50 Greatest Speeches of the World
Author:
Ed. George HarrisPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
EnglishCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 480
₹
600
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Awating description for this book
ISBN: 9788184303018
Pages: 352
Avg Reading Time: 12 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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संसार में सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल, सहज और सुगम होने के बावजूद देवनागरी लिपि सदियों से अपने अस्तित्व-संघर्ष में लीन रही है। भारत में मुग़ल और ब्रिटिश शासन के सुदीर्घ कालखंडों में विभिन्न दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक कारणों से उसे न्यायालय, शासन और प्रशासन में समुचित स्थान से वंचित होना पड़ा। राष्ट्रीय एकता के लिए यह लिपि का गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण करने की एकमात्र निर्विवाद अधिकारिणी है, जिसकी सार्वजनिक माँग 1882 से ही अक्सर उठती रही है। इस माँग की पूर्ति अद्यावधि नहीं हो सकी। प्रस्तुत ग्रन्थ में विद्वान लेखक डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु ने भारत के मध्य काल से ब्रिटिश काल तक देवनागरी लिपि के निरन्तर संघर्षों का खोजपूर्ण मौलिक विवेचन सर्वथा अज्ञात, अल्पज्ञात, विलुप्तप्राय प्राथमिक ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर किया है। यह विवेचन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राष्ट्रलिपि की अवधारणा को भी समाहित कर लेता है। यद्यपि हिन्दी भारत की राजभाषा है तथापि इसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सर्वाधिक संघर्ष करने पड़े। संघर्षों की यह लम्बी यात्रा आज भी जारी है।
भारत की खंडित आज़ादी के आरम्भिक पचास वर्षों में हिन्दी भाषा की दशा और दिशा का अति प्रामाणिक विश्लेषण, विवेचन और अनुशीलन भी इसकी प्रारम्भिक पूर्व पीठिका के साथ यहाँ किया गया है। यह ग्रन्थ देवनागरी लिपि और हिन्दी के संघर्षों की ऐतिहासिक यात्रा का दस्तावेज़ है—संग्रहणीय, पठनीय और मननीय भी।
Acharya Hazariprasad Dwivedi Ke Upanyas
- Author Name:
Pallavi Srivastva
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत कृति में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों और उनमें वर्णित उदात्त पात्रों की जीवन-दृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में उपन्यासों का सामान्य परिचय स्त्री-चरित्र शिल्प और पुरुष-चरित्र शिल्प के विभिन्न पक्षों को समाहित करते हुए उनकी विशेषताओं को उदघाटित करने का प्रयास करने के साथ चरित्र-शिल्प की दृष्टि से द्विवेदी जी का महत्त्व दर्शाया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा ने अतीतकालीन चेतना प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़कर आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है। उनकी विपुल रचना साहित्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। प्रस्तुत पुस्तक शोधार्थियों तथा पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी।
Surya Pranam
- Author Name:
Bimal Dey
- Book Type:

- Description: र्य प्रणाम’ का स्थान-काल, पात्र तथा घटनाएँ सभी वास्तविक हैं। मैं पर्यटक हूँ वास्तविक घटनाओं का उल्लेख करना ही मेरा धर्म है। यथार्थ के वर्णन में एकरसता आ जाती है। मैं एक पथिक हूँ अपनी यात्राओं के दौरान जो भी मैं देखता हूँ मुझे जो अनुभव होता है, उसी को मैं अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ। मैंने अपनी यात्राओं के दौरान बहुत से मन्दिर, मठ और पूजास्थल देखे हैं, बहुत से तीर्थों में जाकर शीश नवाया है। हिमालय के बहुतेरे तीर्थस्थलों में मैंने देव-स्पर्श पाया, हिमालय की पुण्यभूमि में ही पुण्यात्माओं का आविर्भाव सम्भव है। एंडीज की यात्रा ने मुझे तपस्या की अन्तिम सोपान पर पहुँच दिया था। एंडीज तथा मध्य व दक्षिणी अमरीका की प्राचीन सभ्यता में ज्यों सूर्य को मूल देवता का स्थान प्राप्त था, त्यों ही जापान का मूल देवता भी सूर्य है। जापान के सम्राट को सूर्य का प्रतिनिधि मानते हैं, जापानी पताका का प्रतीक चिह्न भी सूर्य है। सूर्य का प्रभाव जापानियों के चरित्र में भी दिखाई देता है। सूर्य शक्ति और ओज का प्रतीक है। ‘सूर्य प्रणाम’ ग्रन्थ सूर्य-देवता के प्रति मेरा अर्घ्य है। सूर्य को देवता माननेवाले जापान और एंडीज में मैंने जो कुछ देखा, सुना और जाना, उसी अनुभव को मैं इस लेखन के ज़रिए अपने पाठकों तक पहुँचा रहा हूँ। —इसी पुस्तक की भूमिका
Deshaj adhunikta
- Author Name:
Anupam Anand
- Book Type:

