Nanya
Author:
Prabhu JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
प्रभु जोशी, हिन्दी गल्प जगत् के ऐसे अनूठे कथा-नागरिक हैं, जो सूक्ष्मतम संवेदनाओं के रेशों से ही, विचार और संवेदना के वैभव का वितान रचते हैं, जिसमें रचना का स्थापत्य, अपने परिसर में, समय के भूगोल को चतुर्दिक् घेर लेता है। यही वजह है कि उनकी लम्बी और औपन्यासिक आभ्यन्तर वाली लगभग सभी कथा-रचनाएँ, वर्गीकृत सामाजिकता के अन्तर्विरोधों के दारुण दु:खों को अपने कथ्य का केन्द्रीय-सूत्र बनाकर चलती आई हैं।</p>
<p>प्रस्तुत कथा-कृति ‘नान्या’, औपनिवेशिक समय के विकास-वंचित अंचल के छोटे से गाँव में एक अबोध बालक के ‘मनस के मर्मान्तक मानचित्र’ को अपना अभीष्ट बनाती हुई, भाषा के नाकाफ़ीपन में भी अभिव्यक्ति का ऐसा नैसर्गिक मुहावरा गढ़ती है कि भाषा के नागर-रूप में, तमाम ‘तद्भव’ शब्द अपने अभिप्रायों को उसी अनूठेपन के साथ रखने के लिए राज़ी हो जाते हैं, जो लोकभाषा की एक विशिष्ट भंगिमा रही है। कहने कि ज़रूरत नहीं कि हिन्दी गद्य में, मालवांचल की भाषिक सम्पदा से पाठकों का परिचय करानेवाले प्रभु जोशी निर्विवाद रूप से पहले कथाकार रहे हैं, जिनकी ग्राम-कथाओं के ज़रिए पाठकों ने सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में इस क्षेत्र के यथार्थ को उसकी समूची जटिलता के साथ जाना। जबकि इस अंचल से आनेवाले पूर्ववर्तियों से यह छूटता रहा था।</p>
<p>अबोधता के इस अकाल समय में ‘नान्या’ की यह दारुण कथा जिस गल्पयुक्ति से चित्रित की गई है, उसमें प्रभु जोशी का कुशल गद्यकार, दृश्य-भाषा से रची गई कथा-अन्विति को, पर्त-दर-पर्त इतनी घनीभूत बनाता है कि पूरी रचना में कथा-सौष्ठव और औत्सुक्य की तीव्रता कहीं क्षीण नहीं होती। कहना न होगा कि यह हिन्दी गल्प की पहली ऐसी कृति है, जिसमें बाल-कथानायक के सोचने की भाषा के सम्भव मुहावरे में, इतना बड़ा आभ्यन्तर रचा गया है। इसमें उसकी आशा-निराशा, सुख-दु:ख, संवेदना के परिपूर्ण विचलन के साथ बखान में उत्कीर्ण हैं, जहाँ लोक-स्मृति का आश्रय, पात्र की बाल-सुलभ अबोधता को, और-और प्रामाणिक भी बनाता है। कहानी में यह वह समय है, जबकि नगर और ग्राम का द्वैत इतना दारुण नहीं था, और लोग ग्राम से पलायन में जड़-विहीन हो जाने का भय अनुभव करते थे। कथा में एक स्थल पर दादी की कथनोक्ति में यह सामाजिक सत्य जड़ों से नाथे रखने के लिए तर्क पोषित रूप में व्यक्त भी होता है कि ‘जब कुण्डी में पाणी, कोठी में नाज, ग्वाड़ा में गाय, और हाथ में हरकत-बरकत होय तो, गाँव का कांकड़ छोड़ के हम सेरगाम क्यों जावाँ?’</p>
<p>बहरहाल, नान्या अपनी दादी और बड़े ‘बा’ के बीच ही मानसिक गठन की प्रश्नाकुलता से भिड़ता हुआ, यक़ीनों की विचित्र और उलझी हुई गाँठों में, और-और उलझता हुआ, हमें रुडयार्ड किपलिंग, चेख़व और दॉस्तोयेव्स्की के बाल-पात्रों की त्रासदियों का पुनर्स्मरण कराता हुआ, करुणा और संवेदना की सार्वभौमिकता के वृत्त के निकट ला छोड़ता है। प्रभु जोशी के कथाकार की दक्षता इस बात में भी है कि ‘नैरेटर’ की उपस्थिति कलात्मक ढंग से ‘कैमोफ्लेज्ड’ कर दी गई