Sahitya Ka Bhashik Chintan
Author:
Ravindranath ShrivastavaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
सर्जनात्मक समीक्षा पर यह एक अनूठी पुस्तक है। प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के लेखों के इस संकलन से आन्तरिक और पाठ-केन्द्रित आलोचना की एक मुकम्मल तस्वीर सामने आ गई है।</p>
<p>आलोचना स्वयं में एक अनुशासन है, जो अपनी सिद्धि के लिए एक निश्चित कार्य-प्रणाली का विकास करती है। व्यावहारिक आलोचना के इस सूत्र कथन को प्रो. श्रीवास्तव ने हिन्दी साहित्य को साक्षी बनाकर समीक्षा का संक्रियात्मक प्रारूप तैयार किया है।</p>
<p>कविता या किसी भी कृति को भाषा की ही एक विधा मानते हुए समीक्षा की नवीन और वैज्ञानिक पद्धति के उद्देश्य प्रो. श्रीवास्तव ने भाषावादी समीक्षा-चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में घटित करके दिखाए हैं कि कविता को शैली के रूप में देखना, नार्म से अलग हटी हुई भाषा के रूप में देखना, देखना कि शब्द ख़ुद क्या बोलते हैं, अधिक समीचीन और सार्थक दृष्टि है। अर्थात् पाठ को निकट से पढ़कर शिल्प और भाषा-कौशलों के विश्लेषण के माध्यम से कृति को आलोकित करना, समीक्षा का परम लक्ष्य है, क्योंकि कविता शब्द नहीं शाब्दिक होती है, वह भाषा के माध्यम द्वारा केवल व्यक्त नहीं होती, अपितु भाषा में ही अपना अस्तित्व पाती है।</p>
<p>रचना की स्वनिष्ठता या उसकी सत्ता की स्वायत्तता इस पुस्तक में मात्र सैद्धान्तिक स्तर पर विवेचित नहीं है और यही इसकी नव्यता है, विशेषता है। तुलसी, सूर, प्रेमचन्द, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि के पाठ में और इनके बहाने पुनर्जागरण काल, छायावादी युग, गद्य-भाषा आन्दोलन में साहित्यिक भाषा हिन्दी के बनते-बिगड़ते भाषायी समीकरणों पर इतनी आन्दोलित करनेवाली सामग्री कम ही मिलती है।</p>
<p>इस किताब में मार्क्सवादी आलोचना का भाषाकेन्द्रित दृष्टिकोण, नई कविता की सम्प्रेषण-युक्तियों में परिवर्तन की दिशाओं, भिन्न समयों में साहित्यिक हिन्दी की भाषा-संघटना में आए विघटनों और उनके कारणों पर भी विस्तृत चर्चा है। पाठ-केन्द्रित आलोचना के इतिहास और विचारों पर तो इस पुस्तक में विपुल सामग्री है ही।</p>
<p>आज की उत्तर-आधुनिक साहित्य समीक्षा में वि-संरचना का जो पक्ष अनजाने में कहीं छूट-सा गया है, वह इस पुस्तक में भरपूर मौजूद है। अतः आज की हिन्दी समीक्षा को भी यह पुस्तक बहुत कुछ देने की सामर्थ्य रखती है।
ISBN: 9788171198870
Pages: 327
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रो. नामवर सिंह हिन्दी का चेहरा हैं। उनमें हिन्दी समाज, साहित्य-परम्परा और सर्जना की संवेदना रूपायित होती है। वे न सीमित अर्थों में साहित्यकार हैं और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक थे। