Patthar Ki Bench
Author:
Chandrakant DevtalePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Available
चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ किसी साँचे या कार्यक्रम में ढली नहीं हैं बल्कि वे दूसरों के दिए गए और वक़्त-ज़रूरत स्वयं अपने भी काव्य-एजेंडा को तोड़ती हैं। चूँकि चन्द्रकान्त ने कविताएँ लिखना उस समय शुरू किया था जब प्रतिबद्ध होने के लिए किसी कार्ड या संघ की ज़रूरत नहीं हुआ करती थी, इसलिए वे भारतीय समाज तथा जनता से जन्मना तथा स्वभावत: जुड़े हुए हैं। उनकी कविता की जड़ें बेहद निस्संकोच रूप से हमारे गाँव-खेड़े, क़स्बे और निम्न-मध्यवर्ग में हैं और वहीं से जीने और लड़ने की प्रेरणा प्राप्त करती है। और वह जीवन इतना वैविध्यपूर्ण और स्मृतिबहुल है कि कविता के लिए वह कभी कम नहीं पड़ता। चन्द्रकान्त देवताले की मौलिक प्रतिबद्धता इसीलिए हिन्दी के अवसरवादी गिरोहों और प्रमाणपत्र-उद्योग को और हास्यास्पद बना देती है। दरअसल चन्द्रकान्त जैसे कवि अपने सृजनात्मक शक्ति-स्रोतों के आगे इतने विवश रहते हैं कि उन्हें अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने के अलावा कुछ भी और परेशान नहीं करता।
एक वजह यह भी है कि चन्द्रकान्त देवताले ने मानव-जीवन और अस्तित्व को कभी भी एक-आयामीय नहीं समझा है, इसलिए उनकी इन कविताओं में, और पिछली कविताओं में भी, जहाँ भारतीय समाज और राजनीति की तमाम विडम्बनाओं और कुरूपताओं के विरुद्ध एक खुला ग़ुस्सा है, वहीं परिवार, मित्रों, कामगारों, बच्चों और चीज़ों की आत्मीय उपस्थिति भी है। इनके साथ-साथ चन्द्रकान्त ने अपना एक निहायत व्यक्तिगत जीवन जीने और मानव-अस्तित्व की कुछ चुनौतियों पर चिंतन करने के अपने एकान्त अधिकार को बचाए रखा है और इसीलिए इन कविताओं में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के कई ऐसे हवाले और आयाम मिलेंगे जो हिन्दी कविता में दुर्लभ हैं। जिस ‘प्रेम’ या ‘ऐन्द्रिकता' को एक खोज की तरह कविता में वापस लाने के दावे कहीं-कहीं किए जा रहे हैं, वह चन्द्रकान्त देवताले की पिछले तीन दशकों की रचनाधर्मिता में एक प्रमुख सरोकार तथा लक्षण रहा है और यदि अन्तिम परिवर्तन मृत्यु है तो उस पर भी चन्द्रकान्त देवताले ने बिना रुग्ण हुए कुछ अद्वितीय कविताएँ लिखी हैं।
काव्य-भाषा और शिल्प पर भी जाएँ तो चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ एक अत्यन्त सुखद विकास का प्रमाण हैं। अपनी अन्तरंग रचनाओं में कवि की भाषा अब अधिक से अधिक पारदर्शी हुई है और उसमें साठ और सत्तर के दशक की सघनता और गठीलापन समय और अनुभव के प्रवाह से मँजकर एक विरल संगीतात्मकता तक पहुँचे हैं। चन्द्रकान्त देवताले अपनी समष्टिपरक कविताओं में हमेशा सीधे सम्बोधन की भाषा के क़ायल रहे हैं और वैसी रचनाओं में उनके शब्द और मारक तथा लक्ष्यवेधी हुए हैं। उनके कुछ बिम्ब और कूटशब्द जैसे पत्थर, चट्टान, चाकू, समुद्र आदि इन कविताओं में भी लौटे हैं लेकिन ज़्यादा निखर कर। ‘लैब्रेडोर’ कविता शृंखला में चन्द्रकान्त देवताले ने सजगता और संघर्ष का एक सर्वथा नया तथा सार्वजनिक माध्यम चुना है जबकि ‘गाँव तो भूल नहीं सकता था मेरी हथेली पर’ तथा ‘नागझिरी’ जैसी कविताओं में वे अपने अनुभव और पाठक के बीच किसी भी अलंकरण को नहीं आने देते। ये लम्बी कविताएँ हैं और स्मरण दिलाती हैं कि ‘भूखंड तप रहा है’ जैसी रचना का यह सृजेता हिन्दी के उन बहुत कम कवियों में से है जिनसे लम्बी कविता भी सध पाती है।