है। नान्या की यह कथा, अपने भीतर के एकान्त में घटनेवाले आत्मसंवाद का रूप ग्रहण करती हुई इतनी पारदर्शी हो जाती है कि पाठक एक अबोध की त्रासदी के पास निस्सहाय-सा, व्यथा के वलय में खड़ा रह जाता है। कथा, काल-कीलित होते हुए भी, सार्वभौमिक सत्य की तरह हमारे समक्ष बहुत सारे मर्मभेदी प्रश्न छोड़ जाती है। विस्मय तो यह तथ्य भी पैदा करता है कि कथाकृति, काल के इतने बड़े अन्तराल को फलाँग कर, साहित्य के समकाल से होड़ लेती हुई अपनी अद्वितीयता का साक्ष्य रखती है।</p>
<p><strong> </strong>
ISBN: 9789387462366
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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शरीर की पूर्णता-अपूर्णता का प्रश्न किसी-न-किसी स्तर पर मन और जीवन की पूर्णता के प्रश्न से भी जुड़ जाता है। यह उपन्यास शुरू से लेकर आख़िर तक इसी सवाल से जूझता है कि क्या सौन्दर्य के प्रचलित मानदंडों और समाज की रूढ़ दृष्टि के अनुसार एक अधूरे शरीर को उन सब इच्छाओं को पालने का अधिकार है जो स्वस्थ और सम्पूर्ण देहवाले व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक होती है। उपन्यास की नायिका विदेशी भूमि पर अपना सहज और अल्पाकांक्षी जीवन जी रही होती है कि अचानक उसे मालूम होता है, उसे स्तन-कैंसर है और यह बीमारी अन्तत: उसके शरीर से उसके सबसे प्रिय अंग को छीन ले जाती है। लेकिन मन! तमाम चोटों के बावजूद मन कब अधूरा होता है, वह फिर-फिर पूरा होकर मनुष्य से, जीवन से अपना हिस्सा माँगता है, अपना सुख।
उषा प्रियम्वदा बारीक और सुथरे मनोभावों की कथाकार रही हैं, उनके पात्र न कभी ऊँचा बोलते हैं, न कभी बहुत शोर मचाते हैं, फिर भी ज़िन्दगी और अनुभूति की उन गलियों को आलोकित कर जाते हैं, जहाँ से गुज़रना हर किसी के लिए उद्घाटनकारी होता है।
यह उपन्यास भी इसी अर्थ में महत्त्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने बहुत नई-सी दिखनेवाली कथाभूमि पर, बहुत सहज ढंग से मानव-मन की चिरन्तन लालसाओं, कामनाओं, निराशाओं और उदासियों का अत्यन्त कुशल और समग्र अंकन किया है।
Bhookh
- Author Name:
Mahashweta Devi
- Book Type:

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विकास और समानता के दावों के घटाटोप के नीचे असन्तोष सुलगता रहता है। राजसत्ता आँख मूँदे रहती है और स्थिरता एवं शान्ति का दावा करती रहती है। जब तक असन्तोष को क्रोध का रास्ता नहीं मिलता, तब तक ‘सब कुछ ठीकठाक है’ का भ्रम बना रहता है। छोटे-छोटे संघर्ष चलते रहते हैं और अभिजन यथास्थिति के मुग़ालते में डूबे रहते हैं। इस कथ्य को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास।
भूख स्थानीय स्तर की एक बड़ी लड़ाई की दास्तान है। बिहार का पठारी ज़िला पलामू का गाँव खेड़ा। काग़ज़ पर शासन बिहार की सरकार का और वास्तविक क़ब्ज़ा लरातू के आदमख़ोर कुँवर का। बचे-खुचे सामन्ती दलदल की उपज कुँवर की जो जंगल का राजा, जंगल के उत्पाद का लुटेरा और आदिवासियों की अस्मत को खिलौने की तरह उछालने वाला है। तेतरी के साथ बलात्कार, बेगार-बँधुआ बनाए गए आदिवासी, सुलगता असन्तोष और दिशा देती परिवर्तनकामी शक्तियाँ कुँवर को चुनौती देती हैं। नौकरशाही कुँवर के सामने लाचार है। लेकिन दलितों के असन्तोष का क्रान्तिकारी दावानल जब भड़कता है तो कुँवर मारा जाता है।