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज और राजनीति की जनपक्षधर शक्तियों को उन्होंने अपनी वैचारिकता, आलोचकीय प्रतिभा और लोकसंवेदी-तर्कप्रवण वक्तृता से निरन्तर मज़बूत किया। वे देश में समतावादी समाज का सपना सँजोये रखनेवाली सामाजिक शक्तियों के पक्ष में सामन्तवादी-पुनरुत्थानवादी शक्तियों और पूँजीवादी शक्तियों से निरन्तर मुठभेड़ जारी रखनेवाले वैचारिक योद्धा थे। उन्होंने जहाँ एक ओर धर्म, लोक, परम्परा और संस्कृति के मानवीय मूल्यों पर ज़ोर देनेवाली विरासत की सटीक व्याख्या की है, वहीं इनको उपकरण बनाकर सामाजिक भेदों को स्वीकृत करानेवाले बौद्धिक प्रयत्नों के ख़िलाफ़ हमलावर तेवर भी अपनाए। उन्होंने परम्परा और आधुनिकता के मूल्यांकन की प्रगतिशील परम्परा को आगे बढ़ाया।
प्रस्तुत संग्रह में नामवर जी के विगत दो दशकों में दिए गए अनेक व्याख्यानों एवं वाचिक टिप्पणियों के साथ दो आलेख शामिल हैं, जिनमें भूमंडलीकरण, फासीवाद, साम्प्रदायिकता भाषा और संस्कृति के ज्वलन्त सवालों पर नामवर जी के विचार हिन्दी समाज की जड़ता को तोड़ने के क्रम में हमारे सामने आते हैं।
Hindi Riti Sahitya
- Author Name:
Bhagirath Mishra
- Book Type:

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Description:
मध्यकालीन साहित्य के विश्रुत विद्वान डॉ. भगीरथ मिश्र ने इस छोटी-सी पुस्तक में हिन्दी-काव्य की एक अत्यन्त वेगवती धारा का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस काव्यधारा की पृष्ठभूमि के रूप में उन्होंने लोक-भाषा की परम्परा, रीति-साहित्य के विकास के कारणों और तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों पर विस्तार से विचार किया है। सामान्यतः इस काव्यधारा पर जो दोष लगाए जाते हैं, उन पर क्रमबद्ध रूप से विचार करते हुए निष्कर्ष रूप में कहा है कि ‘उस समय रीति साहित्य का बँधी-बँधाई परिपाटी पर विकास, रूढ़िवादिता नहीं वरन् अतिशय राजप्रशंसा से मुक्ति पाने और शुद्ध काव्य लिखने के उद्देश्य को पूरा करनेवाला है।’ और ‘हिन्दी-रीति साहित्य का जिन परिस्थितियों में विकास हुआ उनका पूरा प्रभाव आत्मसात् करके भी इस साहित्य की अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक देन है।’
लेखक का मानना है कि हमें ‘रीति-साहित्य’ को संकीर्णता से नहीं बल्कि साहित्यिक उदारता से देखना चाहिए जिससे केवल आम और अमरूद की उपयोगिता से प्रभावित लोगों के लिए बिहारी को फिर यह न कहना पड़े कि :
‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गँवई गाँव गुलाब।’
पृष्ठभूमि के उपरान्त डॉ. मिश्र ने ‘रीति’ के तात्पर्य, रीतिशास्त्र की परम्परा और उसके आधार को स्पष्ट करते हुए अलंकार सम्प्रदाय, रस सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय के इतिहास और सिद्धान्त पर भी विस्तार से विचार किया है। साथ ही, इन सम्प्रदायों के विभिन्न आचार्यों और उनके योगदान का समुचित मूल्यांकन किया है।
पुस्तक के अन्त में रीति-काव्य धारा के नौ प्रमुख कवियों का काव्य-चयन है। उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन के सन्दर्भ में इस काव्य को पढ़ना पाठकों के लिए रुचिकर अनुभव होगा। इस प्रकार सिद्धान्त और व्यवहार की समवेत प्रस्तुति के रूप में यह पुस्तक हिन्दी रीति-साहित्य का सांगोपांग इतिहास ही है, जो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, सन्दर्भ-ग्रन्थों के विस्तृत उल्लेख से विद्वानों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो गई है।
