Dehari Ka Man
Author:
Prabha ThakurPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
‘देहरी का मन’ संवेदनशील व विचारप्रवण कविताओं के लिए चर्चित डॉ. प्रभा ठाकुर का महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह है। इन कविताओं में निष्करुण सामाजिक यथार्थ एवं व्यापक मानवतावाद से सम्बुद्ध मन का द्वन्द्व समाहित है। सभ्यता के चरण पार करते हुए समाज जिस पथ पर अग्रसर है, उसका लक्ष्य क्या है—इस नाभिक से छिटके प्रश्न ‘देहरी का मन’ में पाठक से संवाद करते हैं। इस संग्रह से यह भी आभास होता है कि प्रभा ठाकुर की रचनात्मक यात्रा कितनी वैविध्यपूर्ण है। ‘अपनी बात’ में वे कहती हैं, “कुछ फूल चुनकर भरे थे आँचल में, पता ही नहीं चला कैसे कुछ काँटे भी ख़ुद-ब-ख़ुद ही साथ चले आए। फूल तो मुरझाकर बिखर भी गए, किन्तु काँटे सूखकर और भी पैने और सख़्त हो गए हैं। वैसे भी इतने वर्षों की जीवन-यात्रा के बाद, उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर, यही सोचती हूँ, कहाँ खड़ी हूँ मैं? किसी शिखर पर, ढलान पर या फिर हाशिए पर...!’’ आत्ममूल्यांकन की यह सघन प्रक्रिया सामाजिक विसंगतियों की पहचान का प्रखर माध्यम बनती है। गीतात्मक अभिव्यक्तियाँ स्मृतियों और अनुभूतियों के सम्मिश्रण से मोहक परिवेश रच देती हैं। इन पंक्तियों में जीवन का एक बड़ा सच झाँक रहा है : ‘रेत का बना था घर, बार-बार टूटा/कच्चा रंग रिश्तों का बार-बार छूटा/आँगन से पनघट तक, काई ही काई/माटी का घट भरकर, बार-बार फूटा/अपना ही हवन करें और एक बार।’ समकालीन हिन्दी कविता (विशेषकर गीत-कविता) में प्रभा ठाकुर की ये रचनाएँ उन्हें विशिष्ट सिद्ध करती हैं। भाषा, छन्द, संरचना और स्वभाव की दृष्टि से ‘देहरी का मन’ एक प्रीतिकर और संग्रहणीय संग्रह है।
ISBN: 9788126725328
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: देसक इतिहास आइ अपन निर्दयतम दौर सँ गुजरि रहल अछि जखन भाषा मे अपन अन्त:करणक रक्षा क' सकब एक कठिन चुनौती बनल अछि। मैथिलीक बहुलांश कवि-समुदाय केँ हमरा लोकनि आइ जत' रौरव के उत्सव मनबैत देखबा लेल अभिशप्त छी, विद्यानंद ने तँ अपन जनानुभव सँ एकात भेला अछि आ ने अभिव्यक्तिक जरब उठेबा मे कनियो थकमकाइत छथि। देसवासीक नियति केँ प्रभावित केनिहार हरेक प्रपंच पर हुनका लग अपन कविता छनि। नाना प्रकारक मानवीय आ प्राकृतिक उत्पातक बीच ओ साधारण जन पर पड़ैत एकर प्रभावे केँ उचित-अनुचितक दिशानिर्देशक मानैत रहला अछि। स्मृति सेहो कोना उपस्थित होइत छैक, से हम सब एत' बारंबार देखि सकै छी। हुनक काव्यानुभवक अनुरूपे हुनकर ई संग्रह सेहो विविधता आ व्यापकता सँ भरल अछि। समकालीन कविताक लेल अवश्ये ई एक महत्त्वपूर्ण बात थिक जे हमर ई कवि अपन हरेक नव संग्रह मे पछिला संग्रह सँ आगू बढ़ल देखाइत छथि। हुनकर पाठक लोकनि से एहू संग्रह मे देखि सकता। —तारानंद वियोगी # विद्यानंदक कविता मे आत्म निरीक्षणक एक टा अद्भुत पद्धति छनि। अस्तित्ववादक आधुनिक परम्पराक देशज आ लौकिक सहज विमर्श सँ जेना बियाह होइत हो। जतबे भावोत्तेजित ततबे निरीह, शांत, आ प्रतीतिकर। खेतिहर, गामक लोक, ऑरवेल, अम्बेडकर आ महात्मा गांधी—एहन अनेक पात्र हिनक काव्य मे सजीव भ'क' संवाद करैत अछि। कवि केँ धन्यवाद जे ओ अपन काव्य रचना मे सतत सत्यपरक, तथ्यपरक आ साहित्यिक सौन्दर्यपरक संतुलनक संग समुचित संसार गढ़ैत रहलाह अछि। —देव नाथ पाठक
