Sukhi Ghar Society
Author:
Vinod DasPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
v data-content-type="html" data-appearance="default" data-element="main">‘सुखी घर सोसाइटी’ उपन्यास महानगर मुम्बई के उपनगर स्थित एक रिहाइशी परिसर का ऐसा वृत्तान्त है जिसमें क़स्बे के एक मुहल्ले की तरह विविधवर्णी जीवन की आपाधापी है, वहीं उसमें महानगर के अन्तर्द्वन्द्व, रहवासियों की हताशाएँ और उनके दैनिक संघर्ष की छोटी-छोटी ऐसी मार्मिक कथाएँ भी हैं जो रिसते ज़ख़्मों की तरह हमेशा उनके भीतर दुखती रहती हैं। लेकिन इसकी कथा-भूमि केवल महानगर तक सीमित नहीं है। इसमें गाँव से उखड़े हाशियों पर रहनेवालों की व्यथा-कथाएँ भी हैं जो महानगर पर्यटन के लिए नहीं, रोजी-रोटी के लिए आते हैं और हर दिन वहाँ तिल-तिल मरते हुए अपने गाँव लौटने का सपना देखते रहते हैं। विस्थापन की टीस, पानी की किल्लत, समय पर काम के लिए पहुँचने के लिए लोकल ट्रेन की रगड़ा-रगड़ी, बदबूदार सीवर की जानलेवा सफ़ाई, बार में नाचती देह बेचने की मजबूरी, स्थानीय भाषा न बोल पाने पर पिटाई-धुनाई जैसी तमाम ज़िल्लतों और घृणा के बीच मनुष्य अपने भीतर प्रेम सरीखी कोमल अनुभूति को किस तरह बचाता है, यह उपन्यास इसका अद्भुत आख्यान है। इसमें जहाँ मुम्बई के इतिहास की हल्की झलक है, वहीं देश की दरकती हुई लोकतान्त्रिक व्यवस्था का वर्तमान भी है। उपन्यास में वर्तमान और इतिहास की सहज आवाजाही हमें विस्मित करती है। इसे पढ़ते हुए जहाँ बार-बार इस बात की पुष्टि होती है कि इतिहास को बीते समय का कंकाल मानने से इसकी स्याह छायाएँ कई बार वर्तमान की ज़मीन को भी ऊसर बनाती हैं। हालाँकि, इसके कथ्य में समय की अनुभूति इतनी गहरी है कि वह ऐतिहासिकता भी रचती चलती है। सोसाइटी के बहुसंख्य फ़्लैटों की तरह इसकी कथा में विविध चरित्रों का रंगारंग संसार गुंफित है। इस उपन्यास का हर अध्याय अपने आप में एक स्वतंत्र कहानी पढ़ने का विरल अनुभव देता है जबकि हर अध्याय अपने में स्वायत्त होने के बावजूद अपने पूर्व के अध्याय की कोख से निकला भी लगता है। कहना न होगा कि काव्यात्मक भाषा में अपने समय की धड़कनों को जीवित यथार्थ की तरह अपनी रक्त की धमनियों में पढ़ना आज के अमानवीय दौर में मनुष्य बने रहने के लिए एक सकारात्मक कारवाई है जिसकी सृजनात्मक कसौटी पर विनोद दास का यह उपन्यास पूरी तरह खरा उतरता है।</
ISBN: 9789393768278
Pages: 396
Avg Reading Time: 13 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कुन्तल ने चाहा था कि एक साहित्यिक संस्था के ज़िम्मेदार पद पर आई है तो साहित्य को समाज की मशाल बनाने का उद्योग करेगी। कुछ ऐसा करेगी कि उस मँझोले शहर का कोना-कोना साहित्य के स्पर्श से स्पन्दित हो उठे। युवा प्रतिभाओं को वह आकाश मिले जो उनका हक़ है, और मनुष्य को वह दृष्टि जिससे मनुष्यों का यह क्षुद्र संसार भी जीने योग्य हो उठता है। लेकिन उसे पता भी नहीं लगा, और जाने कितने तीरों, कितने आरोपों, कितने सवालों की नोक पर उसे रख दिया गया। उसका सपने देखना, वह भी स्त्री होकर, यही उसका अपराध हो गया। राजनीति की सबसे निकृष्ट चालों से लिथड़ा साहित्य-संसार अचानक उसे एक काली कारा जैसा महसूस हुआ।