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यहापि आधुनिक मूल्यों के प्रति हिन्दी साहित्य में पाई जानेवाली तीव्र चेतना पाश्चात्य प्रभावों से अधिक जुड़ी प्रतीत होती है, परन्तु क्या इन मूल्यों की जड़े अपने पारम्परिक साहित्य में नहीं थीं? क्या आदिकाल से प्रगतिवाद के पूर्व तक का सम्पूर्ण साहित्य आधुनिकता के चेतना से मुक्त था? क्या भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन से परे सामाजिक चेतना का अभाव था? इन सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अत्यन्त गहराई से अपनी देशज बोलियों में रचे गए साहित्य का सूक्ष्म अवलोकन करना होगा। संवेदनात्मक स्तर पर इस साहित्य के अवलोकन के उपरान्त यहाँ प्रत्येक कवि व लेखक की रचना में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आधुनिकता अवश्य पाई जाएगी ।
क्या तुलसी के राम साम्राज्यवाद विस्तार के लिए संघर्षरत रहते हैं? नहीं, तुलसी के राम बुराई पर अच्छाई को स्थापित करने के लिए संघर्षशील रहते हैं। इस रूप में यह संघर्ष आधुनिकता का सन्दर्भ है।
Kahani Ki Arthanveshi Alochana
- Author Name:
Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'
- Book Type:

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हिन्दी कथालोचना के लगभग सौ वर्षों के इतिहास में यह आलोचनाकृति एक अन्यतम शिखर उपलब्धि है। यह सुपरिचित कहानियों की दुनिया के अब तक कराए गए प्रत्यक्ष से सर्वथा विलग उसकी अन्दरूनी छिपी दुनिया को पहली बार ‘रिवील’ करती है।
इस कृति से कहानी की आलोचना की एक समीचीन नयी सरणि आविष्कृत और प्रतिष्ठित हुई है।
इस पुस्तक में पहली बार ‘कफन’ में आधुनिकता बनाम उत्तर-आधुनिकता, कर्म-संस्कृति बनाम उपभोक्ता-संस्कृति, ‘पूस की रात’ में प्रकृति बनाम संस्कृति और ‘वर्ग-चेतना’, की विमुखता बनाम सजगता, ‘मंत्र-2’ में बाहरी बनाम आन्तरिक सर्प, ‘ईदगाह’ में मूर्त बनाम अमूर्त ईदगाह, ‘वापसी’ में कालपरक बनाम स्थलपरक, विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक वापसी, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड’ में पशु साँड बनाम हेस्टिंग्स रूपी साँड, ‘और अन्त में प्रार्थना’ में हैजा का संक्रमण बनाम भ्रष्टाचार का संक्रमण, ‘रुको इंतज़ार हुसैन’ में इंतजार हुसैन बनाम जवाहरलाल तथा ‘कब तक’ में परिवार से देश तक में यथास्थितीकरण से मुक्ति की छटपटाहट का यहाँ पहली बार सर्जनात्मक उद्घाटन किया गया है।
इन सबको जानने, समझने हेतु सभी पाठकों के लिए यह कृति पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है।
Pant, Prasad Aur Maithilisharan
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
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यह पुस्तक दिनकर की महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक कृतियों में से एक है। इसमें हिन्दी के तीन प्रसिद्ध कवियों पर स्वतंत्र रूप से विशद विवेचन किया गया है। इसमें संगृहीत तीन अलग-अलग निबन्धों में पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त का जो अनदेखा-अनछुआ आकलन है, उससे आधुनिक युग के हिन्दी साहित्य में उनके उस योगदान को रेखांकित किया जा सकता है, जो आज भी अपने चिन्तन और काव्य-वैशिष्ट्य में समीचीन है।
पुस्तक में मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं का अध्ययन इस दृष्टि से किया गया है कि उन्नीसवीं सदी में आरम्भ होनेवाले हिन्दू जागरण अथवा भारतीय पुनरुत्थान की अभिव्यक्ति उनमें कैसे और किस गहराई तक हुई है। वहीं दिनकर मानते हैं कि पंत साहित्य में ‘पल्लव’, ‘वीणा’, ‘गुंजन’ और ‘ग्रन्थि’ को जो प्रसिद्धि मिली, वह बाद की पुस्तकों को नहीं मिली। इसलिए उन्होंने इन पुस्तकों को छोड़ दिया है और उनके इस निबन्ध का मुख्य ध्येय इस बात का अनुसन्धान है कि गुंजन के बाद से लेकर अब तक पंत जी क्या कार्य करते रहे हैं। दिनकर रेखांकित करते हैं कि पंत जी का गुंजनोत्तर साहित्य भी काफ़ी सुन्दर, सुगम्भीर और विशाल है। इसलिए अपने इस निबन्ध के ज़रिए उन्होंने गुंजनोत्तर पंत-साहित्य की एक छोटी सी पीठिका तैयार की है, जो बेहद प्रभावशाली है। प्रसाद जी पर जो निबन्ध है, उसमें केवल ‘कामायनी’ का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। दिनकर द्वारा ‘कामायनी’ के इस सुगम्भीर अध्ययन में अध्येता के विचारों को ऊँचे धरातल पर विचरण करने का अवसर प्राप्त होता है, जैसा कि उनका प्रयास भी है कि इस काव्य के अध्ययन-क्षितिज को विस्तृत बनाया जाए।
निश्चित ही यह पुस्तक पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त के काव्य-परिदृश्य को लेकर मूल्य-निर्णय का जो सृजनात्मक पक्ष पेश करती है, वह शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए उपयोगी तो है ही, विरल भी है।
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