
Caligula
Author:
Albert CamusPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
‘कालिगुला’ रोमन साम्राज्य के निरंकुश तानाशाह की मर्मांतक कहानी है जो अपने मारे जाने के षड्यंत्रों के बीच भी 'निर्भय' है। उसकी तानाशाही ने सदाचार को, ईमानदार आदमी को चाबुक पर नचाया है। उसे उन लोगों के चेहरों की मलिनता और गंध बड़ी निकृष्ट लगती है, जिन्होंने न दुःख भोगे न जोखिम उठाए, जो सद्गुणों की जैसे दुकान लगाते हैं, सुरक्षा का स्वप्न ऐसे देखते हैं जैसे कोई युवती प्रेम का। शायद ये इसी भय में अन्ततः मर भी जाएँगे बिना यह जाने कि उन्होंने जिन्दगी भर झूठ बोला है। ये लोग न्यायकर्ता कैसे हो सकते हैं?</p>
<p>ऐसी तमाम बातें, तमाम चीजें बेबाकी से सोचनेवाले निरंकुश, क्रूर और अनिष्टकारी कालिगुला को सारी वर्जनाओं के बावजूद किसी महानायक की तरह स्थापित करती चली जाती हैं। कालिगुला की मुक्ति की छटपटाहट और मनुष्य के मनोभावों पर निरपेक्ष पकड़ से ही उसके लिए चाँद जरूरी हो जाता है।</p>
<p>वह खुद से कहता है, ‘कालिगुला, तुम भी, तुम भी दंड के भागी हो। किसी से कुछ कम, किसी से कुछ ज्यादा लेकिन इस न्यायाधीशविहीन संसार में जहाँ कोई भी निर्दोष नहीं, कौन हिम्मत करेगा कि मुझे दोषी ठहराए?’
ISBN: 9788119835034
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘हानूश’ भीष्म साहनी का एक ऐसा नाटक है जिसमें कलाकार की सृजन की अदम्य अकुलाहट और उसकी निरीहता को रूपायित किया गया है। धर्म और सत्ता के गठबन्धन के साथ सामाजिक शक्तियों के संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति भी है यह अनमोल नाटक ‘हानूश’। कलाकार के पारिवारिक तनावों का अनूठा अंकन हुआ है ‘हानूश’ में। इस नाटक में एक ऐसे कलकार को केन्द्रीय भूमिका मिली है जो शुरू में ताला बनानेवाला एक सामान्य मिस्त्री है, बाद में उसके दिमाग़ में घड़ी बनाने का विचार उत्पन्न होता है और वह घड़ी बनाने में लग जाता है। विषम परिस्थितियों से जूझता हुआ वह घड़ी बनाने के काम में लगातार सत्रह साल गुज़ार देता है और अन्ततः इस लगन और कड़ी मेहनत के परिणामस्वरूप वह चेकोस्लोवाकिया की पहली घड़ी बनाने में कामयाब होता है। उसकी बनाई गई घड़ी नगरपालिका की मीनार पर लगाई जाती है, लेकिन इतनी बड़ी सफलता के बाद कलाकार को क्या मिलता है? बादशाह कलाकार की आँखें निकलवा लेता है, ताकि वह उस तरह की दूसरी घड़ी नहीं बना सके। चेक-इतिहास की इस छोटी-सी घटना से भीष्म साहनी ने हिन्दी को यह यादगार नाटक सौंपा है जो आज छह दशक बाद भी रंग-प्रेमियों के लिए यथार्थ और आश्चर्य का एक सामंजस्य-सा प्रतीत होता है।
Doosara Adhyay
- Author Name:
Ajay Shukla
- Book Type:
-
Description:
साहित्य कला परिषद् द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार—1993 से सम्मानित नाटक। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर आधारित इस नाटक में नाटकीय द्रशत्व की अपेक्षा कथात्मकता अधिक है। पात्र भी दो ही हैं, और इसका पूरा ताना-बाना यथार्थ, स्मृति और कल्पना और अति कल्पना के झिलमिल रंगों से बना है। इस रचना का वास्तविक आकर्षण चरित्रों की जटिलता, स्थिति की विडम्बना और सहज किन्तु जीवन्त भाषा संवाद में है। आधुनिक खोखले जीवन का साक्षात् दर्शन है—यह नाटक। प्रत्यक्ष कथानक के आगे जाकर यह नाटक अनेक प्रश्नों को खड़ा करता है कि हमारे स्थापित मूल्यों का आधार क्या है।