अकेले बैठकर वह बस सोचती ही रह जाती कि जिन शब्दों से सृष्टि के संताप को व्यक्त करने, आदमीयत की उलझनों को खोलने का काम लिया जाना था, वे संकीर्ण स्वार्थों के हड़ियल हाथों का खिलौना कैसे बन गए, कब और क्यों! मैत्रेयी पुष्पा का यह उपन्यास इन्हीं सवालों से जूझता हुआ, साहित्य और संस्कृति की दुनिया के उन कोनों से परदा उठाता है, जहाँ शब्दों की बाज़ीगरी अपने निकृष्टतम रूप में दिखाई देती है, और जहाँ एक उत्साहसम्पन्न, विज़नरी स्त्री उस यथार्थ से हार-हार कर लड़ती जाती है, जिस यथार्थ को न्याय के पैरोकारों ने अपनी छिछली स्वार्थपरता से गढ़ा है। सुगढ़ भाषा और सान्द्र स्त्री अनुभव से रचा यह उपन्यास हमारे समय के साहित्यिक समाज, राजनीतिक दिग्भ्रम और मर्दाना वर्चस्व से हर जगह लड़ती औरत की समग्र कथा है।
Na Hanyante
- Author Name:
Maitriye Devi
- Book Type:

- Description: साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत मैत्रेयी देवी के आद्यन्त रसपूर्ण इस उपन्यास में प्रेम के अमर तत्त्व ने समय की अबाध गति को न केवल रोक दिया है, वरन् उसे अतीत की ओर मोड़ दिया है—बयालीस वर्ष पूर्व नवयौवन के निश्छल, निष्पाप प्रेम के सहज और अबोध दिनों की ओर। आज की पकी उम्र की श्वेत-केशिनी, झुर्रियों-भरे चेहरे और ढीले बदन की अमृता; बेटों-पोतोंवाली, सम्पन्न परिवार की सम्भ्रान्त अमृता एक ऐसे असमंजस का शिकार हो गई है, जिसे न तो वह छोड़ ही पा रही है और न अपने हृदय से भींच-बाँधकर रख सकती है। बयालीस वर्ष पहले वह सब कुछ, जो एक विदेशी छात्र को लेकर उसके साथ हुआ था, वह प्रेम ही था न! प्रेम नहीं था तो इस तरह, इस उम्र में, आज की परिस्थितियों में उसकी याद ने उसे इतना क्यों झकझोर दिया है? आधी सदी पहले सात समन्दर पार से आए उस अपरिचित से मिलने को आज वह एकाएक कातर क्यों हो उठी है और अपने अत्यन्त सहनशील पति से उसे एक बार देख आने की अनुमति क्यों चाह रही है? प्रेम जन्म-रहित है, शाश्वत व पुरातन है—शरीर का नाश होने पर भी वह नहीं मरता। न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
Paltu Babu Road
- Author Name:
Phanishwarnath Renu
- Book Type:

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Description:
'पल्टू बाबू रोड' अमर कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु का लघु उपन्यास है। यह उपन्यास पटना से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'ज्योत्स्ना' के दिसम्बर, 1959 से दिसम्बर, 1960 के अंकों में धारावाहिक रूप से छपा था। रेणु के निधन के बाद 1979 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ।
नई-नई कथाभूमियों की खोज करनेवाले रेणु 'पल्टू बाबू रोड' में एक क़स्बे को अपनी कथा का आधार बनाते हैं। वे कठोर, विकृत और ह्रासोन्मुख समाज को लेखकीय प्रखरता के साथ परखते हैं। इस उपन्यास में रेणु अपने गाँव-इलाक़े को छोड़कर बैरगाछी क़स्बे को कथाभूमि बनाते हैं। इस क़स्बे की नियति पल्टू बाबू जैसे काइयाँ, धूर्त, कामुक बूढ़े के हाथ में है। उसने क़स्बे के लिए ऐसी राह निर्मित की है जिस पर राजनीतिज्ञ, ठेकेदार, व्यापारी, वकील (पूरे क़स्बे के लोग ही) चल रहे हैं। लगता है, क़स्बावासी शतरंज के मोहरे हैं और पल्टू बाबू इनके संचालक।