Subah Ab Hoti Hai
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Neeraj Goswami
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Shaniwar Ke Intzaar Me
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Nilima Sharma
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Madhu-Sa La
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Rameshraaj
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- Description: हिंदी साहित्य जगत में विलक्षण प्रयोगों, नए-नए मुहावरों, अछूते प्रतीकों, पैनी और व्यंग्यात्मक भाषाशैली के साथ-साथ जनसापेक्ष रचनाशीलता के बल पर श्री रमेशराज ने एक महत्वपूर्ण मुक़ाम हासिल किया है। आपके मौलिक चिंतन में एक तरफ जहां असीम गहराई है, वहीं सम्प्रेषणशीलता सर्वत्र मौजूद होने के कारण पाठक-मन ऊबता नहीं। हर तथ्य आसानी के साथ ग्रहण करते हुए वह आत्मतोष से भर जाता है। तेवरी विधा के सूत्रधार श्री रमेशराज एक तेवरीकार के रूप में ही विख्यात हों, ऐसा कदापि नहीं है। आपने बेहतरीन मुक्तछंद कविताएं लिखी हैं। बालगीत कार के रूप में भी आपकी पहचान है। आपके गीत-नवगीत मन को गहराइयों तक छूते हैं। व्यंग्य व्यंजना का अद्भुत रंग लिए होते हैं। आपका चिंतन 'कविता क्या है?' जैसे मूलभूत प्रश्न को सुलझाता है। रस पर आपकी सूक्ष्म पकड़ है। समकालीन यथार्थवादी काव्य की रस-समस्या का समाधान खोजते हुए आपने एक नए रस "विरोधरस" की मौलिक खोज की है। काव्य की आत्मा पर चिंतन करते हुए "साधारणीकरण" के स्थान पर एक नया सिद्धांत "आत्मीयकरण" दिया है। नए-नए छन्दों को प्रतिष्ठापित करने वाले श्री रमेशराज की ताजा काव्यकृति मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विकृतियों और विसंगतियों पर तीखे प्रहार किए गए हैं।यथा- नसबंदी पर देते भाषण, जिनके दस लल्ली-लाला हाला पीकर बोल रहे हैं, ‘बहुत बुरी होती हाला’। अंधकार के पोषक देखो, करने आये भोर नयी नयी आर्थिक नीति बनी है, आज प्रगति की मधुशाला।। कवि ने अधर्मी साधुओं मौलवियों के दुराचरण पर बिना भेदभाव किये तटस्थ भाव से तीखे व्यंग्य कसे हैं- मुल्ला-साधु-संत ने चख ली, राजनीति की अब हाला गुण्डे-चोर-उचक्के इनके, आज बने हैं हमप्याला। जनसेवक को शीश नवाते, झट गिर जाते पाँवों पर ये उन्मादी-सुख के आदी, प्यारी इनको मधुशाला।। दूषित होते पारिवारिक परिवेश का सजीव चित्रण देखिए- बेटे के हाथों में बोतल, पिता लिये कर में प्याला इन दोनों के साथ खड़ी है, कंचनवर्णी मधुबाला। गृहणी तले पकौड़े इनको, गुमसुम खड़ी रसोई में नयी सभ्यता बना रही है, पूरे घर को मधुशाला।। पारिवारिक मूल्यों में आयी गिरावट पर कवि की पैनी पकड़ इसप्रकार है- बेटे की आँखों में आँसू, पिता दुःखों ने भर डाला मजा पड़ोसी लूट रहे हैं, देख-देख मद की हाला। इन सबसे बेफिक्र सुबह से, क्रम चालू तो शाम हुयी पूरे घर में महँक रही है, सास-बहू की मधुशाला।। आज हमारा समाज सभ्यता के नाम पर कितना संस्कारविहीन हो गया है- मरा पड़ौसी, उसके घर को दुःख-दर्दों ने भर डाला हरी चूड़ियाँ टूट गयीं सब, हुई एक विधवा बाला। अर्थी को मरघट तक लाते, मौन रहे पीने वाले दाहकर्म पर झट कोने