Chhalkat Jaye Gyan Ghat
Author:
K. D. SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
जब ढोल की बात चल ही पड़ी है, तो एक और खास बात है जिस पर आपको गौर करना चाहिए। ... और वह यह है कि, जो ढोल जितनी गहन, गम्भीर आवाज करता है, वह अन्दर से उतना ही खोखला होता है। ढोल की आवाज, उसके आकार-प्रकार पर कम, उसके खोखलेपन पर ज्यादा निर्भर करती है।
ढोल की एक पोल भी होती है, जो कभी-कभी खुल जाती है। परम्परागत ढोल की तो पोल खुलते ही वह बजना बन्द हो जाता है और घर के किसी कोने पर सन्यास लेकर पड़ा रहता है, जब तक कि उसे उसकी पोल के साथ पुनः कस न दिया जाय। लेकिन आधुनिक पीढ़ी के ढोल तो, पोल खुलने के बाद भी उतनी ही गम्भीर रिदम के साथ पूरी बेशर्मी से बजते रहते हैं... और मजे की बात यह है कि लोग उसे सुनते भी रहते हैं... पूरी तन्मयता के साथ।
बजनेवाले ढोल, अगर आपके नजदीक बज रहे हों, तो वे आपको कर्कश लग सकते हैं... लेकिन ज्यों-ज्यों ढोल और आपके बीच की दूरी बढ़ती जाती है, उनकी आवाज अपेक्षाकृत मधुर होती जाती है, और विश्वसनीय भी।
ISBN: 9789393603470
Pages: 152
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हरिशंकर परसाई के लिए व्यंग्य साध्य नहीं, साधन था। यही बात उनको साधारण व्यंग्यकारों से अलग करती है। पाठक को हँसाना, उसका मनोरंजन करना उनका मक़सद नहीं था। उनका मक़सद उसे बदलना था। और यह काम समाज-सत्य पर प्रामाणिक पकड़, सच्ची सहानुभूति और स्पष्ट विश्व-दृष्टि के बिना सम्भव नहीं हो सकता। ख़ास तौर पर अगर आपका माध्यम व्यंग्य जैसी विधा हो। हरिशंकर परसाई के यहाँ ये सब ख़ूबियाँ मिलती हैं। उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता और वैचारिक स्पष्टता उनको व्यंग्य-साहित्य का नहीं विचार-साहित्य का पुरोधा बनाती है।
तुलसीदास चन्दन घिसैं के आलेखों का केन्द्रीय स्वर मुख्यत: सत्ता और संस्कृति के सम्बन्ध हैं। इसमें हिन्दी साहित्य का समाज और सत्ता प्रतिष्ठानों से उसके सम्बन्धों के समीकरण बार-बार सामने आते हैं। पाक्षिक ‘सारिका’ में 84-85 के दौरान लिखे गए इन निबन्धों में परसाई जी ने उस दुर्लभ लेखकीय साहस का परिचय दिया है, जो न अपने समकालीनों को नाराज़ करने से हिचकता है और न अपने पूर्वजों से ठिठोली करने से जिसे कोई चीमड़ नैतिकता रोकती है।
गौरतलब यह कि इन आलेखों को पढ़ते हुए हमें बिलकुल यह नहीं लगता कि इन्हें आज से कोई तीन दशक पहले लिखा गया था। हम आज भी वैसे ही हैं और आज भी हमें एक परसाई की ज़रूरत है जो चुटकियों से ही सही पर हमारी खाल को मोटा होने से रोकता रहे।
Dulari Chachi
- Author Name:
Chandrakishore Jaiswal
- Book Type:

- Description: ‘दुलारी चाची’ रोज-रोज बदल रहे भारतीय ग्रामीण समाज का आख्यान है। दिलचस्प यह है कि परिवर्तन की यह कथा उन तमाम जड़ताओं को अनावृत करती चलती है जो इस समाज की प्रगति की राह में सदियों से रोड़ा बनी हुई हैं। जाति के आधार पर ऊँच-नीच का वर्चस्ववादी विभाजन; धर्म, संस्कृति और परम्परा के नाम पर के नाम पर कुरीतियों का महिमामंडन, स्त्रियों की परवशता और उपेक्षा ऐसे ही रोड़े हैं जिनको लेखक ने खासे व्यंग्यात्मक अन्दाज में वर्णित किया है। वह दिखलाता है कि हमारे समाज की कथित महानताओं की नींव इन्हीं रोड़ों-पत्थरों पर टिकी हुई है, वास्तविक प्रगति के लिए उन्हें जल्द से जल्द उखाड़ फेंकना आवश्यक है। यह उपन्यास उस सत्ता-संरचना को करीने से उजागर करता है जिसमें उच्चासन पर बैठी जमात के वर्चस्व के पारम्परिक हथियारों की धार, बदल रहे वक्त के दबाव में, भोथरी होती जा रही है जबकि हमेशा से दबाए गए लोग अब मुखर हो रहे हैं। विशेष यह कि इस बदलाव की वाहक हैं वे स्त्रियाँ जो अब तक अपने मायके के गाँव और पति-पुत्र के नाम से ही अस्तित्व पाती रही हैं, जिन्हें ताउम्र उनके नाम से पुकारा तक नहीं गया। यह चन्द्रकिशोर जायसवाल की लेखनी का कौशल है कि इस उपन्यास में यथार्थ और स्वप्न एक-दूसरे से बिल्कुल घुलमिल गए हैं। यथार्थ जो असहज करता है, बेचैन करता है और स्वप्न जो आश्वस्त करता है, प्रेरित करता है। वस्तुतः ‘दुलारी चाची’ केवल वर्तमान का अंकन नहीं करता बल्कि उन रास्तों को भी रेखांकित करता चलता है जो हमारे समाज को इच्छित भविष्य तक ले जाने वाला है। एक अत्यन्त पठनीय और संग्रहणीय कृति।
To Angrej Kya Bure The
- Author Name:
Ravindra Badgaiya
- Book Type:

