-विदेश के तमाम वैकल्पिक ऊर्जा सम्बन्धी आँकड़ों का तार्किक विश्लेषण कर, तकनीकी विशेषज्ञों के समय-समय पर व्यक्त मतों का निहितार्थ निकालते हुए, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे विकसित देशों के विशेषज्ञों, सरकारी अधिकारियों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं वर्ल्ड बैंक आदि से प्राप्त जानकारियों एवं अनुभवों के निष्कर्ष के आधार पर राष्ट्रहित में लिखी गई है। इस पुस्तक का उद्देश्य है सरकार और जनसाधारण तक यह सन्देश पहुँचाना कि हमें अपने ढंग से वैकल्पिक ऊर्जा के उत्पादन और संरक्षण का प्रयास करना चाहिए।
Vivek Ki Aawaj: Andhvishwas Unmulan Par Dus Bhashan
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- Description: तर्कवाद और अन्धविश्वास के उन्मूलन के लिए आन्दोलन की शुरुआत अन्धविश्वास के उन्मूलन से हुई थी। हालाँकि यह आन्दोलन अन्धविश्वास के उन्मूलन से शास्त्रीय विचार, शास्त्रीय विचार से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्मशास्त्र, धर्मशास्त्र से धर्मनिरपेक्षता, धर्मनिरपेक्षता से तर्कवाद और मानवतावाद की ओर बढ़ना चाहता है तो स्वाभाविक रूप से, ‘तर्कवाद’ का मूल्य अन्धविश्वास विरोधी आन्दोलन के व्यापक दर्शन का हिस्सा है। विवेकवाद का दर्शन क्या है? विवेकवाद सुखी जीवन का दर्शन है। लेकिन साथ ही यह खुशी भौतिक, बौद्धिक, भावनात्मक, नैतिक और रचनात्मक है। दूसरी ओर, यह खुशी पूरी मानव जाति, सभी जानवरों और प्रकृति के अनुकूल है। दूसरी ओर, जब यह सुख अस्तित्व में आता है, तो साध्य-साधन की शुचिता का पालन किया जाता है। अतः इतने सन्तुलित और व्यापक अर्थ में ‘विवेकवाद’ सुखी जीवन का दर्शन है।
Balatkar Aur Kanoon
- Author Name:
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Political Observer
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Varun Sakhaji
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- Description: द पॉलिटिकल ऑब्जर्वर में 1998 से लेकर 2022 तक के विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक बड़े घटनाक्रम पर समकाल में लिखे गए आलेखों का विराट संकलन है। इसमें छत्तीसगढ़ की सियासत से लेकर देश की बदलती, ढहरती राजनीतिक तस्वीर को सिनेमा की तरह फ्रेम दर फ्रेम पेश किया गया है। रोमांचक राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं का ऐसा कोलाज है जहां आप महसूस करेंग जैसे टाइम मशीन में बैठकर अतीत के वर्तमान में जा पहुंचे हैं। द पॉलिटिकिल ऑब्जर्वर भारत की सियासत की गवाह ही नहीं बल्कि यहां हो रहे हर घटना पर मुखरता से दखल भी है। लगभग 100 घटनाक्रम और उन पर लेखक व वरिष्ठ पत्रकार बरुण सखाजी की पैनी कलम सियासत को अपना रवैया बदलने को मजबूर कर देती है। तोहमतों और अविश्वास के इस दौर में भी मीडिया में ऐसे पत्रकार और विचारशील राजनीैतिक विश्लेषक हैं, यह तसल्ली की बात है। इस पुस्तक की भूमिका देश के प्रख्यात साहित्यकार व वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध ने लिखी है। लेखक व पत्रकार बरुण सखाजी छत्तीसगढ़ के स्थापित पत्रकार व राजनीतिक चिंतन, विश्लेषण और परामर्श के क्षेत्र में प्रमुखता से सक्रिय हैं।
Hamari Chunautiyan : Bhartiya Samaj Ke Samaksh Chunautiyan-1
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Badri Narayan
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- Description: यह पुस्तक भारतीय समाज की वर्तमान चुनौतियों पर केन्द्रित है। इन चुनौतियों की जड़ें तो अतीत में हैं परन्तु इनका प्रभाव हमारे भविष्य तक जाता है। इन समकालीन चुनौतियों का प्रसार लोकतंत्र, परम्परा, विस्मरण एवं स्मृति-निर्माण तक फैला है। ये विमर्शपरक व्याख्यान गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद द्वारा आयोजित लोकप्रिय शृंखला ‘भारतीय समाज के समक्ष चुनौतियाँ’ के तहत संस्थान में दिए गए हैं। यह व्याख्यान-शृंखला अनवरत चल रही है। इस व्याख्यान-शृंखला का पहला खंड आज की चुनौतियों पर तो विमर्श करता ही है, साथ ही इन चुनौतियों के भीतर से ही समाधान का छायाचित्र भी निर्मित करता है।
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