Sahitya Ka Uttar Samajshastra
Author:
Sudhish PachauriPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Unavailable
गोष्ठियों के रूप अभी भी शादी-ब्याह की तरह हैं। एक दूल्हा, बाक़ी बाराती। गोष्ठी के मंच जातिभेद कराते हैं। ऊपर महान बैठेंगे। नीचे दासानुदास। एकदम विनय पत्रिका वाली हाइरार्की। प्रगतिशील, रूपवादी सब ये ही करते हैं।</p>
<p>बहस न सही, तू-तू, मैं-मैं ही सही। कुछ तो है। बुरा क्या है? नए पूँजीवाद में ये तो होना ही है।</p>
<p>मशाल टार्च बन चुकी है। राजनेता के पास जो ब्रांड टार्च है, वही साहित्यकार के पास है। ‘साहित्य और राजनीति’ की चिर बहस अब मर चुकी है। यही अच्छा है।</p>
<p>पढ़ें तो जानें, क्योंकि ये ‘अन्दर की बात है’। साहित्य का असल समाजशास्त्र है। यह ‘अन्दर की बात’ बहुत जटिल है रे!</p>
<p>और हम सब जो ‘बचे-खुचे’ हैं, तरह-तरह की ‘पूरणीय क्षतियाँ’ हैं जो हर गोष्ठी, सेमिनार, शोकसभा में मौजूद रहती हैं। होंगी कोई हज़ार-पाँच सौ। हम सब अपूरणीय ‘क्षति’ करके ही जाएँगे। बच्चो सावधान!
ISBN: 9788183610476
Pages: 195
Avg Reading Time: 7 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: नशे का इतिहास चाहे आदमी के इतिहास से कुछ कम पुराना हो पर इसे सुव्यवस्थित आर्थिक स्रोत का रूप औपनिवेशिक काल में मिला। इतिहास में अपने धर्म और समाज के लिए मरने वालों की अपेक्षा बहुत अधिक अपने पीने की आदत और अफीम से मरे हैं। एल्डस हक्सले ने इस उत्कंठा को मुक्ति या मृत्यु के लिए नहीं, दासता को अंगीकार कर मृत्यु की ओर बढ़ना बताया है। नशे के इस तंत्र ने औपनिवेशिक व्यवस्था को अर्थाधार दिया और नशे से अपरिचित समाजों में भी इसका रोपण किया। औपनिवेशिक आबकारी के जन्म से पूर्व उत्तराखंड में शराबखोरी और इससे उत्पन्न सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकृतियों व बिखराव की समस्या नहीं जन्मी थीं। जिन स्थानीय लघु समाजों में शराब का प्रचलन था उसे भोजन पद्धति का सदियों से विकसित रूप माना जा सकता है, पर जिन बड़े सामाजिक हिस्सों में इसका फैलाव पिछली एक सदी में हुआ, वह औपनिवेशिक विकास से सम्बद्ध है। औपनिवेशिक सत्ता के विस्तार के साथ नशीले पदार्थों का असाधारण प्रचलन हुआ और औपनिवेशिक सत्ता के अस्त होने के बाद इसे देशी त्वरा मिली जिसने पहाड़ी सामाजिक, आर्थिक ढाँचे को ही विकृत और ध्वस्त कर दिया। वन, खनन, बड़े बाँधों, विकृत पर्यटन की तरह नशा सिर्फ एक विषय नहीं, पहाड़ी जनजीवन को नष्ट करने का एक नियोजित षड्यंत्र है। नशे के विरुद्ध, आज़ादी से पूर्व और बाद में उठे प्रतिरोधों की पृष्ठभूमि का पहली बार इतनी गहनता और तत्परता से अध्ययन किया गया है ताकि आज की समस्या की जड़ों तक जाया जा सके। यह अध्ययन न सिर्फ अतीत के बारे में हमारी आँखें खोलता है बल्कि वह आज के नशा-परिदृश्य समझने की पृष्ठभूमि भी प्रस्तुत करता है।
Vikas O Arthatantra
- Author Name:
Narendra Jha
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- Description: Social Economic
Sochiye To Sahi
- Author Name:
Narendra Dabholkar
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Description:
साने गुरुजी द्वारा ‘साधना’ पत्रिका की शुरुआत 15 अगस्त, 1948 को की गई थी। इसी पत्रिका की स्वर्ण जयंती (1 मई,1998) पर डॉ. नरेंद्र दाभोलकर और जयदेव डोले को इसके संपादक पद की जिम्मेदारी सौंपी गई। छह महीने बाद जयदेव डोले ने संपादक पद छोड़ दिया। इसके बाद 15 साल (20 अगस्त, 2013 तक) डॉ. दाभोलकर ने संपादक पद की जिम्मेदारी बखूबी निभाई। लगभग डेढ़ दशक के इस काल में उन्होंने दो सौ से ज्यादा संपादकीय लेख लिखे। उन्हीं लेखों में से चुनिंदा 60 लेखों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है जो मराठी में ‘समता संगर’ नाम से छपी थी।
जिस समय डॉ. दाभोलकर ‘साधना’ के संपादक बने, उस समय उनकी पहचान राज्य स्तर पर ‘अंधविश्वास निर्मूलन समिति’ के आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में थी। समूचा महाराष्ट्र उनसे परिचित था। अंधविश्वास उन्मूलन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जातिवाद आदि विषयों पर उनका यह लेखन अत्यंत प्रभावशाली रहा। इन विषयों पर लिखी उनकी किताबें भी बड़ी लोकप्रिय हुई थीं। यहाँ संकलित उनके ये संपादकीय स्पष्ट कथन, सीधे सवाल-जवाब और अपने व्यंग्य के लिए बहुत सराहे जाते हैं। लेकिन उनके अन्य लेखन की तरह इन आलेखों में भी जोर सामाजिक परिवर्तन पर ही है।
Andhavishwas Unmoolan : Vol. 2 : Aachar
- Author Name:
Narendra Dabholkar
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Description:
अंधविश्वास उन्मूलन और डॉ. नरेंद्र दाभोलकर एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। निरन्तर 25 वर्षों की मेहनत का फल है यह। अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य महाराष्ट्र में विचार, उच्चार, आचार, संघर्ष, सिद्धान्त जैसे पंचसूत्र से होता आ रहा है। भारतवर्ष में ऐसा कार्य कम ही नज़र आता है।
'अंधविश्वास उन्मूलन : आचार' पुस्तक में धर्म के नाम पर कर्मकांड और पाखंडों के ख़िलाफ़ आन्दोलन, जन-जागृति कार्यक्रम और भंडाफोड़ जैसे प्रयासों का ब्योरा है।
पुस्तक में भूत से साक्षात्कार कराने का पर्दाफाश, ओझाओं की पोल खोलती घटनाएँ, मंदिर में जाग्रत देवता और गणेश देवता के दूध पीने के चमत्कार के विवरण पठनीय तो हैं ही, उनसे देखने, सोचने और समझने की पुख्ता ज़मीन भी उजागर होती है। निस्सन्देह अपने विषयों के नवीन विश्लेषण से यह पुस्तक पाठकों में अहम भूमिका निभाने जैसी है।
अंधविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की ओर ले जानेवाली यह पुस्तक परम्परा का तिमिर-भेद भी है और विज्ञान का लक्ष्य भी।
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