
Lavanyadevi
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
264
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
528 mins
Book Description
कुसुम खेमानी के उपन्यास ‘लावण्यदेवी’ का कथा-फ़लक इतना विस्तृत है कि इसमें एक कुटुम्ब की पाँच पीढ़ियों की गाथा समाहित है। गाथा इसलिए कि इसमें केवल प्रभावती, ज्योतिर्मयीदेवी, लावण्यदेवी और उनकी सन्तति तथा नाती-पोतों की दास्तान ही नहीं है; बल्कि इनके बहाने जैसे एक पूरे युग और काल के प्रवाह को भाषा में बाँधने की कोशिश की गई है। ऐसी कथा-वस्तु में बिखराव की आशंका बराबर बनी रहती है, लेकिन कुसुम खेमानी ने अपने रचनात्मक कौशल से जैसा कथा-संयोजन किया है, वह देखते ही बनता है। यह हिन्दी का उपन्यास तो है ही, लेकिन इसकी भाषा में बांग्ला और राजस्थानी के शब्दों को इतनी ख़ूबसूरती से पिरोया गया है कि वे कहीं सायास टाँके गए प्रतीत नहीं होते। सामान्यतः हिन्दी के उपन्यासों में एक लोकभाषा या एक प्रान्तीय भाषा के शब्द ही देखने को मिलते हैं। शमशेर ने जो कहीं लिखा है—‘कवि घँघोल देता है व्यक्तियों के चित्र...’ उसी तरह कहा जा सकता है कि कथाकार ने एक भाषा के जल में दो और भाषाओं के रंगों को ‘घँघोल’ दिया है। फिर जो कथा-भाषा तैयार हुई है; उसे एक शब्द में ‘बतरस’ ही कहा जा सकता है। इस दृष्टि से यह हिन्दी का विलक्षण उपन्यास बन पड़ा है।</p> <p>उपन्यास की कथा में अनेक मोड़ आते हैं। भाषा का प्रवाह तीव्र है और इस कथा-यात्रा में अनुभव के नए और लगभग अछूते प्रदेश उद्घाटित होते चलते हैं। इन कारणों से उपन्यास में ग़ज़ब की पठनीयता आ गई है और ऐसा करना एक समर्थ क़िस्सागो के लिए ही सम्भव था। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में लावण्यदेवी जिस प्रश्न से टकराती हैं, वह मुक्ति का प्रश्न है, किन्तु यह मुक्ति स्वयं तक या अपने प्रियजनों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि आगे चलकर मानव मात्र की मुक्ति में बदलती दिखाई देती है। संसार की भौतिकता से घिरी हुई एक आधुनिक कथा नायिका लावण्यदेवी के भीतर भी कहीं गहरे एक देशज अध्यात्म बचा हुआ है, जो उन्हें संन्यास और वैराग्य के लिए विवश करता है, लेकिन यह संन्यास भी कर्म का स्वीकार ही है जिसका प्रमाण लावण्यदेवी का उत्तर जीवन है। दरअसल लावण्यदेवी का व्यक्तित्व कर्म और संघर्ष की धातुओं से ही बना है, किन्तु ये धातुएँ ठोस और जड़ न होकर उच्चतम मूल्यों के ताप में पिघलती भी दिखाई देती हैं। वे अपनी सन्तति को भी निरन्तर संघर्ष और कर्म का ही सन्देश देती हैं। यह कर्म का ‘स्वीकार’ ही है जिसके चलते लावण्यदेवी प्रारब्ध को ख़ारिज करती हैं और जहाँ ख़ारिज नहीं कर पातीं, वहाँ उसके सामने घुटने भी नहीं टेकतीं। लावण्यदेवी का कर्मशील जीवन और उनके सारे फ़ैसले जनहित में किए जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं, उच्चवर्ग की पृष्ठभूमि होने के बावजूद यह उपन्यास, इन्हीं मूल्यों के कारण व्यापक पाठक समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में सफल रहेगा।</p> <p>—एकान्त श्रीवास्तव