Sur-Sansar : Sudhir-Sanjay samvad
Author:
Sudhir ChandraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
संगीत पर, शास्त्रीय संगीत पर हिन्दी में बहुत कम सामग्री प्रकाशित है : उसकी आलोचना और रसिकता की कोई व्यवस्थित परम्परा भी नहीं बन सकी। शास्त्रीय संगीत के रसिक सम्प्रदाय में अनेक विधाओं के लोग भी शामिल रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं इतिहासकार सुधीर चन्द्र जिनकी संगीत की समझ, संवेदना और व्याख्या को कई लोग जानते रहे हैं। उनके अनुभवों, स्मृतियों, समझ आदि को सहेजते हुए यह सुर-संसार प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।
—अशोक वाजपेयी
ISBN: 9789389598353
Pages: 254
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह प्रवृत्ति महानगरीय कविता की मृत्युग्रस्त प्रवृत्ति पर चोट है। मृत्यु के प्रति एक सचेत एहसास के कारण जीवन के प्रति इसकी निष्ठा खोखली नहीं है, उसमें एक दृढ़ता है। इस तरह हमेशा अच्छी ज़िन्दगी पर मृत्यु का अंकुश तना होता है। इसलिए नेमाड़े जी की कविता मृत्यु के एहसास से ध्वनित विनाश तत्त्व को अनदेखा कर कोरे आशावाद की तरफ़ नहीं झुकती। वह महानगरीय कविता की तरह मृत्यु की प्रभुसत्ता को तटस्थता से स्वीकार नहीं करती, बल्कि इस प्रभुसत्ता को चुनौती देनेवाले जीवनदायी प्रेरणाओं के सन्दर्भ म़जबूती से खड़ी करती है। इस विनाश तत्त्व को मात देता जीवन के प्रति अदम्य उत्साह और उससे स्वभावत: प्राप्त जुझारूपन नेमाड़े जी का स्थायी भाव है। उनकी इसी विलक्षण जीवन-दृष्टि का दर्शन उनकी कविताओं में भी होता है।
—प्रकाश देशपांडे केजकर
Jadoon Ki Aakhiri Pakar Tak
- Author Name:
Ravindra Bharti
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रवीन्द्र भारती का कवि गाँव का कवि है। ठेठ देहाती। देहात के जीवन, उसके वृक्ष, वहाँ के चरवाहे, कुएँ, नदी का किनारा, किनारे पर जलती चिता से उठता धुआँ, लू से भरी पछेया हवा, सूखे हुए गाछ के पत्ते, जलती हवा में टनटनाते पत्ते, यानी पूरा देहाती वातावरण—इन कविताओं में साँस लेता और धड़कता प्रतीत होता है।
रवीन्द्र की ये कविताएँ औसत भारतीय जनमानस के उन उपेक्षित धूल-धूसरित खंडित व्यक्तित्व-बिम्बों को बिना किसी कालगत कलात्मक व पारिभाषिक जॉगर्नस में पहचान करवाने की ईमानदार कोशिश है। रवीन्द्र ने अपनी विषय-वस्तु के साथ एक अत्यन्त आत्मीय सम्बद्धता का अहसास कराते हुए भी पूरी सतर्कता के साथ उन अभिव्यक्ति-रूढ़ियों से बचने की कोशिश की है, जिनकी उपस्थिति का मुख्य प्रभाव आज कविता द्वारा उपस्थित मनुष्य की आदिम और ऐतिहासिक भावनाओं, आकांक्षाओं और हर्ष-विवाद को एक विशिष्ट कलात्मक मुद्रा में परिणत कर उनके वस्तुनिष्ठ द्वन्द्व की तपिश को कुन्द कर देता है।
रवीन्द्र भारती ग्रामीण जीवन की प्रशंसा नहीं करते, उसका उपहास भी नहीं करते, सहानुभूति भी नहीं दिखाते, बल्कि उसे अपनी संवेदना का अंग बनाते हैं। यानी, ये कविताएँ निजता, संलग्नता की सहज उपज हैं। कवि अपनी अभिव्यक्ति के प्रति ईमानदार है और उसके माध्यम से वह भाषा को नई ऊर्जा प्रदान करता है; कवि की हृदयस्पर्शी और अन्तरंग कविताओं में ‘गुल्लू’, ‘माँ का क़िस्सा’, ‘स्मृति-1’, ‘स्मृति-2’, ‘सूर्य की ज्योति’, ‘पेड़’, ‘रात का क़िस्सा’, पिछली बार जैसी एक से एक कविता जड़ों की आख़िरी पकड़ तक में संगृहीत हैं।
ये कविताएँ बार-बार पढ़ने के लिए विवश करती हैं। संक्षेप में कहना हो, तो कहेंगे कि रवीन्द्र भारती के कविता-संसार से गुज़रना अभूतपूर्व अनुभव से गुज़रना है।
Pratinidhi Shairy : Akbar Allahabadi
- Author Name:
Akbar Allahabadi
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1851 की जंगे–आज़ादी में हिन्दुस्तानियों की हार के बाद उर्दू अदब में शुरू होनेवाले रेनासाँ में ‘अकबर’ इलाहाबादी का नाम सफ़े–अव्वल के शायरों में गिना जाता है। धर्म पर आधारित इस रेनासाँ की सारी विशेषताएँ ‘अकबर’ के यहाँ पूरी स्पष्टता के साथ देखी जा सकती हैं।