इस उपन्यास का लक्ष्य है उच्च वर्ग के अंतर्विरोधों, उसकी गिरावट, राजनीतिक और आर्थिक सम्बन्धों में यौन-व्यापार आदि का चित्रण। निम्न वर्ग छिटपुट आया है। आदर्शवादी पात्र विडम्बना से घिरे हैं। भाषा प्रवाहपूर्ण और अर्थव्यंजक है। अत्यन्त पठनीय उपन्यास।
Namo Andhakaram
- Author Name:
Doodhnath Singh
- Book Type:

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Description:
दूधनाथ सिंह के कथा-साहित्य को पढ़ते हुए लगता है कि सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर उन्होंने हमेशा अपनी पैनी और सचेत निगाह रखी। वे अपने समीपतर परिवेश में भी विश्वव्यापी बदलावों और संकटों के चिन्ह देख लेते थे। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ, उपन्यास विशेष तौर पर किसी विराट परिस्थिति का सूक्ष्म-अध्ययन जैसे मालूम पड़ते हैं।
‘नमो अंधकारं’ भी ऐसी ही एक कथा-कृति है जिसमें उन्होंने समाज, विचारधारा, व्यक्ति की गिरावट आदि बिन्दुओं के सापेक्ष अपने नैतिक क्रोध को अंकित किया है। आज़ादी के बाद भारतीय समाज में जो एक खाता-पीता तबक़ा कभी विचार तो कभी ईश्वर की आड़ में सिर्फ़ अपने आसपास की दुनिया नहीं, बल्कि मानवीयता के अखिल विचार के लिए ख़तरा हो गया है, यह उपन्यास उसका राजनीतिक शोकगीत है। यह एक संवेदनशील व्यक्ति की पतन-गाथा का चित्र खींचता है, जो और भी दुखद है।
दूधनाथ जी कहा करते थे कि ‘कथा-लेखन में वास्तविक ज़़िन्दगी की एक भीतरी छाया रहती है जिसको एक लेखक अपनी कल्पना से रचता है।’ और इस रचने में वह उस भीतरी छाया को बड़े फलक पर सामान्यीकृत करके एक सत्य के रूप में स्थापित करता है। ‘नमो अंधकारं’ पर उठे विवादों के चलते बार-बार पाठकों ने इसे पढ़ा, और इस मान्यता की ताईद की। किसी भी पाठक के लिए यह एक ज़रूरी पाठ है।
Laute Huye Musafir
- Author Name:
Kamleshwar
- Book Type:

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Description:
कहानी-लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान के साथ कमलेश्वर ने अपने छोटे कलेवर के उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन के चित्रण को लेकर छठे-सातवें दशक के हिन्दी परिदृश्य में अपना अलग स्थान बनाया। देश-दुनिया, समाज-संस्कृति और राजनीति से जुड़े विषय भी अक्सर उनकी कथा-रचनाओं के विषय बने हैं। ‘काली आँधी’ और ‘कितने पाकिस्तान’ जैसी रचनाओं के लिए विशेष रूप से ख्यात कमलेश्वर की लेखनी मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं पर ही ठहरती है।
वर्ष 1961 में प्रकाशित इस उपन्यास ‘लौटे हुए मुसाफिर’ में स्वतंत्रता के आगमन के साथ गम्भीर रूप धारण करती साम्प्रदायिकता की समस्या और भारत विभाजन के नाम पर बेघर-बार हुए मुस्लिम समाज के मोहभंग और उनकी वापसी की विवशता को दर्शाया गया है। यह इस उपन्यास की प्रभावशाली रचनात्मकता और इतिहास-बोध के कारण ही सम्भव हुआ कि इस छोटे से उपन्यास का उल्लेख भारत-विभाजन पर केन्द्रित गिने-चुने हिन्दी उपन्यासों में प्रमुखता के साथ किया जाता है।
अपनी आवेशयुक्त शैली में कमलेश्वर ने इस कृति में आज़ादी और विभाजन के ऊहापोह में फँसे हिन्दुओं और मुसलमानों की मनःस्थिति के साथ भारत के सामाजिक ताने-बाने में आए निर्णायक बदलाव को भी रेखांकित किया है।
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