प्रख्यात बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने अन्याय के घृणित रूपों और उसके विरुद्ध चल रहे जन-संघर्ष की दहकती कथा पाठकों के समक्ष रखी है।
Safed Ghora Kala Sawar
- Author Name:
Hrideyesh
- Book Type:

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हृदयेश ने अपने इस उपन्यास ‘सफेद घोड़ा काला सवार’ में भारतीय न्याय–व्यवस्था की शव–परीक्षा की है। यह उपन्यास इस व्यवस्था के सारे अन्तर्विरोधों तथा छद्मों को केवल उजागर ही नहीं करता, सामान्य जन के लिए प्रचलित न्याय–प्रणाली की निरर्थकता पर तीव्र टिप्पणी भी करता है। उपन्यास का फलक इतना व्यापक है कि इसमें संगुम्फित छोटी–छोटी कहानियाँ इसे न्याय के नाम पर रचे गए चक्रव्यूह का वृहद् मार्मिक दस्तावेज़ बनाती हैं।
उपन्यास में विषयगत नवीनता है, शिल्पगत ताज़गी है और है सार्थक दृष्टि का कलात्मक उपयोग। वस्तुत: यह उपन्यास हिन्दी के उन कुछ श्रेष्ठ उपन्यासों में से है जो स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में यथार्थवादी दृष्टि से लिखे गए हैं और जो पाठकों को समसामयिक परुष यथार्थ से परिचित कराने के साथ–साथ उनको बहुत कुछ सोचने को भी मजबूर करते हैं।
Kale-Ujale Din
- Author Name:
Amarkant
- Book Type:

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वस्तुतः हमारा आज का जीवन कई खंडों में बिखरा हुआ-सा नज़र आता है। सामाजिक ढाँचे में असंगतियाँ और विषमताएँ हैं, जिनकी काली छाया समाज के प्रत्येक सदस्य के व्यक्तिगत जीवन पर पड़े बिना नहीं रहती। इसीलिए एक बेपनाह उद्देश्यहीनता और निराशा आज हरेक पर छाई हुई है। स्वस्थ, स्वाभाविक और सच्चे जीवन की कल्पना भी मानो आज दुरूह हो उठी है।
इस कथानक के सभी पात्र ऐसे ही अभिशापों से ग्रस्त हैं। मूल नायक तो बचपन से ही अपने सही रास्ते से भटककर ग़लत रास्तों पर चला जाता है। उसके माता-पिता और परिजन भी तो भटके हुए थे। लेकिन वह अपने भटकाव में ही अपनी मंज़िल को पा लेता है। क्या इस तरह इस कथानक का सुखद अन्त होता है? नहीं। आँसू का अन्तिम क़तरा तो सूखता ही नहीं। संयोग और दुर्घटना का सुखान्त कैसा? मानव-जीवन कोई दुर्घटनाओं और संयोगों की समष्टि मात्र नहीं है! जब तक सारी सामाजिक व्यवस्था बदल नहीं जाती, जब तक हमारा जीवन-दर्शन आमूल बदल नहीं जाता, तब तक ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहेंगी—चाहे उनका परिणाम दुःखद हो या सुखद।
आज की समाज-व्यवस्था के परिवर्तन के साथ नारी की स्वतंत्रता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। क्रान्ति का त्यागमय जीवन उसके जीवन-काल में क्या मर्यादा पा सका? उसके आदर्श को क्या उचित मूल्य मिला? रजनी का त्याग भी क्या सम्मान पा सका? उसकी सहानुभूति, ममता और प्रेम-भावना क्या आँसू से भीगी नहीं हैं? क्या उसके जीवन का सुख किसी और के दुःख पर आश्रित नहीं है?
