Parde ke Piche Hai Khel
Author:
RameshraajPublisher:
Rachnaye FulfilledLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 75.65
₹
89
Available
रमेशराज की मुक्तछंद कविताएँ
ISBN: RF-RR-PKPHK
Pages: 25
Avg Reading Time: 1 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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ज्ञानेन्द्रपति के कवि-कर्म ने कविता-प्रेमी हिन्दी जनता को आश्वस्त किया है कि जन-मन को सींचने-सँवारने वाली और ‘जन-शत्रु जीवन-शत्रु’ ताक़तों से लोहा लेनेवाली कविता-धारा आज के सुहावन भुलावन समय में भी सूखी नहीं है। कवि के पिछले संग्रह ‘गंगातट’ में स्थानिकता के जल-दर्पण में आज के वैश्विक समय की थाह मिली थी, तो ‘संशयात्मा’ का परिसर विश्व-विस्तृत है, जिसके केन्द्र में एक भारतीय अन्तःकरण है—करुणा से आप्लावित और सात्त्विक क्रोध से संतप्त।
‘संशयात्मा’ की कविताओं में हमारे समय की साँवली सच्चाइयाँ दर्ज हैं, दूधिया मिथ्याओं को सहज ही अनावृत करती हुईं। यहाँ झारखंड के पहाड़ों का अरण्यरोदन सुना जा सकता है और महानगर के कोलाहल में अनसुनी रह जानेवाली वह टेर भी जो अधरात लौटकर नींद के मुँदे कपाट खड़काती है। यहाँ इथियोपिया एक काली दुबली दौड़ाक लड़की का नाम है। यहाँ हवाई द्वीप के अपने दलदली ठिकाने में, इकला बचा, विदागीत गाता हुआ ओ-ओ आ-आ पाखी कभी नहीं मिले साइबेरियाई सारसों को सम्बोधित है जो उसके पीछे अनस्तित्व के आकाश में उड़ जानेवाले हैं। मिट रही प्रजातियों और नष्ट हो रही जैव विविधताओं का शोक-लेख इतना मार्मिक है कि मानवता की जयगाथा को मानवीयता की अपमृत्यु का अंदेशा कवलित कर लेता है। रह-रह हिंस्रता के हवाले होता मानव-मन हो, या सीवनों पर उधड़ता समाज—कवि की देखती-लेखती आँख अपलक खुली रहती है। सत्य का निष्कवच साक्षात्कार कवि-कर्म को अनायास उस उपक्रम में बदल देता है जिसे मुक्तिबोध ‘सभ्यता-समीक्षा’ कहते थे।
ज्ञानेन्द्रपति की काव्य-भाषा केवल इस मा’नी में समकालीन चलन से अलग नहीं कि वहाँ न देशज अपांक्तेय है, न तत्सम अछूत; बल्कि इसलिए भी कि वह ज़िन्दगी की धाह से अपना उजास पाती है; उसके शब्द धूल-गर्द और वनफूलों के परागकणों से अटे हैं। कविता केवल भाषा से रची ही नहीं जाती, वह भाषा को भी रचती चलती है और यह काम ज़िन्दगी की निहाई पर होता है—इस तथ्य को भी इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूसा जा सकता है। संशयात्मा विनश्यति—गीता की उक्ति है; ‘संशयात्मा’ की कविताओं को पढ़कर बेहिचक यह कहा जा सकता है—संशयात्मा विपश्यति।
Aatma Ki Aankhein : Dinkar Granthmala
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Description:
‘आत्मा की आँखें' में संकलित हैं डी.एच. लॉरेन्स की वे कविताएँ जो यूरोप और अमेरिका में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकीं, लेकिन दिनकर जी ने उन्हें चयनित कर अपनी सहज भाषा-शैली में इस तरह अनुवाद किया कि नितान्त मौलिक प्रतीत होती हैं।
डी.एच. लॉरेन्स की कविताओं के अनुवाद के पीछे जो मुख्य बातें थीं, उनके बारे में ख़ुद दिनकर जी का कहना है कि ‘इन सभी कविताओं की भाषा बुनियादी हिन्दी है। लॉरेन्स की जिन कविताओं पर ये कविताएँ तैयार हुई हैं, उनकी भाषा भी मुझे बुनियादी अंग्रेज़ी के समान दिखाई पड़ी–सरल, मुहावरेदार, चलतू और पुरजोर जिसमें बनावट का नाम भी नहीं है। कविताओं की भाषा गढ़ने के लिए लॉरेन्स छेनी और हथौड़ी का प्रयोग नहीं करते थे। जैसे ज़िन्दगी वे उसे मानते थे जो हमारी सभ्यतावाली पोशाक के भीतर बहती है। उसी तरह, भाषा उन्हें वह पसन्द थी जो बोलचाल से उछलकर क़लम पर आ बैठती है। बुद्धि को वे बराबर शंका से देखते रहे और कला में पच्चीकारी का काम उन्हें नापसन्द था। मैंने ख़ासकर उन्हीं कविताओं को चुना है जो भारतीय चेतना के काफ़ी आस-पास चक्कर काटती हैं।’ इस तरह देखें तो ‘आत्मा की आँखें’ नए आस्वाद और सहज सम्प्रेष्य कविताओं का एक अनूठा संकलन है।
