Paka Hai Yah Kathal
Author:
NagarjunPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
जनचेतना की अभिव्यक्ति को मानदंड मानकर यदि सम्पूर्ण मैथिली साहित्य-धारा से तीन प्रतिनिधि कवियों को चुना जाए तो प्राचीन काल में विद्यापति, मध्यकाल में कवि फतुरी और नवजागरण काल में ‘यात्री' का नाम आएगा।</p>
<p>नागार्जुन ने इस सदी के तीसरे दशक के उत्तरार्द्ध में लिखना प्रारम्भ किया—‘वैदेह’ उपनाम से। उस समय के प्रारम्भिक लेखन पर मिथिला के परिनिष्ठ संस्कृत पंडिताऊपन का प्रभाव स्पष्ट है; क्योंकि इसी माहौल में उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल पा रहा था। लेकिन वे पंडितों को कूपमंडूपता में अधिक दिनों तक फँसे न रह सके। मिथिला के आम लोगों के बीच चले आए, लेकिन देश-विदेश की ताज़ा अनुभूतियों से तृप्त होने के मोह को भी छोड़ न पाए और वे मैथिली में ‘यात्री' नाम से चर्चित हो गए। पुन: देश-विदेश के अनुभव-अनुसन्धान के क्रम में बौद्ध भिक्षु नागार्जुन के रूप में जाने गए। आगे चलकर धर्म वग़ैरह का मुखौटा फेंकने के बाद भी हिन्दी में जनकवि बाबा नागार्जुन ही बने रहे।</p>
<p>लोकचेतना से जुड़े आज के किसी भी कवि को समझने के लिए उसके व्यक्तित्व, सन्दर्भ और भाव-उत्स को जानना आवश्यक है। ख़ासकर नागार्जुन जैसे कवि जो भाषा, भाव और शिल्प—तीनों दृष्टियों से जनता से जुड़े हैं, उन्हें समझने के लिए उनकी अभिव्यक्ति की मूल (मातृ) भाषा मैथिली की कविताओं को पढ़ना आवश्यक है जिनके माध्यम से उनके व्यक्तित्व की मुद्राओं, उनकी भूमि की सुगन्ध और ठेठ चुटीली सहजता को निरखा-परखा जा सकता है। इसीलिए जो बात, जो छुअन और उनकी ‘खुदी’ की पहचान इस संग्रह में उपलब्ध है, अन्यत्र सम्भव ही नहीं। ‘पका है यह कटहल’ बाबा नागार्जुन की मैथिली भाषा में लिखी गई कविताओं का पठनीय संकलन है।
ISBN: 9788171192458
Pages: 148
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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पंत जी ने इस युग को एक ‘महासंक्रान्ति युग’ कहा है। इस महासंक्रान्ति काल की कविता में आस्था और लोकमंगल को प्रतिष्ठित करना किसी भी साधारण प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के कवि के बूते के बाहर की बात है। जबकि विघटन, विशृंखलता, नैतिक मूल्यों का ह्रास चारों ओर दिखाई पड़ रहा है, उसमें महाकवि पंत का यह स्वप्न (‘मुझे स्वप्न दो, मुझे स्वप्न दो’) एक महान जीवन और विराट आस्था की परिकल्पना करता है। यही वह सन्देश है, जो समस्त पंत-काव्य के अन्दर-ही-अन्दर प्रवाहित होता हुआ हमें मिलता है।
उनका समस्त काव्य अन्तर्मुखता का काव्य न होकर आत्मोत्कर्ष का काव्य है। यह आत्मोत्कर्ष अपनी समग्र संरचना में एक सार्वभौमिक शुभेच्छा तक ले जाता है। इसीलिए उनका काव्य अतीतोन्मुख न होकर वर्तमान के फलक पर भविष्योन्मुखी काव्य है। यह सार्वभौमिक शुभेच्छा ही वह तत्त्व है, जिसके भीतर से कवि पंत ने विश्व-मानव और नव-मानव की परिकल्पना को अपनी कविता में सार्थक किया है। अपनी सम्पूर्ण काव्य-सम्पदा के भीतर से उन्होंने एक नए और निजी अध्यात्म की रचना की है। यह अध्यात्म अपनी मंगलकामना में निजी होते हुए भी ‘स्व’ भावना से पूर्णतया मुक्त है।
Kudrat Rang-Birangi
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Kumar Prasad Mukherji
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Description:
भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रवाह को समझना, किसी नदी के प्रवाह को समझने जैसा ही जटिल है। किसी नदी के उद्गम, उसकी विभिन्न शाखाओं और प्रशाखाओं की भाँति भारतीय शास्त्रीय संगीत के घराने, घरानों का उद्गम, घरानों के स्रष्टा, वाहक, गुरु, परम्परा, राग, रागरूप, श्रुति, स्मृति, आरोह, अवरोह, वादी, विवादी, समवादी इत्यादि शब्दों के चलते ये पूरा विषय आम पाठक के लिए पहली नज़र में अत्यन्त जटिल प्रतीत होता है। लेकिन इस पुस्तक में शताब्दी के श्रेष्ठ कलाकारों और संगीत घराने के इतिहास एवं उनकी विशेषताओं, एक घराने के साथ दूसरे घरानों की तुलना, राग-रागिनियों के सूक्ष्मविश्लेषण आदि विषयों को अत्यन्त रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
यह रोचकता ही कुमार प्रसाद मुखर्जी के लेखन की विशेषता है या कहा जा सकता है कि यह उनके लेखन का एक विशेष घराना है। लेखक स्वयं एक संगीत घराने से सम्बन्धित थे और ख़ुद भी विख्यात कलाकार रहे। अपने बचपन के दिनों से ही संगीत के मूर्धन्य विद्वानों को सामने बैठकर सुनने का मौक़ा उन्हें मिला। इसके साथ-साथ वे विदग्ध पाठक और असाधारण गुरु भी थे। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी इन सभी प्रतिभाओं की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है, इसीलिए भारतीय संगीत और उससे जुड़े विभिन्न गम्भीर विषय पाठकों के सामने अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत होते हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के कलाकारों को राजाओं-महाराजाओं का आश्रय प्राप्त था, इसके अलावा संगीत कलाकारों के मनमौजी स्वभाव, उनके जीवन की रोचक घटनाओं के चलते संगीतज्ञ आम जनता के लिए आकर्षण का केन्द्र बने रहते थे। इस पुस्तक में विभिन्न स्थानों पर ऐसी रोचक घटनाओं का वर्णन भी है। लेखक के पिता धूर्जटि प्रसाद मुखोपाध्याय शास्त्रीय संगीत के प्रख्यात आलोचक व लेखक थे। स्वयं भी एक संगीतज्ञ होने के चलते लेखक की यह पुस्तक न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत पर एक प्रामाणिक ग्रन्थ है, बल्कि अपने आपमें भारतीय शास्त्रीय संगीत पर एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है।
Khwahishen
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Sonika Ahujha
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- Description: "Khwahishen" is a Hindi poetry and Shayari collection; most of the verses are emotions of love, sadness, wait, n dreams etc.; the poetry is in simple Hindi n coupled with some lovely words of Urdu; the verses are an exploration of the soul, close to life, straight from the heart... The best part is the poems are felt through every human nature, and while reading, one feels it's all about my thoughts. Sonika 'Niti' Ahuja is a Hindi poet who started her career as a homoeopath but gave up her practice to look after her children. She is a proud mother of three daughters and a son, who passed away while he was still very young. She is a passionate writer who started writing in her early forties to express her thoughts, feelings and dreams. She is already an author of a book named 'Soul's Whispers'. She currently resides in Ludhiana, Punjab, with her husband, father-in-law and three daughters, whom she loves to her heart's content, and she is a source of inspiration for thousands of people...
