Andhavishwas Unmoolan : Vol. 3 : Siddhant
Author:
Narendra DabholkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
अंधविश्वास उन्मूलन और डॉ. नरेंद्र दाभोलकर एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। निरन्तर 25 वर्षों की मेहनत का फल है यह। अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य महाराष्ट्र में विचार, उच्चार, आचार, संघर्ष, सिद्धान्त जैसे पंचसूत्र से होता आ रहा है। भारतवर्ष में ऐसा कार्य कम ही नज़र आता है।</p>
<p>'अंधविश्वास उन्मूलन : सिद्धांत' पुस्तक में गहन विचार-मंथन है। ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, धर्मनिपेक्षता जैसे विषयों पर समाज-सुधारकों और विवेकवादी चिन्तकों ने समय-समय पर जो विचार व्यक्त किए, उनके मतभेदों को आन्दोलन के अनुभवों के आधार पर और व्यक्तिगत चिन्तन द्वारा परिभाषित किया गया है। ईश्वर के अस्तित्व पर विचार करते हुए लेखक का मुख्य उद्देश्य है कि—'व्यक्ति को विवेकशील बनाकर ही विवेकवादी समाज-निर्माण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।'</p>
<p>अंधविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की ओर ले जानेवाली यह पुस्तक परम्परा का तिमिर-भेद भी है और विज्ञान का लक्ष्य भी।
ISBN: 9788126727940
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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यह पुस्तक देश में चलनेवाली सामाजिक मारकाट, ख़ासकर जातीय दंगों और आदिवासी समूहों के आन्दोलनों के कारणों को समझने की कोशिश में शुरू हुई। इन समस्याओं को अलग–अलग ढंग से देखने की जगह पूरी दुनिया में उभरे संकीर्णतावाद और सामाजिक समूहों के टकराव की आम प्रवृत्ति के सन्दर्भ में देखने की कोशिश की गई है। इस परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक मुख्यत: जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और उसकी वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करती है।
इस पुस्तक का सबसे बड़ा हिस्सा जाति व्यवस्था की वास्तविकता की जाँच–पड़ताल वाला है। यह महसूस किया गया है कि जाति के सन्दर्भ में जिन बातों को वास्तविक मान लिया जाता है, उनका काफ़ी बड़ा हिस्सा काल्पनिक ही है और इससे ग़लत धारणा बनती है, ग़लत निष्कर्ष तक पहुँचा जाता है। ‘जाति पूर्वाग्रह और पराक्रम’ शीर्षकवाला अध्ययन इस मामले में कुछ बातों को बहुत खुले ढंग से बताता है। और एक अर्थ में यही इस अध्ययन का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिससे अन्य निष्कर्ष भी निकाले जाने चाहिए।
इसमें जाति व्यवस्था से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की भी परीक्षा की गई है। होमो–हायरार्किकस वाले सिद्धान्त की कुछ ज़्यादा विस्तार से इसमें चर्चा की गई है, क्योंकि इससे इस विनाशकारी दृष्टि को बल मिल सकता है कि जाति व्यवस्था भारतीय मानस में व्याप्त स्वाभाविक भेदभाव का ही एक प्रतिफल है।
यह पुस्तक प्रमुख समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के ऊपर भी गम्भीर सवाल खड़े करती है जो सामाजिक यथार्थ के तार्किक और कार्यकारी पहलुओं पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देते हैं। विचारोत्तेजक सामग्री से भरपूर यह पुस्तक निश्चय ही पाठकों को पसन्द आएगी।
Sahitya Ka Uttar Samajshastra
- Author Name:
Sudhish Pachauri
- Book Type:

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Description:
गोष्ठियों के रूप अभी भी शादी-ब्याह की तरह हैं। एक दूल्हा, बाक़ी बाराती। गोष्ठी के मंच जातिभेद कराते हैं। ऊपर महान बैठेंगे। नीचे दासानुदास। एकदम विनय पत्रिका वाली हाइरार्की। प्रगतिशील, रूपवादी सब ये ही करते हैं।
बहस न सही, तू-तू, मैं-मैं ही सही। कुछ तो है। बुरा क्या है? नए पूँजीवाद में ये तो होना ही है।
मशाल टार्च बन चुकी है। राजनेता के पास जो ब्रांड टार्च है, वही साहित्यकार के पास है। ‘साहित्य और राजनीति’ की चिर बहस अब मर चुकी है। यही अच्छा है।
पढ़ें तो जानें, क्योंकि ये ‘अन्दर की बात है’। साहित्य का असल समाजशास्त्र है। यह ‘अन्दर की बात’ बहुत जटिल है रे!
और हम सब जो ‘बचे-खुचे’ हैं, तरह-तरह की ‘पूरणीय क्षतियाँ’ हैं जो हर गोष्ठी, सेमिनार, शोकसभा में मौजूद रहती हैं। होंगी कोई हज़ार-पाँच सौ। हम सब अपूरणीय ‘क्षति’ करके ही जाएँगे। बच्चो सावधान!
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