‘अकबर’ के कलाम की एक विशेषता और भी है। उन्होंने अपनी शायरी की शुरुआत संजीदा रवायती शायरी के साथ की थी। वही गुलो–बुलबुल, वही साग़ रो–मीना, वही शीरीं–फ़रहाद, वही शमा और परवाना रवायती शायरी के सारे प्रतीक ‘अकबर’ की शुरुआती शायरी में नज़र आते हैं। लेकिन अकबर इसी रवायत पर क़ायम रहे होते तो तय है कि वे मामूली दर्जे के सैकड़ों शायरों में बस एक होते।
लेकिन ख़ुशनसीबी कि ऐसा नहीं हुआ। जल्द ही अकबर ने अपनी एक अलग राह बना ली और वे हास्य–व्यंग्य के पहले प्रमुख शायर के रूप में जल्वागर हुए। यूँ तो जाफ़र, मीर, सौदा, ग़ालिब और दूसरे शायरों के यहाँ हास्य और व्यंग्य की सुन्दर छटाएँ देखने को मिलती हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी बाक़ायदा हास्य–व्यंग्य का शायर नहीं कहा जा सकता। ये ‘अकबर’ थे जिन्होंने उर्दू शायरी में अपनी बात कहने के लिए हास्य–व्यंग्य का सहारा लिया और एक ऐसी नई रवायत की बुनियाद डाली जो आज तक फल–फूल रही है।
विचारधारा के स्तर पर देखें तो पश्चिमी ज्ञान–विज्ञान और पश्चिमी सभ्यता का जितना भारी विरोध ‘अकबर’ के यहाँ दिखाई देता है, उतना किसी और शायर के यहाँ नहीं दिखाई देता। इसी तरह ‘अकबर’ धार्मिक और सामाजिक सुधार के भी विरोधी थे। बदलते हुए हालात में ‘अकबर’ की शिकस्त लाज़मी थी और कहीं हास्य के साथ और कहीं दु:ख के साथ उन्होंने अपनी इस शिकस्त का इज़हार भी किया है। लेकिन इस नकारात्मक पहलू के अन्दर जो सकारात्मक तत्त्व मौजूद हैं, सावधानी के साथ उनकी निशानदेही किए बिना ‘अकबर’ के साथ इंसाफ़ करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
Prapanchpanchshati
- Author Name:
Moolchandra Pathak
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- Description: प्रपंचपंचशती की परिकल्पना एवं रचना एक मुक्तक काव्य के रूप में की गई है। पाँच सौ पद्यों के विस्तार में रचित इस काव्य में प्रपंच रूप जगत् तथा उसके अंशभूत मानव समाज, विशेष रूप से भारतीय समाज की विविध सामयिक प्रवृत्तियों एवं सामान्य जनों के मनोभावों व विचारों का सार रूप में दिग्दर्शन व विवेचन किया गया है। काव्य में जिन विषयों का विचार किया गया है, वे हैं नीति, लोक, प्रकृति, नारी, राजनीति, शिक्षा, वाक्, धन, धर्म, जीवन व मृत्यु, काल आदि। मुक्तक काव्य होने के नाते इसके पद्यों में किसी भी विषय का सांगोपांग तथा शास्त्रीयता से पूर्ण विस्तृत विवेचन नहीं किया गया है। एक ही विषय को लेकर विभिन्न अवसरों पर रचित सभी पद्यों को एक ही विषयसूचक शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। काव्य के नामकरण में प्रपंच शब्द का प्रयोग इसके शास्त्रीय अभिप्राय को लेकर नहीं, अपितु इसके लोक प्रचलित अर्थ को ही लेकर किया गया है। इसमें कहीं सामान्य रूप से वर्णनात्मक, कहीं व्याख्यात्मक तो कहीं व्यंग्यात्मक शैली का आश्रय लिया गया है। जिन विषयों व भावों को इसमें प्रकट किया गया है, वे लेखक की अपनी विचारणा, लोकदृष्टि व जीवनदृष्टि के सूचक हैं।
Pratinidhi Kavitayen : Manglesh Dabral
- Author Name:
Mangalesh Dabral
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आलोकधन्वा कहते हैं कि ‘मंगलेश फूल की तरह नाज़ुक और पवित्र हैं।’ निश्चय ही स्वभाव की सचाई, कोमलता, संजीदगी, निस्पृहता और युयुत्सा उन्हें अपनी जड़ों से हासिल हुई है, पर इन मूल्यों को उन्होंने अपनी प्रतिश्रुति से अक्षुण्ण रखा है।
मंगलेश डबराल की काव्यानुभूति की बनावट में उनके स्वभाव की केन्द्रीय भूमिका है। उनके अन्दाज़े-बयाँ में संकोच, मर्यादा और करुणा की एक लर्ज़िश है। एक आक्रामक, वाचाल और लालची समय में उन्होंने सफलता नहीं, सार्थकता को स्पृहणीय माना है और जब उनका मन्तव्य यह हो कि मनुष्य होना सबसे बड़ी सार्थकता है, तो ऐसा नहीं कि यह कोई आसान मकसद है, बल्कि सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि यह आसानी कितनी दुश्वार है।
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