Radio Kosi
Author:
PushyamitraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
रेडियो कोसी की शुरुआत तो दो प्रेमियों ने आपस में बतियाने के लिए की, लेकिन आवाज़ वह बन गई साढ़े तीन सौ गांवों और लाखों लोगों की। प्रह्लाद इस रेडियो का आविष्कारक और अभियंता था, और प्रेमिका दीपा, रेडियो जॉकी। कानों पर हेडफोन लगाकर सुबह-सुबह आंगन बुहारती हुई वह अपने-अपने अंधेरों में डूबे उन गाँवों के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम शुरू कर देती।</p>
<p>वे लोग जो कोसी तटबंधों के बीच आज भी फँसे हैं, जिन के पास स्वतंत्र भारत के नागरिकों को प्राप्त कोई सुविधा नहीं है, न अस्पताल हैं, न सड़क, न स्कूल, न बिजली; जो अभी भी सदियों पहले के वक्त में जी रहे हैं—बाढ़ की मार को सीधे झेलते हुए, जीने की जद्दोजहद करते हुए। कहानी का एक मोड़ यह संकेत भी देता है कि इनके दुख-दर्द को समझने-जानने के लिए भले ही देश का तंत्र वहां न पहुंचे लेकिन वोट मांगने और कानून के नाम पर दमन करने जरूर पहुंच जाता है।</p>
<p>अपने साथ भारी मात्रा में गाद लाने वाली कोसी इस गाद के चलते ही अगले साल अपना रास्ता बदल देती है और अनेक गाँव फिर उसकी चपेट में आ जाते हैं। इसी को देखते हुए नदी को दो तटबंधों के बीच सीमित रखने की योजना आजादी के कुछ साल बाद बनी, लेकिन उन तटबंधों के बीच जो गाँव पड़ते थे उन्हें वहीं रहने दिया गया। पुनर्वास के नाम पर जो हुआ वह भी धोखा साबित हुआ।</p>
<p>यह उपन्यास इसी कहानी की तरफ हमारा ध्यान खींचता है जिसके बारे में अभी भी बहुत से लोग नहीं जानते हैं।
ISBN: 9789395737425
Pages: 152
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘जुस्तजू-ए-निहां उर्फ़ रुणियाबास की अन्तर्कथा’ यानी तलाश एक ऐसी छिपी हुई अन्दरूनी दुनिया की, जिसे पहचानकर उस पर उँगली रख पाना सचमुच बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी जिसका कोई-न-कोई अंश हमें बार-बार अपने भीतर छटपटाता दिखाई दे जाता है। इसे हम अपने होने का दु:ख, उसका अकेलापन या अकेलेपन की समूची अव्यक्त तकलीफ़ को किसी मूर्त आस्था की बैसाखियों पर खड़ा कर सकने की भोली ललक, या ठहराव को तोड़ने की उद्दाम लालसा या एक बिखरती हुई सिनिकल सभ्यता की बदहवासी के बीच से दु:ख का प्रतिदान ढूँढ़ निकाल पाने की पागल, मर्मांतक ज़िद—कुछ भी कह सकते हैं...
...किसी बेग़ैरत और मखौल-भरी ज़िन्दगी से उकताया एक अनास्थावादी ‘खोजी’ पत्रकार जब अनायास ही राजस्थान के बियाबान इलाक़े में उपेक्षित खड़े एक नामालूम खँडहर और उस खँडहर के भीतर बरसों से ‘अदृश्यवास’ कर रहे अनदेखे ‘ओझल बाबा’ की किंवदन्ती से जा टकराता है तो उसे लगता है कि उस रहस्य के भीतर से वह कहीं अपनी उद्देश्यहीन ज़िन्दगी का खोया हुआ सिरा भी ढूँढ़ निकालेगा।...क्या सचमुच वहाँ किसी सिद्ध बाबा का वास था? क्या उनके भीतर भी वही गुमनाम, अपरिभाषित-सी बेचैनी मँडरा रही थी? चालीस वर्षों के असाध्य एकान्तवास के ज़रिए क्या वे भी उसकी तरह ही किसी नामालूम, बेग़ैरत ज़िन्दगी का तोड़ ढूँढ़ निकालने की ज़िद पर अड़े हुए थे? अगर अड़े हुए थे तो क्या आख़िरकार उन्हें वह मिल पाया? और अगर मिला, तो क्या था वह तोड़?
‘जुस्तजू-ए-निहां...’ अपने समय और सभ्यता के अवसाद और उसकी आस्थाहीनता का विकल्प ढूँढ़ निकालने का एक जुनून-भरा वैयक्तिक अभियान है, जिसमें विचारधाराओं, नसीहतों और सैद्धान्तिकताओं से अलग एक पारदर्शी ईमानदारी और तड़प साफ़ महसूस की जा सकती है। रहस्य, रोमांच, व्यंग्य, अनास्था और संवेदना के सम्मोहक ताने-बाने में छतों और दीवारों के बाहर, खुले आसमान तले रचा गया हिन्दी गद्य के सशक्त हस्ताक्षर जितेन्द्र भाटिया का यह विलक्षण उपन्यास न सिर्फ़ कई स्तरों पर हमारी संवेदनाओं को छूता है, बल्कि अपनी पुरानी संवादपरकता पर से खोया हुआ विश्वास हमें लौटाने का साहस भी दिखाता है।
Radheya
- Author Name:
Ranjeet Desai
- Book Type:

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Description:
‘कर्ण’ के जीवन की विडम्बनाएँ और उसके चरित्र की उदात्तता बार-बार आधुनिक रचनाकारों को आकर्षित करती रही हैं। उसका जीवन-चरित बार-बार नाटकों, खंड-काव्यों और उपन्यासों का विषय बनता रहा है। यह उपन्यास भी कर्ण के जीवन पर आधारित है।
ऐतिहासिक-पौराणिक कथानकों पर प्रभावशाली औपन्यासिक सृष्टि करने में सिद्धहस्त लेखक रणजीत देसाई ने अपनी इस कृति में कर्ण की एक व्यक्ति और एक परिस्थिति, दोनों रूपों में व्याख्या की है। माता-पिता के स्नेह से वंचित, सतत उपेक्षित और अपमानित कर्ण जीवन-भर किसी ऐसे अपराध की सज़ा भोगता रहता है, जिसमें वह कहीं शामिल नहीं था। क़दम-क़दम पर उससे उसकी जातिगत श्रेष्ठता का प्रमाण माँगा जाता है, जो वह नहीं दे पाता, जिसके कारण उसके व्यक्तित्व का प्राकृतिक तेज धूमिल पड़ जाता है। वह अकेला पड़ जाता है। ‘महाभारत’ के इतने विस्तृत फलक पर जिस तरह का अकेलापन कर्ण झेलता है, वह और कोई पात्र नहीं।
प्रस्तुत उपन्यास में गंगा के किनारे जाकर कर्ण को ध्यानस्थ होते देखना सचमुच उसे उस करुणा और सहानुभूति का अधिकारी बनाता है जिसे उसका देश-काल अपनी धार्मिक-सामाजिक सीमाओं के चलते नहीं दे पाया।
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