Kavya Ki Bhumika
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिन्दी के महान कवि तो हैं ही, वे बहुत बड़े निबन्ध लेखक भी हैं। उनके निबन्ध अपने भाष्य में सिर्फ़ पाठ के लिए आकर्षित नहीं करते, बल्कि अपने युग के साहित्य, समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास आदि को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि भी देते हैं; और इस बात का एक सशक्त उदाहरण है यह पुस्तक ‘काव्य की भूमिका’।
इस संग्रह में दिनकर के ग्यारह विचारोत्तेजक निबन्ध शामिल हैं। ‘रीतिकाल का नया मूल्यांकन’, ‘छायावाद की भूमिका’, ‘छायावादोत्तर काल’, ‘प्रयोगवाद’, ‘कोमलता से कठोरता की ओर’ नामक आरम्भिक निबन्धों में रीतिकाल से लेकर प्रयोगवाद तक की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है। ‘भविष्य की कविता’ निबन्ध में यह समझाने की चेष्टा की गई है कि वैज्ञानिक युग में कविता अपने किन गुणों पर जोर देकर अपना अस्तित्व कायम रख सकती है। ‘कविता ज्ञान है या आनन्द?’, ‘रूपकाव्य और विचारकाव्य’, ‘प्रेरणा का स्वरूप’, ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’, ‘कविता की परख’ निबन्ध युवाशक्ति के नाम कवि का सन्देश हैं।
कविता और काव्य-समीक्षा से सम्बन्धित दो-तीन विचार ऐसे हैं जो दिनकर के अन्य निबन्धों में दिख जाते हैं। पुनरावृत्ति का दोष सुधी पाठकों को पहली नज़र में भले ही खटकेगा, लेकिन वे इस तथ्य को भी रेखांकित करने से नहीं चूकेंगे कि यहाँ निबन्धों की केन्द्रीय चेतना में उनकी अपनी एक अलग अनिवार्यता और भूमिका है।
उच्चकोटि के साहित्य के विद्यार्थियों तथा काव्य-प्रेमियों के लिए कवि दिनकर की यह कृति एक ऐसी रोशनी की तरह है जिसमें बहुत कुछ अनदेखा देखा जा सकता है, बहुत कुछ अनसुलझा सुलझाया जा सकता है।
Ram Manohar Lohiya Aacharan Ki Bhasha
- Author Name:
Ram Kamal Rai
- Book Type:

- Description: डॉ. राममनोहर लोहिया जितने बड़े विचार- पुरुष थे, उतने ही बड़े आचारण-पुरुष; जितने बड़े संस्कृति-पुरुष थे, उतने ही बड़े विधि पुरुष थे; उतने ही बड़े सत्याग्रह-पुरुष। डा. लोहिया के लिए धर्म दीर्घकालिक राजनीति था, और राजनीति अल्पकालिक धर्म। लोहिया सिद्धान्त को साधारणीकृत कार्यक्रम मानते थे और कार्यक्रम को ठोस व्यवहार-गत सिद्धान्त। वे कथनी और करनी के बीच किसी भेद को स्वीकार नहीं करते थे। लोहिया विश्व बन्धुत्व में विश्वास करते थे और विश्वयारी को गर्हित समझते थे। आचरण उनके लिए विचार की कसौटी था । लोहिया वैचारिकता के धरातल पर बहुत परिपक्व और स्पष्ट दृष्टि वाले नेता थे। उन्होंने समाजवाद के अपने चिन्तन को भारतीय परिस्थितियों और भारतीय संस्कृति-चेतना से जोड़कर महात्मा गाँधी के विचारों और आचरण से सम्बद्ध करके विकसित किया था। आचरण और विचार की एकता की परम्परा भारतीय समाज में अधिक से अधिक जगह बना सके, यही इस पुस्तक का उद्देश्य है।
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