Ande Ke Chhilke : Anya Ekanki Tatha Beej Natak
Author:
Mohan RakeshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
आधुनिक हिन्दी नाटय साहित्य और कथा की दुनिया में मोहन राकेश का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी-रंगान्दोलन को एक नई गति और समृद्धि देने में उनकी निर्णायक भूमिका रही है। ‘अंडे के छिलके : अन्य एकांकी तथा बीज नाटक’ उनके कई प्रयोगधर्मी एकांकियों का संग्रह है। प्रयोगशीलता को मोहन राकेश रंगमंच की भाषा और उसके मानवीय पक्ष की समृद्धि से जोड़कर देखते थे, अर्थात् रंगमंचीय उपकरणों की न्यूनता के बावजूद कठिन से कठिन प्रयोग कर पाने की क्षमता के साथ जोड़कर। जयदेव तनेजा राकेश के नाटकों की एक दुर्लभ विशेषता पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि, ''उनके नाटकों में मंचीय सफलता और प्रदर्शनीयता के साथ-साथ साहित्यिकता और पठनीयता का भी विलक्षण गुण विद्यमान है। उनमें इन दोनों विशेषताओं का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। नाटकों को पद्य मानने का ही यह परिणाम है कि उनके नाट्य-संवादों और रंग-निर्देशों की भाषा में कोई अन्तर नहीं है। सम्भवत: यही कारण है कि उनके नाटकों को देखते या सुनते हुए ही नहीं, पढ़ते हुए भी बीच में छोड़ना कष्टकर प्रतीत होता है।'' संक्षेप में, इस संग्रह में शामिल नाटकों को हम राकेश के बहुस्तरीय नाट्य-लेखन के समर्थ उदाहरणों के रूप में देख सकते हैं।
ISBN: 9788171193110
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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—‘नवभारत टाइम्स (पटना संस्करण) 27 अप्रैल, 1994
‘‘महेन्द्र मिसिर के जीवन के तीन हिस्सों को रवीन्द्र भारती ने इस नाटक में बहुत ख़ूबसूरती से उभारा है।’’
—‘नवभारत टाइम्स’ (नई दिल्ली संस्करण) 6 सितम्बर, 1994
‘‘नौटंकी स्टाइल में इस नाटक ने अपार भीड़ खींच ली। नौटंकी के पुराने अदाकार 96 वर्षीय मास्टर फ़िदा हुसैन को यह नाटक बहुत पसन्द आया।’’
—‘स्वतंत्र भारत’ (नई दिल्ली) 25 सितम्बर, 1994
‘‘ ‘कम्पनी उस्ताद’ में भाषाओं के मिले-जुलेपन का जो सहारा लिया गया है, वह विशेष रूप से विचारणीय है। खड़ी बोली, अवधी, भोजपुरी—तीनों मिलकर नाटक की भाषा बनती हैं, इसके बावजूद नाटक की प्रेषणीयता कहीं से बाधित नहीं होती।’’
—‘प्रभात ख़बर’ (राँची संस्करण) 12 जून, 1994
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Description:
(खंड - 1) भीष्म साहनी का रंगमंच से रिश्ता सिर्फ़ नाटककार का नहीं था। वे उसके हर पहलू से जुड़े थे। उन्होंने अभिनय भी किया, निर्देशन में भी हाथ आज़माया और लगभग आधा दर्जन मौलिक नाटकों की रचना करके नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित तो हुए ही।
इस पुस्तक में भीष्म जी के उन्हीं नाटकों को रखा गया है। मंचानुकूल शिल्प व सम्प्रेषणीयता से समृद्ध ये नाटक अपने कथ्य में भी रचनात्मक और हस्तक्षेपकारी रहे हैं। ‘हानूश’ जिसका मूल मंतव्य सत्ता के दमनकारी चरित्र को रेखांकित करना और रचनाकार की स्वाधीनता का आह्वान करना है, उस वक़्त सामने आया जब देश इमरजेंसी के दौर से गुज़र रहा था। ‘मुआवज़े’ की कहानी साम्प्रदायिक दंगे से ग्रस्त शहर के सामाजिक और प्रशासनिक विद्रूप को दिखाती है। ‘कबिरा खड़ा बजार में’, ‘आलमगीर’, ‘रंग दे बसन्ती चोला’ और महाभारत की एक कथा पर आधारित ‘माधवी’ में भी भीष्म जी ने अपने समय की ज़रूरतों और चुनौतियों को नज़रअन्दाज़ नहीं किया है।
इस संकलन में शामिल सभी नाटक सार्थकता और मंचीयता, दोनों का सन्तुलन साधते हुए समकालीन नाटककार के सामने एक मानक प्रस्तुत करते हैं। पुस्तक में शामिल भीष्म जी का प्रसिद्ध आलेख ‘रंगमंच और मैं’ इस पुस्तक का विशेष आकर्षण है।
(खंड - 2) ‘दावत’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘ख़ून का रिश्ता’ और ‘साग-मीट’—ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जो हिन्दी कथा-साहित्य को भीष्म साहनी की अप्रतिम देन हैं। मध्यवर्गीय जीवन और मानसिकता की विडम्बनाओं पर तीखी प्रगतिशील दृष्टि से लिखी गई उनकी कहानियों ने अपना एक अलग संवेदना-संसार निर्मित किया।
भीष्म साहनी के सम्पूर्ण नाटकों के इस आयोजन में यह दूसरा खंड उनकी कुछ प्रसिद्ध कहानियों के नाट्य-रूपान्तरणों पर केन्द्रित है। ये रूपान्तरण उन्होंने स्वयं ही रेडियो के लिए किए थे। कुछ टीवी के लिए भी। रेडियो के लिए किए गए कुछ रूपान्तरण बाद में टीवी पर भी प्रसारित किए गए।
आज जब ‘कहानी का रंगमंच’ समकालीन हिन्दी थिएटर की अहम गतिविधि बन चुका है, इन रूपान्तरणों को मंच की दृष्टि से पढ़ना एक अलग अनुभव है। कहानी में निहित नाटकीयता को किस कोण पर कैसे पकड़ा जाए और कैसे उसको एक जीते-जागते नाटक में तब्दील कर दिया जाए, यह कथाकार-नाटककार भीष्म साहनी ने स्वयं ही इन रूपान्तरणों में स्पष्ट कर दिया है।
जिन कहानियों के नाट्य-रूपान्तरण इस खंड में शामिल हैं, वे हैं—‘दावत’, ‘साग-मीट’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘निमित्त’, ‘खिलौने’, ‘आवाज़ें’, ‘झूमर’, ‘झुटपुटा’, ‘मक़बरा शाह शेर अली’, ‘गंगो का जाया’, ‘ख़ून का रिश्ता’, ‘समाधि भाई रामसिंह’, ‘तद्गति’ और ‘कंठहार’।
उम्मीद है कि अपनी परिचित कहानियों का स्वयं कथाकार द्वारा प्रस्तुत यह नाट्य-रूप पाठकों को उपयोगी और उत्कृष्ट लगेगा।
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