Pichhla Baqi
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Vishnu Khare
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- Description: यह कहकर कि विष्णु खरे हिन्दी में बिलकुल अलग ढंग की कविता लिखते थे (उनकी ख़ास अपने रंग की कविता की बात है यह, उन कुछेक कविताओं की नहीं जो उनकी उतनी ख़ास नहीं हैं), हम ज़रूर एक बड़ी बात कहते हैं। पर उनका अपना रंग क्या है, यह बताए बग़ैर बात अधूरी है। पहली ही नज़र में उन्हें अलग दिखा देनेवाली चीज़ है उनकी कविता का बाना; ऐसा बाना जिसमें से 'कवितापन’ के निशान मानो चुन-चुनकर हटा दिए गए हैं—भावनात्मकता, लयात्मकता, आवेग और बहाव, लगाव और आत्मीयता, सहानुभूति और करुणा तक...। पहली नज़र में वे कविता होने का दावा करनेवाली गद्यात्मक कहानियाँ मालूम होती हैं। उनका कहानीपन भी वर्णनात्मक लगता है, कथात्मक नहीं, मानो जान-बूझकर लयहीन, गद्यात्मक, मनमाने तौर पर लम्बी या छोटी पंक्तियों में कुछ चीज़ों के बारीक वर्णन में घटना या पात्र जोड़ दिए गए हैं; आप कविता से जुड़ी अपनी अपेक्षाएँ, रुचियाँ, आदतें लेकर उनके पास जाते हैं और निराश होते हैं; आप कहानी की तरह उसे पढ़ना चाहते हैं तो पाते हैं कि जिन तत्त्वों (सूक्ष्म निरीक्षण, मानसिक या घटनागत मोड़, आश्चर्य इत्यादि) को आप कहानी पढ़ने के बाद खोजते या निकालते, वे ढाँचे की तरह—मांस-मज्जा-मोटापे से रहित—आपके सामने हैं, पूरी कहानी नहीं। कविता के रूप में आप जिस ताप, आवेग और शब्दों की मितव्ययिता चाहते हैं, वह नहीं है। कविता के रूप में उक्त तत्त्वों को जिन आवरण-आच्छादनों के साथ चाहते हैं, वे आवरण-आच्छादन भी नहीं हैं। कहानी की दृष्टि से शब्दों की कंजूसी, कविता की दृष्टि से शब्दों की इफ़रात। ‘अकेला आदमी’, ‘कोशिश’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताएँ आपको तब भी अपनी संस्कारगत काव्य-रुचियों के क़रीबतर जान पड़ती हैं। इससे बरबस आप विष्णु खरे की दूसरी कविताओं को समझने की, उनमें ‘कवितापन’ खोजने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी यह कोशिश लगातार चलती है; होते-होते आप कवि के मुरीद भी हो जा सकते हैं। समय इन कविताओं में एक तरह से सर्वव्याप्त आयाम है जिसमें देश या स्थान भी समाहित है। 'टेबिल’ में वह चार पीढ़ियों का क़िस्सा बनता है। ‘हँसी’ में वह हमारा अपना ज़माना है, जब पुरस्कृत बालक भूखा, पैदल, थका, शील्डों के बोझ से दबा घर पहुँचता है, जहाँ ख़ुद ही उसे ताला खोलना है; समारोह में विशेष स्वागत अतिथियों का है, सड़क पर पुलिस की घुड़क है, दूसरे दिन स्कूल में क़तार में वह निरीह इकाई मात्र है। एक संवेदनहीन, मूल्यहीन, क्रूर समाज का समय। 'गर्मियों की शाम’ में वह हमारी यौन-नैतिकता, अच्छाई, किशोर-मन की कसमसाहट का समय है। ‘स्वीकार’ और ‘डरो’ में, ‘दूरबीन’ और ‘वापस’ में और ‘कार्यकर्ता’ और ‘कोमल’ में हमारे समय का समाज-संगठन, व्यक्ति-सत्ता, व्यंग्य, तल्ख, विडम्बना, अक्सर दुरदुराए जाते आम इनसान संकेतित हैं। समय पर यही आँख ‘मुक़ाबला’ में प्रागैतिहासि फ़ैंटेसी को समेट लाती है। बचपन, कैशोर्य, जवानी, बुढ़ापा; सफलता, रोग, दैन्य, छोटे शहरों की उदासी और उदास आकर्षण, बड़े शहरों का दृश्य (‘वापस’) उनमें तरह-तरह से आता है। समय के लिए विष्णु खरे काल या महाकाल जैसे प्रत्यय नहीं अपनाते, और इस नुक्ते में उनकी काव्य-चेतना के दो रुझान स्पष्ट हैं। ‘समय’ शब्द हमारे समय में अंग्रेज़ी