Fuziyama
Author:
Bhisham SahniPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
फ़ूज़ीयामा रूसी लेखक चिंगेज़ आइतमातोव तथा कलताई मोहम्मेजानोव की रोचक नाट्य-कृति है।<br />अनुवादक के शब्दों में "चिंगेज़ आइतमातोव मुख्यतः एक कथाकार के रूप में ही जाने जाते थे। इतना ही नहीं, 1960 से ही वह एक नई विधा अपना रहे थे–वह अपनी कृतियों में मिथकों और गाथाओं का प्रयोग करने लगे थे। यह, समाजवादी यथार्थवाद की सपाट सीधी लीक से हटकर नया रुख अपनाने का प्रयास था; साथ ही साथ अपने सांस्कृतिक विरसे के प्रति पाई जाने वाली दृष्टि पर पुनर्विचार करने का प्रयास भी। इतना ही नहीं, ब्रेजनेव के शासनकाल में सेंसर की कैंची से बचने के लिए, सांकेतिक प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग बुद्धिजीवियों के लिए नितांत आवश्यक होता जा रहा था। जमाना बदल गया था, ख्रुश्चेव-शासन का वह छोटा-सा कालखंड, जब लिखने-बोलने की कुछ आजादी मिलने लगी थी, अब खत्म हो चुका था। फिर से दमन का दौर आ गया था और मतभेद रखनेवालों को जेलखानों और पागलखानों में ठूँसा जाने लगा था...‘‘फ़ूज़ीयामा उन समस्याओं से साक्षात् करता है, जिनका संबंध विशेष रूप से सोवियत इतिहास से है; साथ ही वह ऐसे सवाल भी उठाता है जो विश्वव्यापी स्तर पर मानव स्वभाव से जुड़े हैं–चाहे वह बुद्धिजीवियों की विकट स्थिति रही हो, या मनुष्य के अंतःकरण से सम्बद्ध प्रश्न।’’
ISBN: 9788171192861
Pages: 95
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘लहरों के राजहंस’ में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शान्ति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक सम्बन्धों का अन्तर्विरोध है। जीवन के प्रेम और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म-भावनाओं से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है। सुन्दरी के रूपपाश में बँधे हुए अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मतवाले नन्द की यही स्थिति होनी थी कि नाटक का अन्त होते-होते उसके हाथों में भिक्षापात्र होता और धर्म-दीक्षा में उसके केश काट दिए जाते।
‘लहरों के राजहंस’ के कथानक को आधुनिक जीवन के भावबोध का जो संवेदन दिया गया है, वह इस ऐतिहासिक कथानक को रचनात्मक स्तर पर महत्त्वपूर्ण बनाता है। वास्तव में, ऐतिहासिक कथानकों के आधार पर श्रेष्ठ और सशक्त नाटकों की रचना तभी हो सकती है, जब नाटककार ऐतिहासिक पात्रों और कथा-स्थितियों को ‘अनैतिहासिक’ और ‘युगीन’ बना दे तथा कथा के अन्तर्द्वन्द्व को आधुनिक
अर्थ-व्यंजना प्रदान कर दे।
सभी देशों के नाटक-साहित्य के इतिहास में विभिन्न युगों में जब भी श्रेष्ठ ऐतिहासिक नाटकों की रचना हुई है, तब नाटककारों ने प्राचीन कथानकों को नई दृष्टि से देखा है और उनको नई अर्थ-व्यंजनाएँ दी हैं। उसी परम्परा में मोहन राकेश का यह नाटक भी है जो अध्ययन-कक्षों तथा रंगशालाओं में पाठकों और दर्शकों, दोनों को रस देता है।
Ek Kanth Vishpai
- Author Name:
Dushyant Kumar
- Book Type:

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शिव-सती प्रसंग को आधार बनाकर लिखी गई इस काव्य-नाटिका में दुष्यन्त कुमार ने बड़ी बेबाकी से कई ऐसे प्रसंगों को उठाया है जो हमारे समय में प्रासंगिक हैं। देवताओं में शिव ऐसे मिथक हैं जो औरों से बिलकुल अलग आभावाले हैं। इस शिव की ख़ासियत यही है कि अगर इनका तीसरा नेत्र खुल गया तो फिर दुनिया को ख़ाक होते देर नहीं लगेगी। सभी प्रार्थना करते हैं कि यह नेत्र यूँ ही बन्द रहे। क्या यह शिव उस आम आदमी की शक्ति का पर्याय नहीं जिसके जगने पर सत्ताधीशों को ज़मींदो़ज़ होते देर नहीं लगती। ये सत्ताधीश अपनी भलाई इसी में समझते हैं कि शिव अपना नेत्र बन्द रखें। अर्थात् जनता अपनी शक्ति अपने सामर्थ्य को भूली रहे। वह सोयी ही रहे, किसी भी क़ीमत पर जगने न पाए। यह शिव जो कि एक जन-प्रतीक है, दुनिया भर के विष को अपने कण्ठ में समाहित किए हुए है। चार अंकों में फैला काव्य-नाट्य ‘एक कण्ठ विषपायी’ का वितान कुछ ऐसा ही है।
काव्य-नाटिका ‘एक कण्ठ विषपायी’ में एक पात्र है ‘सर्वहत’ जो अनायास ही उभरकर आधुनिक प्रजा का प्रतीक बन गया। दरअसल यह सर्वहत उस सर्वहारा वर्ग का ही प्रतिनिधि है जो हर जगह उपेक्षित रहता है। एक जगह यह सर्वहत कहता है—‘मैं सुनता हूँ...मैं सब कुछ सुनता हूँ, सुनता ही रहता हूँ, देख नहीं सकता हूँ, सोच नहीं सकता हूँ और सोचना मेरा काम नहीं है। उससे मुझे लाभ क्या मुझको तो आदेश चाहिए। मैं तो शासक नहीं प्रजा हूँ। मात्र भृत्य हूँ केवल सुनना मेरा स्वभाव है।’ क्या आज भी जनता की यही स्थिति नहीं है? वह मूकद्रष्टा की भूमिका में होती है। जनता के सेवक के नाम पर शासन करनेवाले नेता और नौकरशाह अपने को अधिनायक समझने लगते हैं। लोकतंत्र भी आज महज़ एक मज़ाक़ बनकर रह गया है। वंशवाद, परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद से आज सभी दल आप्लावित हैं। एक जगह सर्वहत कहता भी है—‘शासन के ग़लत-सलत झोंकों के आगे भी फ़सलों-से विनयी हम बिछे रहे। निर्विवाद हमारे व्यक्तित्व के लहलहाते हुए खेतों से होकर दक्ष ने बहुत-सी पगडंडियाँ बनाईं, कर दीं सब फ़सलें बर्बाद।’
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