Uttar Pradesh Ka Swatantrata Sangram : Varanasi
Author:
Kumar NirmalenduPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Unavailable
वाराणसी जनपद शुरू से ही आंदोलनों की पहली पंक्ति में रहता आया है। विद्या और नवचेतना का केंद्र होने के कारण यह नगर शुरू से ही देश के बुद्धिजीवियों का नेतृत्व करता रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भी उसने यह चुनौती स्वीकार की और इस नगर ने कई महत्त्वपूर्ण नेता और कार्यकर्ता स्वतंत्रता आंदोलन को दिए। गांधी जी का अहिंसक आंदोलन हो या क्रांतिकारियों का हिंसक आंदोलन सभी जगह काशी के कार्यकर्ताओं का वर्चस्व था।</p>
<p>ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला मोहभंग काशी में ही उजागर हुआ जब काशिराज महाराज चेतसिंह ने ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की जोर-जबरदस्ती के सामने नतमस्तक होने से इनकार कर दिया। इसी कड़ी में अठारह वर्ष बाद काशी राज के दीवान बाबू जगतसिंह ने अवध के निष्कासित नवाब वजीर अली का समर्थन किया और उन्हें कालापानी की सजा भोगनी पड़ी।</p>
<p>हिंदी आंदोलन, स्वदेशी की चेतना और देश का धन विदेश चले जाने की बेचैनी, भारतेंदु हरिश्चंद्र के चिंतन की मूल पीठिका है। इस लड़ाई में वे आधुनिक साधनों से लड़ने के लिए कटिबद्ध हुए। उनका मन और भाषाबोध मध्ययुगीन था, लेकिन चिंतन आधुनिक था। वे उस समय की भारतीय नवचेतना के प्रतीक थे जो एक नई शताब्दी में प्रवेश कर रही थी।</p>
<p>वर्तमान पुस्तक काशी और वाराणसी को एक नए दृष्टिबोध के साथ समझने का एक प्रयास है।
ISBN: 9789394902572
Pages: 272
Avg Reading Time: 9 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Rafiq Zakaria +1
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- Description: भारत के प्रथम गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल पर उनके जीवन के अन्तिम वर्षों में और उनकी मृत्यु के बाद तो और भी ज़्यादा यह आरोप चस्पाँ होता गया है कि उनकी सोच में मुस्लिम-विरोध का पुट मौजूद था। इस पुस्तक में देश के जाने-माने बौद्धिक डॉ. रफ़ीक़ ज़करिया ने बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के इस आरोप की असलियत की जाँच-पड़ताल की है और इसकी तह तक गए हैं। सरदार पटेल के तमाम बयानात, उनके राजनीतिक जीवन की विविध घटनाओं और विभिन्न दस्तावेज़ों का सहारा लेते हुए विद्वान लेखक ने यहाँ उनकी सोच और व्यवहार का खुलासा किया है। इस खोजबीन में उन्होंने यह पाया है कि देश-विभाजन के दौरान हिन्दू शरणार्थियों की करुण अवस्था देखकर पटेल में कुछ हिन्दू-समर्थक रुझानात भले ही आ गए हों पर ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता, जिससे यह पता चले कि उनके भीतर भारतीय मुसलमानों के विरोध में खड़े होने की कोई प्रवृत्ति थी। महात्मा गांधी के प्रारम्भिक सहकर्मी के रूप में सरदार पटेल ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के जैसे शानदार उदाहरण गुजरात में प्रस्तुत किए थे, उन्हें अन्त तक बनाए रखने की प्रबल भावना उनमें बार-बार ज़ाहिर होती रही। मोहम्मद अली जिन्ना और ‘मुस्लिम लीग’ का कड़ा विरोध करने का उनका रवैया उनके किसी मुस्लिम विरोधी रुझान को व्यक्त करने के बजाय उनकी इस खीझ को व्यक्त करता है कि लाख कोशिशों के बावजूद भारत की सामुदायिक एकता को वे बचा नहीं पा रहे हैं। कूटनीतिक व्यवहार की लगभग अनुपस्थित और खरा बोलने की आदतवाले इस भारतीय राष्ट्र-निर्माता की यह कमज़ोरी भी डॉ. ज़करिया चिन्हित करते हैं कि ‘मुस्लिम लीग’ के प्रति अपने विरोध की धार उतनी साफ़ न रख पाने के चलते कई बार उन्हें ग़लत समझ लिए जाने की पूरी गुंजाइश रह जाती थी। निस्सन्देह, सरदार वल्लभभाई पटेल के विषय में व्याप्त कई सारी ग़लतफ़हमियाँ इस पुस्तक से काफ़ी हद तक दूर हो जाएँगी।
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