Devnagari Lipi Aur Hindi Sangharshon ki Etihasik Yatra
Author:
Ram niranjan ParimalenduPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 480
₹
600
Unavailable
संसार में सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल, सहज और सुगम होने के बावजूद देवनागरी लिपि सदियों से अपने अस्तित्व-संघर्ष में लीन रही है। भारत में मुग़ल और ब्रिटिश शासन के सुदीर्घ कालखंडों में विभिन्न दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक कारणों से उसे न्यायालय, शासन और प्रशासन में समुचित स्थान से वंचित होना पड़ा। राष्ट्रीय एकता के लिए यह लिपि का गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण करने की एकमात्र निर्विवाद अधिकारिणी है, जिसकी सार्वजनिक माँग 1882 से ही अक्सर उठती रही है। इस माँग की पूर्ति अद्यावधि नहीं हो सकी। प्रस्तुत ग्रन्थ में विद्वान लेखक डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु ने भारत के मध्य काल से ब्रिटिश काल तक देवनागरी लिपि के निरन्तर संघर्षों का खोजपूर्ण मौलिक विवेचन सर्वथा अज्ञात, अल्पज्ञात, विलुप्तप्राय प्राथमिक ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर किया है। यह विवेचन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राष्ट्रलिपि की अवधारणा को भी समाहित कर लेता है। यद्यपि हिन्दी भारत की राजभाषा है तथापि इसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सर्वाधिक संघर्ष करने पड़े। संघर्षों की यह लम्बी यात्रा आज भी जारी है।<br />भारत की खंडित आज़ादी के आरम्भिक पचास वर्षों में हिन्दी भाषा की दशा और दिशा का अति प्रामाणिक विश्लेषण, विवेचन और अनुशीलन भी इसकी प्रारम्भिक पूर्व पीठिका के साथ यहाँ किया गया है। यह ग्रन्थ देवनागरी लिपि और हिन्दी के संघर्षों की ऐतिहासिक यात्रा का दस्तावेज़ है—संग्रहणीय, पठनीय और मननीय भी।
ISBN: 9788183616386
Pages: 320
Avg Reading Time: 11 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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नामवर सिंह जीते-जी विशिष्ट शख़्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड' हो चुके थे। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रसंशा से लेकर ‘भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।
इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।
पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है जिसमेँ पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, ग़ालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।
बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं...सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैँ...सांस्कृतिक बहुलता का नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।’ यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।
Karyalayi hindi aur computer anuprayog
- Author Name:
Niranjan Sahay
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Faz Ki Shairy : Ek Juda Andaj Ka Jadu
- Author Name:
Chanchal Chauhan +1
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बीसवीं सदी के विश्व-कवियों में पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, ब्रेख़्त और महमूद दरवेश के साथ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और बांग्लादेश अर्थात् इस महाद्वीप के कवियों में रवीन्द्रनाथ टैगोर और इक़बाल के बाद फ़ैज़ को ही हम लोग याद करते हैं। फ़ैज़ आज़ादी, समाजवाद, सहज मानवीय ममता और गहरी प्रेमानुभूति के शायर के रूप में मशहूर रहे हैं। उनकी ग़ज़लें और नज़्में लोगों की स्मृतियों में बस गई हैं और उनकी ज़बान पर चढ़ी हुई हैं। फ़ैज़ की शायरी आम लोगों की मुसीबतों, संघर्षों और अटूट संकल्पों की ऐसी गाथा है जिसे उर्दू ही नहीं, हिन्दी के पाठक भी अपनी साहित्यिक विरासत का हिस्सा मानते हैं।
फ़ैज़ के क़लमकार और शायर के सम्पूर्ण रचनाकर्म पर हिन्दी में यह पहली आलोचनात्मक पुस्तक है। इस किताब में उनके समकालीन मुल्कराज आनन्द, सिब्ते हसन, सज्जाद ज़हीर, वज़ीर आगा के लेख तो हैं ही, उनके अलावा उर्दू के बड़े लेखकों में मुहम्मद हसन, शमीम हनफ़ी, अली मुहम्मद सिद्दीक़ी, जुबैर रिज़वी, शमीम फ़ैज़ी और अली अहमद फ़ातमी की आलोचनात्मक कृतियाँ इस पुस्तक में संकलित कर ली गई हैं। इस किताब की दूसरी बड़ी ख़ूबी यह है कि शमशेर बहादुर सिंह के बाद इसमें हिन्दी के अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाकारों ने जन्मशताब्दी वर्ष में फ़ैज़ पर पहली बार लिखा है। मसलन केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, असग़र वजाहत, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, मनमोहन, असद ज़ैदी, कृष्ण कल्पित, अरुण कमल, प्रणय कृष्ण, वैभव सिंह के लेखों के साथ तीनों सम्पादकों की अलग-अलग ढंग से लिखी आलोचनात्मक कृतियाँ इस किताब का विशेष आकर्षण हैं। दृश्य-श्रव्य कलाओं के मर्मज्ञ सुहैल हाशमी, इतिहासकार ज़हूर सिद्दीक़ी, युवा लेखिका अर्जुमंद आरा और पंजाबी के मशहूर लेखक सतिन्दर सिंह नूर के लेखों के कारण इस किताब में अनेक अनछुए प्रसंगों पर भी भरपूर चर्चा की गई है। इस पुस्तक को छह लेखकों-विद्धानों की टोली ने भरपूर मेहनत के साथ तैयार किया है। इनमें तीन सम्पादक हैं जिन्हें रेखा अवस्थी, जवरी मल्ल पारख और संजीव कुमार जैसे सहयोगी सम्पादकों के कठिन अध्यवसाय और परिश्रम की सहायता मिलती रही है। हिन्दी-उर्दू और पंजाबी भाषी लोग इस पुस्तक को अवश्य ही पसन्द करेंगे।
Hindi Aalochana Ka Vikas
- Author Name:
Madhuresh
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मधुरेश की प्रस्तुत पुस्तक ‘हिन्दी आलोचना का विकास’ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही आलोचना की मुख्य प्रवृत्तियों और आलोचकों के मूल्यांकन का प्रयास करती है। हिन्दी आलोचना में लोगों के अपने कुछ प्रिय आलोचक और युग रहे हैं।
मधुरेश वस्तुनिष्ठ और विश्वसनीय रूप में समूची हिन्दी आलोचना और आलोचकों का मूल्यांकन करते हैं। न उनका कोई प्रिय युग है, न ही आलोचक। वे सदैव सामाजिक विकास के सन्दर्भ में आलोचना को देखते-परखते हैं और कैसी भी चयनवादी दृष्टि से बचते हैं। हिन्दी में मार्क्सवादी और समकालीन आलोचना पर कदाचित् पहली बार यहाँ इतने सम्पूर्ण रूप में विचार हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी आलोचना और आलोचकों के लिए अनिवार्य और उपयोगी है।
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