
Aur... Sharad Joshi
Author:
Sharad JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
शरद जोशी जिस समय लिख रहे थे, भारतीय राजनीति समाजवाद की आदर्श ऊँचाइयों और व्यावहारिक राजनीति की स्वार्थी आत्म-प्रेरणाओं के बीच कोई ऐसा रास्ता तलाशने में लगी थी जिससे वह जनता की हितैषी दिखती हुई व्यवस्था और तंत्र को अपने दलगत और व्यक्तिगत हितों के लिए बिना किसी कटघरे में आए इस्तेमाल करती रह सके। लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त आज़ादी बहैसियत एक नैतिक प्रेरणा अपनी चमक खोने लगी थी। शासन, प्रशासन और नौकरशाही लोभ और लाभ की अपनी फौरी और निजी ज़रूरतों के सामने वृहत्तर समाज और देश की अवहेलना करने का साहस जुटाने लगी थी। सड़कें उधड़ने लगी थीं, और लोगों के घरों के सामने महँगी कारों को खड़ा करने के लिए गलियाँ घेरी जाने लगी थीं।</p>
<p>शरद जोशी ने भारतीय व्यक्ति के मूल सामाजिक चरित्र के विराट को परे सरकाकर आधुनिक व्यावहारिकता के बहाने अपनी निम्नतर कुंठाओं को पालने-पोसने वाले भारतीय व्यक्ति के उद्भव की आहत काफ़ी पहले सुन ली थी। उन्होंने देख लिया था जीप पर सवार होकर खेतों में जो नई इल्लियाँ पहुँचनेवाली हैं, वे सिर्फ़ फ़सलों को नहीं समूची राष्ट्र-भूमि को खोखला करनेवाली हैं।</p>
<p>आज जब हम राजनीतिक और सामाजिक नैतिकता की अपनी बंजर भूमि को विकास नाम के एक खोखले बाँस पर टाँगे एक भूमंडलीकृत संसार के बीचोबीच खड़े हैं, हमें इस पुस्तक में अंकित उन चेतावनियों को एक बार फिर से सुनना चाहिए जो शरद जोशी ने अपनी व्यंग्योक्तियों में व्यक्त की थीं।
ISBN: 9789387462540
Pages: 240
Avg Reading Time: 8 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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अनूप मणि त्रिपाठी की व्यंग्य रचनाओं को पढ़ने के पहले मुझे लगता था कि हर व्यंग्य का स्वाद एक जैसा होता है। उनके इस संग्रह को आद्योपांत पढ़ने के बाद समझ में आया कि खुद उनकी हर रचना का स्वाद अलग है। राजनीति के विद्रूप, निष्ठुरता और नंगई को जिस तरह गले से पकड़कर वे अनावृत करते और उस पर चोट करते हैं वह अद्वितीय है। उनका व्यंग्य औरों से इस मामले में अलग और मूल्यवान है कि वह पाठक की समझ पर लानत ही नहीं भेजता, उसे समझदार भी बनाता है। जनता का ध्यान कैसे असली और ज्वलन्त मुद्दों से भटकाकर नकली और काल्पनिक मुद्दों में उलझाया जाता है इसके एक से एक नमूने आपको कदम कदम पर मिलते हैं। 'बहती लाशों की कहानियाँ' पढ़कर लगता है व्यंग्य नहीं पढ़ रहे, कोई हॉरर फिल्म देख रहे हैं। भाषा की विदग्धता का उदाहरण देने से इसलिए बच रहा हूँ कि आख़िर कितने उदाहरण देंगे। फिर भी बानगी के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ। शीर्षक है—‘साँपों की सभा’।
‘वह धारा प्रवाह बोलता रहा, ‘बस हमें सपने और भय दोनों साथ-साथ दिखाने होंगे! अच्छे-अच्छे शब्दों के चयन पर ध्यान केन्द्रित करना होगा!’ उसने चूहे की डेड बॉडी पर एक नजर मारी। फिर बोला, ‘देखिए! कैसे हमारे रंग में यह रँगने के लिए तैयार हो गया!’ वह आगे बोला, ‘जहर भरिए, खूब भरिए, मगर उपदेश की शक्ल में...आप देखेंगे कि उपदेश स्वतः उन्माद में बदलता जाएगा...बस फैलकर हर जगह हमें अपना काम लगातार करते रहना है। क्या समझे!’ एक बूढ़ा साँप जोश में बोला, ‘समझ गए! हमें लोकतंत्र को लोकतांत्रिक ढंग से खत्म करना है...’
दरअसल इन रचनाओं की शैलीगत व्याप्ति इतनी अधिक है कि इन्हें केवल व्यंग्य के खाँचे में रखना इनकी मारक क्षमता को कम करके आँकना होगा। यह कोई और विधा है जिसकी तिलमिलाहट अन्दर तक कँपकँपी पैदा कर देती है और जिसे उपयुक्त नाम दिया जाना अभी बाकी है। हाँ, जब तक इसका उपयुक्त नामकरण न हो जाए तब तक व्यंग्य से काम चलाना पड़ेगा। इन रचनाओं से गुजरने के बाद मेरा मानना है कि अनूप मणि त्रिपाठी आज की मारक व्यंग्य विधा के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर हैं।
—शिवमूर्ति
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