के ‘टाइम’ का प्रत्ययान्तर है, और प्रचलित आधुनिकतावाद में वह प्रगति, इतिहास, उत्तरोत्तर आगे बढ़नेवाला, रैखिक विकास का अर्थ लिए हुए है; व्यतीत हो जानेवाला समय है, ‘कालो न यात:’ वाला, आवर्तित, चक्राकार काल नहीं। लेकिन विष्णु खरे इसको ‘अर्थ’ और ‘अव्यक्त’ जैसी कविताओं में ‘एक प्रवहमान अनन्त लीला’ से जोड़ते हैं। आधुनिकता के विश्लेषणात्मक, वैज्ञानिक, विषयी-निरपेक्ष विषय-केन्द्रित दृष्टि के उपकरणों का उपयोग क्या वे अपनी मूल भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की पड़ताल करने में कर रहे हैं? सर्वातीत, लीला, स्थावर-जंगम जैसे शब्द उनके यहाँ बार-बार हैं, और केवल शब्द ही नहीं, उनके अर्थ को स्वीकार करनेवाली चेतना भी। यह चेतना—शक होता है कि—सचेत रूप से अपनाई हुई नहीं है, बल्कि उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद है, इस देश-प्रदेश में पलने, बढ़ने के कारण। उसकी पुष्टि तरह-तरह के अध्ययनों से, हालाँकि भारतीय अवधारणा से कुछ भिन्न रूपोंवाले स्रोतों से होती है—दॉन हुआन, बोर्खेस के हवाले द्रष्टव्य हैं। तर्क से चलकर अतर्क्य तक पहुँचना इसीलिए सम्भव है। क्षणवाद को इस तरह वे विजित करते दीखते हैं। अस्तित्ववादी अकेलेपन और संत्रास की धारणाओं का आतंक इसीलिए उन पर नहीं दीखता। अन्तत: निष्कृति का द्वार उन्हें सहज ही पता है।
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संध्या नवोदिता की जोगी वाली कविताएँ जब पहली बार फ़ेसबुक पर पढ़ीं, तभी चौंक गई थी। कौन है यह जो अन्तस की ऐसी गहराई से ऐसी कविताएँ लिखती है जो पूरे ब्रह्मांड को घेर लेती हैं? मैंने इस अनजान कवि की ‘जोगी’ शीर्षक से एक फ़ाइल बना ली और कविताएँ उसमें रखने लगी—यह सोचकर कि फिर उतरना ही होगा इनमें फ़ुरसत से। और जब उतरी तो पाया कि ज़िन्दगी के पार्क का तीन अरब किलोमीटर का चक्कर लगवाती हैं ये कविताएँ—पृथ्वी के आलिंगन में सूरज के चारों ओर। इन कविताओं में प्रेम की उदासी और दुःख का पहाड़ा ऐसा हृदयविदारक है कि मेरे जैसा अ-रूमानी पाठक भी सन्तप्त हो उठता है। जाने कैसी सच्चाई है, कैसी गहराई है इस भाषा में, जो रोज़मर्रा के जीवन की मामूली चीज़ों से होती सुपर मून तक वामन डग भरती विस्तार पा लेती है।
इन कविताओं में कवि का आत्म अपने को विस्तारित करता हुआ समूची धरती का आत्म बन जाता है। इसलिए सहज ही संध्या वह सब कुछ अपनी कविताओं में कह जाती हैं जो बहुत श्रम के बाद भी अनकहा ही रह जाता है। बराबर मनुष्य की गरिमा के साथ प्रेम और साहचर्य को जीती ये कविताएँ प्रकृति के साथ भी एक अटूट साहचर्य की कामना रखती हैं। प्रेम, प्रकृति और प्रतिरोध यहाँ इस तरह से घुल-मिलकर आते हैं कि अलग से उनकी पहचान कर पाना या एक दूसरे से विलगाकर देख पाना सम्भव नहीं बचता।
यह सब उस भाषा में है जिसे हम रोज़ बरत रहे हैं। कहीं कोई बनावट या कविताई का आग्रह नहीं दिखता। शायद अनुभव और अभिव्यक्ति की यह निर्दोष जुगलबंदी है कि हम उसके ख़यालों की सीढ़ियाँ नाप पाते हैं। कुछ कविताओं को पढ़ ऐसा होता है कि मैं अगर उनपर कुछ लिखना चाहूँ, तो वे शब्द नहीं मिलते जो उस कविता के साथ न्याय कर सकें। मेरी भाषा मौन हो जाती है। लौट आने के आह्वान में खोए हुए की प्रतीति और पुकार अविस्मरणीय बन जाती है। संध्या की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ हैं।
—अलका सरावगी
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