हिन्दी कविता के इन दिनों में जब दुर्भाग्यवश अधिकांश प्रतिभाशाली युवा और अधेड़ कवि भी बहुत जल्दी अपनी सम्भावनाओं के सीमान्त पर पहुँच रहे लगते हैं, चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ अपने प्रतिबद्ध ग़ुस्से की बार-बार धधकती उपस्थिति, गहरी मानवीयता और मर्मस्पर्शिता तथा निजी रिश्तों, संकटों, चिन्ताओं की स्वीकारोक्तियों की सदानीरा वैविध्यपूर्ण जटिलता से उन पर लौटने को बाध्य करती हैं। ‘आग’ चन्द्रकान्त के प्रिय बिम्बों में से है और उनकी कविता ठीक आग की तरह हिन्दी की अधिकांश रही कविता और आलोचना को राख कर देती है और अपनी जाज्वल्यमान उपस्थिति स्वीकारने पर बाध्य करती है। जिन कवियों को समझे बिना बीसवीं सदी की हिन्दी कविता का कोई भी आकलन बौद्धिक दारिद्र्य से विकलांग माना जाएगा, चन्द्रकान्त देवताले उनमें से एक रोमांचक, अमिट हस्ताक्षर हैं।
ISBN: 9788183619851
Pages: 115
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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वे प्रकृति में जैसे रच-बस जाती हैं। उनका संस्कृति-बोध गहन है और मानवीय संवेदना का आवेग प्रखर। ‘एक मुट्ठी माटी’ शीर्षक कविता में जैसे यह सब एक बिन्दु पर आकर जुड़ जाता है—‘एक मुट्ठी माटी दे न माँ रे/मेरा आँचल भरकर/मीठापन माटी का सोने से शुद्ध/देखेगा यह जग जुड़कर/थोड़ा-सा धन-धान देना माँ/लक्ष्मी को रखूँगी पकड़/नई फसल से नवान्न करूँगी/धान-डंठल सर पर रख।’
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Fanah Buland Shehri Shoaib Shahid
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- Description: फ़ना बुलन्दशहरी का मूल नाम हनीफ़ मोहम्मद था। आपका बुनियादी ताल्लुक़ उत्तर प्रदेश सूबे के बुलन्दशहर से था। आपकी पैदाइश का वक़्त मुस्तनद तौर बता पाना मुमकिन है, न ही बुलन्दशहर में आपकी पैदाइश की जगह और शिजरा। इसकी वाहिद वजह यही है कि फ़ना साहब एक सूफ़ी शायर थे। और सूफ़ी शायर अपना कलाम सिर्फ़ अपने महबूब के लिए लिखते हैं और ख़ुद को दुनिया से छुपा कर गुमनाम कर लेना उनका तरीक़ा रहा है। आपकी पैदाइश के कुछ बरस बाद ही आप हिजरत करके पाकिस्तान चले गए। शायरी का शौक़ बचपन से था। उस दौर के मशहूर शायर क़मर जलालवी के शागिर्द हो गए। आपका सूफ़ियाना ताल्लुक़ मोहम्मद शरीफ़ मियाँ क़ादरी नक़्शबंदी पीलीभीत से था और आपका आख़िरी वक़्त गुजराँवाला और लाहौर की ख़ानक़ाहों में गुज़रा। यहीं 1 नवम्बर 1986 को आपका इन्तिक़ाल हो गया।
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