Kamla
Author:
Vijay TendulkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
कमला इस पुरुष प्रधान समाज में शताब्दियों से जिन्दा है। कहीं उसे बाजार हाट से पशुओं की तरह खरीद लिया जाता है तो कहीं दान-दहेज में लिपटी चीज की तरह प्राप्त किया जाता है। नाम चाहे उसका सरिता हो या कुछ और, रहती वह कमला ही है। लेकिन इस मुर्दा समाज में शताब्दियों से जिन्दा यह नारी-देह आखिर कब तक रूह-विहीन रखी जाएगी, यह सवाल कमला में पूरी गम्भीरता से उठाया गया है।<br>सुविख्यात मराठी नाटककार विजय तेन्दुलकर की यह नाट्यकृति हिन्दी रंगमंच और साहित्यिक हलकों में विशेष चर्चित रही है। विशेषकर इसलिए भी कि पत्रकारिता के कैरियरिस्ट दिमाग से अखबारी पन्नों पर उछाली गई कमला जिस समाज-व्यवस्था और मानसिक सड़ाँध का परिणाम है, उसकी ओर भी सार्थक संकेत किया गया है। हमारे समाज के तथाकथित आभिजात्य, उसके आयातित सांस्कृतिक मिजाज और जगमग सभ्यता का यह ढोंग ही होगा कि वह अपनी मानवीय संवेदना और सामाजिक जागरूकता का ढोल पीटता फिरे तथा अधिसंख्य अनपढ़ आम भारतीय को बड़े घरानों के अंग्रेजी अखबारों के जरिये सचेत करने की डींग हाँके। काका के माध्यम से इस अखबारी प्रवृत्ति पर तेन्दुलकर ने गहरी चोट की है। नारी की खरीद- फरोख्त और उसकी गुलामी को सप्रमाण पेश करने- वाले पत्रकार जयसिंह जाधव का असली नारी-दर्शन क्या है, इसे सरिता के प्रति उसके व्यवहार से जाना जा सकता है । साथ ही एक अर्थपूर्ण संकेत इसमें यह भी है कि पत्नी के रूप में सरिता को अपनी परतंत्रता का बोध अपने स्वतंत्रचेता पति के बजाय उसी कमला से हुआ जो गुलाम और गुलामी के प्रमाणस्वरूप इस नाटक के केन्द्र में है। वास्तव में विजय तेन्दुलकर की यह नाट्यरचना नारी-मुक्ति आन्दोलन के इस युग में उन बुनियादी सवालों तक ले जाती है, जहाँ से इस विषय पर एक कारगर बहस शुरू हो सकती है।
ISBN: 9788119159352
Pages: 102
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रस्तुत नाटक सत्ता और व्यवस्था में गहरे तक पैठ चुके भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-आक्रोश को अभिव्यक्ति देता है। समकालीन जीवन की अनेक स्थितियाँ और घटनाएँ इसमें अनुभव की जा सकती हैं।
इस नाटक का शीर्षक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत 'अंधेर नगरी चौपट राजा' पर एक रचनात्मक टिप्पणी है। उजास व चतुराई जैसे शब्दों का एक भिन्न अर्थ मन्नू भंडारी ने रेखांकित किया है। व्यंजना यह है कि आज अनेक सकारात्मक शब्दों, प्रतीकों और धारणाओं को निहित स्वार्थ ने भ्रष्ट कर दिया है।
आठ दृश्यों में विभक्त 'उजली नगरी चतुर राजा' के पात्रों राजा, बड़ा मंत्री, छोटा मंत्री, खजांची, नगर मंत्री, खोजी और हिम्मती आदि में परिचित चरित्रों की अनुगूँज है। लोकतंत्र, चुनाव, महँगाई, भ्रष्टाचार, असुरक्षा आदि मुद्दों पर यह नाटक व्यापक विमर्श का प्रस्ताव रखता है। जन-प्रतिरोध के स्वर इन शब्दों में मुखर हैं—
‘न करेगा अब कोई फ़रियाद,
न फैलाएगा राजा के आगे हाथ!
जो अधिकार हमारे हैं, उन्हें तो हम लेके रहेंगे।'
प्रासंगिक व प्रभावी कथ्य के साथ भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी यह नाटक उल्लेखनीय है। मौलिक नाट्यालेखों की कमी को पूरा करती प्रस्तुत कृति पाठकों व रंगकर्मियों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।
CANSURvive : Subah Ka Pata
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Asif Ali
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- Description: Awating description for this book
Badi Buajee
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Badal Sarkar
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Description:
इस नाटक की मुख्य शक्ति इसके चुटीले और व्यंग्य सिद्ध संवाद हैं। कथा का विकास और प्रवाह संवादों के जरिए होता रहता है। एक उदाहरण, बूआजी के व्यक्तित्व को व्यंजित करता शशांक नामक पात्र का यह कथन, ‘कोन्नगर से बूआजी को प्रमीला कैसे खींचकर यहाँ ला रही है, यह या तो भगवान जाने या तुम...यह खबर सुनने के बाद से मेरे तो होश फाख्ता हो रहे हैं। गोली खाकर मरने के समय आँखों के सामने अँधेरा आने के बजाय बूआजी आ खड़ी होती हैं।’ यही कारण है कि सारे प्रमुख पात्र पाठकों और दर्शकों की स्मृति में टिक जाते हैं।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. प्रतिभा अग्रवाल द्वारा अनूदित यह प्रहसन नई साज-सज्जा में पाठकों व रंगकर्मियों को भाएगा, ऐसा विश्वास है।
Caligula
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Albert Camus
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Description:
‘कालिगुला’ रोमन साम्राज्य के निरंकुश तानाशाह की मर्मांतक कहानी है जो अपने मारे जाने के षड्यंत्रों के बीच भी 'निर्भय' है। उसकी तानाशाही ने सदाचार को, ईमानदार आदमी को चाबुक पर नचाया है। उसे उन लोगों के चेहरों की मलिनता और गंध बड़ी निकृष्ट लगती है, जिन्होंने न दुःख भोगे न जोखिम उठाए, जो सद्गुणों की जैसे दुकान लगाते हैं, सुरक्षा का स्वप्न ऐसे देखते हैं जैसे कोई युवती प्रेम का। शायद ये इसी भय में अन्ततः मर भी जाएँगे बिना यह जाने कि उन्होंने जिन्दगी भर झूठ बोला है। ये लोग न्यायकर्ता कैसे हो सकते हैं?
ऐसी तमाम बातें, तमाम चीजें बेबाकी से सोचनेवाले निरंकुश, क्रूर और अनिष्टकारी कालिगुला को सारी वर्जनाओं के बावजूद किसी महानायक की तरह स्थापित करती चली जाती हैं। कालिगुला की मुक्ति की छटपटाहट और मनुष्य के मनोभावों पर निरपेक्ष पकड़ से ही उसके लिए चाँद जरूरी हो जाता है।
वह खुद से कहता है, ‘कालिगुला, तुम भी, तुम भी दंड के भागी हो। किसी से कुछ कम, किसी से कुछ ज्यादा लेकिन इस न्यायाधीशविहीन संसार में जहाँ कोई भी निर्दोष नहीं, कौन हिम्मत करेगा कि मुझे दोषी ठहराए?’
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