Rasoi Ki Khidki Mein
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Goth Mein Bagh
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- Description: Collection of Hindi Poems भूपेन्द्र बिष्ट अपने दैनिक अनुभवों को कविता का विषय बनाते हैं। अपनी कविता के लिए वह किसी अतिरिक्त बिम्ब-प्रतीक का सहारा लिए बगैर जीवन और जगत के अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कविताएँ इतिवृत्तात्मक और आख्यानपरक हैं। कहीं दो जून की रोटी के लिए सैकड़ों मील पैदल चलते मज़दूर हैं, कहीं गोबर पाथती स्त्री है तो कहीं पहाड़ की वे औरतें हैं जो सारे घर के सो जाने के बाद भी अपने दैनिक काम में लगी रहती हैं। कवि के लिए हर वह व्यक्ति कविता का आलंबन है, जिसके संपर्क में वह आते हैं। उनका मानना है कि 'हर आदमी के भीतर एक उपन्यास होता है।' 'गोठ में बाघ' की कविताएँ कवि की संवेदनशीलता और सृजन के विस्तृत फलक को प्रमाणित करती हैं। यहाँ पहाड़ से लेकर मैदान तक के जीवन राग और रंग 'शूल और फूल' के साथ कायम हैं। साथ ही हैं प्रकृति के विविध रंग, जो जीवन-यथार्थ से अलग नहीं, संपृक्त हैं। यहाँ अपने परिवार के लिए 'जाड़े में ठिठुरते पिता' हैं और माँ भी— 'बचपन में छिपा दी गई/उसकी तख्ती और दवात/और इस तरह दूर रखा गया/उसे वर्णमाला सीखने से।' पहाड़ पर घास काटती स्त्री और उस घास के लिए रंभाती गाय के बीच जो संबंध कवि बिष्ट देखते हैं, वह उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण है। राजू श्रीवास्तव पर एक कविता में वह पूछते हैं कि 'हमारी घर-गृहस्थी के हर हल्ले में शामिल राजू/ 'स्टैंडअप कॉमेडी' के बारे में कितना जानते थे।' तो मीराबाई चानू से कहते हैं, 'जब तुम वतन लौटोगी/तो छाता रख लेना एक/यहाँ बारिश का मौसम है/इन दिनों।' —श्रीधरम
Sonasha
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ये ज़िन्दगी!
सिर्फ़ एक कहानी कहाँ है?
हादसों की, मुस्कुराहटों की,
कितनी शाखाएँ हैं...
कितने खुले और बन्द दरवाज़े हैं
कुछ भूले बिसरे से, पुराने मखमल में लिपटे,
उम्रों से बन्द पड़े, दराज़ों में मिले गहने हैं।
ये कभी-कभी कुछ ख़ुशबुएँ भी हैं,
जो जाने कौन-सी दिशा से किस सरहद के पार,
किस ज़हन में घुलीं, एक बेपरवाह बादल पर सवार हम तक पहुँच जाती हैं।
सिर्फ़ एक कहानी कहाँ है?
ये लम्हों की झालर है और इस बार
बिट्टु सफ़ीना संधू की इस झालर को नाम मिला है—‘सोनाशा’।
सोनाशा एक अहसास है ज़रा धीमे
ये उतरना इसके पन्नों की दहलीज़ पर
सोनाशा मुस्कुराहट तो ओढ़ती है
ज़रा सा कुरेदो तो ख़ामोश कुछ चीख़ें भी हैं
जो रूह की गुफा से ज़ुबान तक का सफ़र
तय नहीं कर पाती आँखों में तैर ज़रूर जाती है
कुछ अहसास हैं जो मुहब्बत को इश्क़ और इश्क़
को ख़ुदा बना देने का जिगर रखते हैं पर क्या हो
जब कोई ख़ुदा बनने से डर जाये?
जहाँ ख़ुदा से सजदा भी है, शिकवा भी है
सब कुछ समेट कर कुछ कविताएँ हैं
ये बिट्टु सफ़ीना संधू से जन्मी है भी और नहीं भी...क्योंकि अब जो इसे पाल पोसकर बड़ा किया है, क्या पता कौन सी ‘सोनाशा’ आप में से किस में समा जाए।
—बलप्रीत
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