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Description:
व्यंग्य आधुनिक साहित्य का अचूक अस्त्र है। विसंगतियों, विडम्बनाओं और पाखंड आदि पर प्रहार करते समय इसका उपयोग अत्यन्त रोचक अभिव्यक्तियों को जन्म देता है। ‘तो अंग्रेज़ क्या बुरे थे’ व्यंग्य-मिश्रित ललित गद्य का दिलचस्प उदाहरण है। इस पुस्तक में विभिन्न विषयों, मुद्दों और प्रसंगों पर तेज़-तर्रार टिप्पणियाँ हैं।
लेखक रविन्द्र बड़गैयाँ की दृष्टि उन बिन्दुओं पर टिकी है जिन्हें प्रायः हम सब महसूस करते हैं। रविन्द्र सामान्य अनुभवों के बीच ऐसे अन्तराल खोज लेते हैं जहाँ से कटाक्ष झाँकते हैं, ठहाके झिलमिलाते हैं और बेचैन कर देनेवाली व्यंजनाएँ प्रकाशित होती हैं।
इस पुस्तक में अनेक ऐसे वाक्य हैं जो व्यवस्था की विचित्र अवस्था का विश्लेषण करते हैं। जैसे ‘...सेवक को राजा बनाना आसान था पर राजा को वापस सेवक बनाना नामुमकिन।’ ऐसे कथनों के मूल में है सामाजिक मनोविज्ञान का सूक्ष्म ज्ञान। लेखक इसमें पारंगत लगता है। समग्रतः यह पुस्तक पाठक को मुस्कुराते हुए कुछ सोचने के लिए विवश करती है।
Kuchh Jamin Par Kuchh Hava Mein
- Author Name:
Shrilal Shukla
- Book Type:

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Description:
हिन्दी व्यंग्य-विधा को जिन रचनाकारों ने सार्थकता सौंपी है, श्रीलाल शुक्ल उनकी पहली पंक्ति में गण्य हैं। हिन्दी जगत में उन्हें यह सम्मान ‘राग दरबारी’ और ‘पहला पड़ाव’ जैसे विशिष्ट उपन्यासों के कारण तो प्राप्त है ही, अपने व्यंग्यात्मक निबन्धों के लिए भी है। ‘यहाँ से वहाँ’, ‘अंगद का पाँव’ और ‘उमराव नगर में कुछ दिन’ उनकी पूर्व प्रकाशित व्यंग्य-कृतियाँ हैं और इस क्रम में यह उनकी एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति है।
इन निबन्धों में श्रीलाल शुक्ल की रचना-दृष्टि विभिन्न वस्तु-सत्यों को उकेरती दिखाई देती है। इनमें से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित निबन्धों के लिए ‘ज़मीन पर’ और रेडियो तथा दूरदर्शन से प्रसारित निबन्धों के लिए ‘हवा में’ कहकर भी उन्होंने जिस व्यंग्यार्थ की व्यंजना की है, उसकी ज़द में सर्वप्रथम वे स्वयं भी आ खड़े हुए हैं। इसमें उनके व्यंग्य की ईमानदारी भी है और अन्दाज़ भी। सामाजिक विसंगतियों, विडम्बनाओं और समकालीन जीवन की विकृतियों की बेलाग शल्य-चिकित्सा में उनका गहरा विश्वास है।
साहित्य, कला, संस्कृति, धर्म, इतिहास और राजनीति—किसी की भी रुग्णता उनके सोद्देश्य व्यंग्योपचार का विषय हो सकती है। इसके अतिरिक्त यह संग्रह कुछ वरिष्ठ रचनाकारों को उनकी समग्र सृजनशीलता के सन्दर्भ में समझने का भी अवसर जुटाता है। कहना न होगा कि श्रीलाल शुक्ल की यह व्यंग्य कृति हिन्दी व्यंग्य को कुछ और समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
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