Hindi Samiksha Aur Acharya Shukla
Author:
Namvar SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को निर्विवाद रूप से हिन्दी आलोचना का शिखर-व्यक्तित्व स्वीकार किया जाता है। जब हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को कसौटी पर कसने के प्रतिमान निर्मित हो रहे थे, तब आचार्य शुक्ल ने अपनी अद्भुत योग्यता से उन्हें एक सार्थक स्वरूप प्रदान किया। इसका महत्त्व ऐसे भी समझा जा सकता है कि आज तक रचनाओं, प्रवृत्तियों व रचनाकारों को लेकर होनेवाली बहुतेरी बहसों की पृष्ठभूमि आचार्य शुक्ल द्वारा रेखांकित सूत्रों से ही आकार लेती है।</p>
<p>‘हिन्दी समीक्षा और आचार्य शुक्ल’ पुस्तक में डॉ. नामवर सिंह द्वारा समय-समय पर लिखे गए लेख संकलित हैं। पुस्तक के सम्पादक ज्ञानेन्द्र कुमार सन्तोष के अनुसार, ‘निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल की वास्तविक प्रासंगिकता और उनकी सीमाओं का सम्यक् सन्तुलित और चरम बौद्धिक आलोचनात्मक अध्ययन पहली बार नामवर सिह ने ही किया है।’</p>
<p>एक तरह से यह पुस्तक हिन्दी के दो दिग्गज आलोचकों का ‘समेकित विमर्श’ भी है। संकलित लेख ऐतिहासिक महत्त्व के तो हैं ही, इनमें निहित दृष्टि परम्परा व समकालीनता के विश्लेषण में भी सहायक है। सम्पादक ज्ञानेन्द्र कुमार सन्तोष की भूमिका इन लेखों की प्रासंगिकता रेखांकित करते हुए नामवर सिंह के आलोचना-कर्म का मर्म भी उद्घाटित करती है।
ISBN: 9788126724529
Pages: 232
Avg Reading Time: 8 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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‘किस प्रकार की है यह भारतीयता’ कुछ चुने हुए भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित हैं। इन लेखों में लेखक क्षेत्रीय पवित्रता क़ायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका मानना है कि उपनिवेशविरोध की राजनीति से उपजी हुई अपनी संस्कृति की रक्षा अपनी भाषा में ही सृजन करने से सम्भव है। अनन्तमूर्ति ने अभिव्यक्ति के प्रगटीकरण के लिए अपनी मातृभाषा कन्नड़ का ही इस्तेमाल किया है। ज्ञान का आगार होने के नाते वह अंग्रेज़ी का समर्थन करते हैं, लेकिन उसके आक्रमणकारी तेवर का विरोध भी करते हैं।
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Parampara Ka Mulyankan
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Ramvilas Sharma
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Description:
प्रगतिशीलता के सन्दर्भ में परम्परा-बोध एक बुनियादी मूल्य है, फिर चाहे इसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रखा-परखा जाए अथवा समाज के। दूसरे शब्दों में बिना साहित्यिक परम्परा को समझे न तो प्रगतिशील आलोचना और साहित्य की रचना हो सकती है और न ही अपनी ऐतिहासिक परम्परा से अलग रहकर कोई बड़ा सामाजिक बदलाव सम्भव है। लेकिन परम्परा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसे उसका मूल्यांकन किए बिना नहीं अपनाया जा सकता।
यह पुस्तक परम्परा के इसी उपयोगी और सार्थक की तलाश का प्रतिफलन है।
सुविख्यात समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने जहाँ इसमें हिन्दी जाति के सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत की है, वहीं अपने-अपने युग में विशिष्ट भवभूति और तुलसी की लोकाभिमुख काव्य-चेतना का विस्तृत मूल्यांकन किया है। तुलसी के भक्तिकाव्य के सामाजिक मूल्यों का उद्घाटन करते हुए उनका कहना है कि दरिद्रता पर जितना अकेले तुलसीदास ने लिखा है, उतना हिन्दी के समस्त नए-पुराने कवियों ने मिलकर न लिखा होगा। भवभूति के सन्दर्भ में रामविलास जी का यह निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण है कि ‘यूनानी नाटककारों की देवसापेक्ष न्याय-व्यवस्था की जगह देवनिरपेक्ष न्याय-व्यवस्था का चित्रण शेक्सपियर से पहले भवभूति ने किया’ और रामायण-महाभारत के नायकों के विषय में यह कि ‘राम और कृष्ण दोनों श्याम वर्ण के पुरुष हैं’।
वस्तुतः इस कृति में, आधुनिक साहित्य के जनवादी मूल्यों के सन्दर्भ में, प्राचीन, मध्यकालीन और समकालीन भारतीय साहित्य में अभिव्यक्त संघर्षशील जनचेतना के उस विकासमान स्वरूप की पुष्टि हुई है जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता रहा है।
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