Janch Partal
- Author Name:
Sanjay Sahay
- Book Type:
-
Description:
महान रूसी लेखक नि. व्. गोपाल की कालजयी कृति 'दी गवर्नमेंट इंस्पेक्टर' पर मूलतः आधारित संजय सहाय का हिंदी नाटक जांच-पड़ताल उस व्यथा और तंत्र के मानव-द्रोही भ्रष्ट चरित्र को परत-दर-परत खोलता है, जिसके बीच हम रहने और जीने के लिए लगभग अभिशप्त हैं ! यथार्थ के विचलित कर देनेवाले उत्ताप और तीखे दंश के सहारे यह नाटक कहीं-न-कहीं हमें भी अपनी ही नजरों के आगे परख व् पहचान के लिए खड़ा करता है ! एक बेमुरौवत कठघरे में-जहाँ से जीवन-सन्दर्भों की न केवल एक नई कारगर पहचान व् प्रतीति होती है; बल्कि अर्थपूर्ण बदलाव की शुरुआत भी होती है !
भाषा, रूप, चरित्र, अंतर्वस्तु और अर्थध्वनियों के स्तर पर दिक् और काल के अपार आयामों में गूंजती हुई गोगोल की सशक्त कृति के भीतर से सर्जनात्मक अंतर्यात्रा करते हुए 'जांच-पड़ताल' के लेखक ने समसामयिक भारतीय संदर्भो में अपरोक्ष अभिप्रायों से लैस एक नई रंग-आकृति रचने-ढालने की कोशिश की है ! अनुकृति या अंतरण से भिन्न यह नाट्य-रचना देश, समाज, भाषा और युग के भिन्न संदर्भो में मूल कृति का ही पुनराविष्कार है, जिसमे उनकी अशेष रचनात्मक संभावनाओं का संदोहन है ! हम इसे गोगोल की आधारभूत कृति का हिंदी तदभव कह सकते हैं !
Ant Ka Ujala
- Author Name:
Krishna Baldev Vaid
- Book Type:
- Description: यह वाक्य प्रायः सुनने को मिलता है कि हिन्दी में मौलिक नाट्यालेखों का अभाव है। इस अभाव को कृष्ण बलदेव वैद सरीखे वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित रचनाकार काफ़ी हद तक दूर करते हैं। ‘भूख आग है’, ‘हमारी बुढ़िया’, ‘सवाल और स्वप्न’ एवं ‘परिवार अखाड़ा’ जैसे उनके उल्लेखनीय नाटकों ने हिन्दी रंगकर्म को पर्याप्त समृद्ध किया। इसी क्रम में कृष्ण बलदेव वैद का नया नाटक ‘अन्त का उजाला’ कुछ नए रचनात्मक प्रयोगों के साथ उपस्थित है। यह विदित है कि वैद भाषा में निहित अर्थों व ध्वनियों के साथ मानीख़ेज़ खिलवाड़ करते हैं। कथ्य और शिल्प में नए प्रयोग करते हुए वे किसी बड़े जीवन सत्य को रेखांकित करते हैं। ‘अन्त का उजाला’ जीवन की वृद्धावस्था में ठहरे पति-पत्नी की मनोदशा को एक 'अनौपचारिक भाषिक उपक्रम' में व्यक्त करता है। सावधानी से पढ़ें, अनुभव करें तो पूरा नाटक प्रतीकों से भरा है। लेखक एक स्थान पर कहता है, ‘एक आदर्श प्रतीक की तरह उसे याद भर किया है। खाने और पीने को भी एक प्रतीक ही समझो।’ नाटक बड़े सलीके से जीवनान्त के उजाले को संवादों में शामिल करता है। दो पात्रों के सुदीर्घ साहचर्य से उत्पन्न जीवन रस पाठकों को अभिभूत करता है। प्रयोगात्मकता और प्रतीकधर्मिता के कारण ‘अन्त का उजाला’ नाटक महत्त्पूर्ण हो उठता है।
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