इन्हीं सब प्रश्नों की गुत्थियाँ अमरकान्त का यह उपन्यास खोलता है।
Gram Bangla
- Author Name:
Mahashweta Devi
- Book Type:

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Description:
‘ग्राम बांग्ला’ में सात उपन्यासिकाएँ हैं—‘ग्राम बांग्ला’, ‘सीमान्त’, ‘अँधेरे की सन्तान’, ‘राजा’, ‘स्वदेश की धूलि’, ‘लाइफर’ और ‘तेपान्तरी’। कहने को ये अलग-अलग उपन्यासिकाएँ हैं लेकिन समग्रता में ये ग्रामीण बंगाल की ताजा तस्वीर बनाती हैं। वैसे ग्रामीण बंगाल भारत के किसी ग्रामीण समाज से अलग नहीं दिखता। थोड़े-बहुत भौगोलिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद वह भारतीय ग्रामीण समाज जैसा ही लगता है। हिन्दीभाषी समाज की तो विशेष निकटता बंगाल से रही है।
समाज क्या सिर्फ़ मुख्यधारा—यानी खाते-पीते-अघाए लोगों का होता है? क्या लेखक सिर्फ़ इन्हीं के जीवन के इर्द-गिर्द ध्यान रखता रहेगा? प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी के सामने स्पष्ट रहा है कि मुख्यधारा समृद्ध है, मगर संख्या में छोटी है। समाज में बृहत्तर हिस्सा हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों का है। और, ऐसे लोग साहित्य की उपेक्षा के भी शिकार रहे हैं। इसीलिए वे समाज के सीमान्त पर बसे लोगों को अपनी संवेदना-सहानुभूति का केन्द्र बनाती हैं।
इसीलिए वे स्टेशन के फेरीवालों, आदिवासियों, छोटी जगहों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सपेरों, डायन करार दी गई स्त्रियों जैसे चरित्रों एवं छोटी-छोटी संख्या वाले समुदायों पर लिखती हैं। ख़ूब लिखती हैं और कलात्मक उत्कर्ष की परवाह किए बग़ैर लिखती हैं। “अब मुझमें साहित्य के शिल्पगत उत्कर्ष का कोई आग्रह नहीं रहा।” लेकिन नई विषय-वस्तु के सन्धान का उत्साह और साहस उनमें हमेशा बरक़रार रहा।
पूरे संकलन में यह साहस दीखता है। पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय वामपन्थी सरकार द्वारा बटाईदारों के पक्ष में चलाए गए ऑपरेशन वर्गा की असलियत वह बेहिचक सामने लाती हैं। वर्ग-संघर्ष के बारे में वे सवाल करती हैं—यह कैसा वर्ग-संघर्ष है जिसमें एक ही वर्ग के लोग एक-दूसरे के शत्रु बन रहे हैं? 'सीमान्त’ में वे कहती हैं—‘सती-साध्वी होना एक प्रकार का रोग है। एक बार पकड़ लेता है तो कभी छोड़ता नहीं।’ यह संकलन विरल लेखकीय साहस का प्रतिमान है।
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