Kalank-Mukti
Author:
Phanishwarnath RenuPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
‘कलंक मुक्ति’ का संसार, नारी-जीवन के क्रूरतम अन्तर्विरोधों का संसार है, जिसे रेणु ने बड़ी सहजता, आत्मीयता और सूक्ष्मता के साथ रचा है। इसमें चित्रित ‘वर्किंग विमेन्स होस्टल’ का चकलाघर में बदल जाना भारतीय शासक वर्ग के पतनशील चरित्र और झूठे लोकतंत्र की विडम्बनाओं का कच्चा चिट्ठा है, जो अपने आप में एक चीखता हुआ सवाल बन गया है कि इस सबके लिए जिम्मेदार कौन? और उपन्यास की प्रत्येक पंक्ति इस प्रश्न का उत्तर देती है। दूसरी ओर है—बेला गुप्त, त्याग, कर्त्तव्य और बलिदान की प्रतिमूर्ति । संघर्षशील । पराजित। एक संजीवनी... पुण्य... पवित्र... पापहरा धारा—बेला—कब राष्ट्रीय अस्मिता में बदल जाती है, पता नहीं लगता। केवल प्रश्न ही शेष रह जाता है वहाँ—ईश्वर की तरह तरंगायित कि क्या उस समाज का विध्वंस आवश्यक नहीं, जिसमें मनुष्य अपनी अस्मिता को सुरक्षित नहीं रख पाये? जहाँ उसका अस्तित्व स्वयं उसके हाथों से छीन लिया जाये ? और यदि ये प्रश्न जन-मानस को मथने लगते हैं तो निश्चय है कि मुक्ति की सम्भावनाएँ भी विद्यमान हैं।
ISBN: 9789360868239
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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‘शहर से दस किलोमीटर’ ही वह दुनिया बसती है जो शहरों की न कल्पना का हिस्सा है, न सपनों का। वह अपने दुखों, अपने सुखों, अपनी हरियाली और सूखों के साथ अपने आप में भरी-पूरी है।
वहाँ खेत है, ज़मीन है, कुछ बंजर, कुछ पठार, कुछ उपजाऊ और उनसे जूझते, उनकी वायु में साँसें भरते लोग हैं, उनकी गाएँ भैसें और कुत्ते हैं; और आपस में सबको जोड़नेवाली उनकी रिश्तेदारियाँ हैं, झगड़े हैं, शिकायते हैं, प्यार है!
शहर से सिर्फ़ दस किलोमीटर परे की यह दुनिया हमारी ‘शहरवाली सभ्यता’ से स्वतंत्र हमारे उस देश की दुनिया है जो विकास की अनेक धाराओं में अपने पैर जमाने की कोशिशों में डूबता-उतराता रहता है। इसी जद्दोजहद के कुछ चेहरे और उनकी कहानियाँ शहर के बीचोबीच भी अपने पहियों, अपने पंखों पर तैरती मिल जाती हैं। यह उपन्यास साइकिल के इश्क़ में डूबे एक जोड़ी पैरों की परिक्रमा के साथ खुलता है जो शहर के बीच से शुरू होती है और उसके दस किलोमीटर बाहर तक जाती है। यह शहर है भोपाल। पहाड़ी चढ़ाइयों और उतराइयों को सड़कों की संयत भाषा में व्याख्यायित करता शहर। सड़कों के किनारे अस्थायी टपरों में बसे लोग, तरह-तरह के कामों में लगे वे लोग जो शहरों में रहते हुए भी शहर से बाहर की अपनी पहचान को सँजोए रहते हैं। साइकिल सबका हाल-चाल दर्ज करती हुई घूमती रहती है। एक स्त्री की साइकिल, जिसका अपना एक इतिहास है, जो शहर की आपाधापी से दूर खेतों में, शहर के उन हिस्सों में बरबस निकल जाती है जहाँ शहर तो है लेकिन उसकी कोई ख़ूबी नहीं है। गाँवों की सरहदों का अतिक्रमण करता शहर यहाँ उन लोगों से बहुत बेरहम व्यवहार करता है जो गाँवों की साधनहीनता से भागकर शहर का हिस्सा होने आए हैं।
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