में, महँकी उनकी मधुशाला।। एक चतुष्पदी में सियासत का षडयंत्र देखिए- उसने की है यही व्यवस्था, दुराचरण की पी हाला प्याला जिसके हाथों में हो, बन जा ऐसा मतवाला। मत कर चिन्ता तू बच्चों की, मत बहरे सिस्टम पर सोच तेरी खातिर जूआघर हैं, कदम-कदम पर मधुशाला।। समाज को चेतना प्रदान करने वाले कवि का आचरण आज कैसा जनविरोधी हो गया है- कलमकार भी धनपशुओं का, बना आजकल हमप्याला दोनों एक मेज पर बैठे, पीते हैं ऐसी हाला। निकल रहा उन्माद कलम से, घृणा भरी है लेखों में महँक छोड़ती अब हिंसा की, अलगावों की मधुशाला।। दुष्टों, दुराचारियों के सम्मुख नतमस्तक होते क़लम के सिपाहियों पर तंज कसते हुए कवि कहता हैं- सबसे अच्छी मक्खनबाजी, हुनर चापलूसी का ला तुझको ऊँचा पद दिलवाये, चाटुकारिता की हाला। स्वाभिमान की बात उठे तो, दिखला दे तू बत्तीसी कोठी बँगला कार दिलाये, बेशर्मी की मधुशाला।। सारा परिवेश विषैला हो चुका है। हर सियासी दल से जनता को धोखा मिल रहा है। पूरा का पूरा सिस्टम एक अनसुलझा सवाल बन गया है। फिर भी कवि हार न मानते हुए रहनुमाओं से यह सवाल करता है तो करता है- कब तक सपना दिखलाओगे, गांधी के मंतर वाला और पियें हम बोलो कब तक, सहनशीलता की हाला। अग्नि-परीक्षा क्यों लेते हो, बंधु हमारे संयम की कब तक कोरे आश्वासन की, भेंट करोगे मधुशाला।। कुल मिलाकर रमेशराज जी के इस मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) का साहित्य-जगत में उनकी अन्य कृतियों की तरह स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है। ~अनिल 'अनल'
Piramidon Ki Tahon Mein
- Author Name:
Suman Keshari
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Description:
सुमन केशरी का काव्य संसार विस्तृत है। यह विस्तार क्षैतिज भी है और उर्ध्वाधर भी। वे ग़म-ए-दौराँ तक भी जाती हैं और ग़म-ए-जाना तक भी। वह भौतिक संसार के चराचर दु:खों की शिनाख़्त के लिए मिथकों से स्वप्नों तक भटकती हैं, तो आत्मा के आयतन के विस्तार के लिए रोज़-ब-रोज़ की जद्दोजेहद में भी मुब्तिला होती हैं। लगभग तीन दशकों के अपने सक्रिय जीवन में उन्होंने लगातार अपने समय और समाज की हलचलों को उनकी जटिल विडम्बनाओं के साथ दर्ज करने का प्रयास तो किया ही है, साथ ही एक स्त्री के लिए, जो साझा और अलग अभिधार्थ हो सकते हैं, उन्हें बहुत स्पष्ट तौर पर अभिलक्षित भी किया है। पिरामिड की तहों के घुप्प अँधेरों में ‘जहाँ नहीं हैं एक बूँद जल भी तर्पण को’ रोशनी के क़तरे तलाशकर मनुष्यता के लिए जीवन-रस संचित करने की अपनी इस कोशिश में परम्परा के साथ उनका सम्बन्ध द्वंद्वात्मक है। एक ओर गहरा अनुराग तो दूसरी ओर एक सतत असन्तोष।
‘शब्द और सपने’ जैसी कविता में सुमन केशरी का चिन्ताओं का सबसे सघनित रूप दृष्टिगत होता है। छोटे-छोटे नौ खंडों में बँटी यह लम्बी कविता अपने पूरे वितान में पाठक के मन में भय ही नहीं पैदा करती, बल्कि समकालीन वर्तमान का एक ऐसा दृश्य निर्मित करती हैं जहाँ इसके शिल्प में अन्तर्विन्यस्त बेचैनी पाठक की आत्मा तक उतरकर मुक्ति की चाह और उसके लिए मनुष्यता के आख़िरी बचे चिन्हों को बचा लेने का अदम्य संकल्प भी भरती है।
स्त्री उनके काव्य-जगत का अभिन्न हिस्सा है। ‘माँ की आँखों के जल में तिरने' की कामना के साथ, अपने जीवन में मुक्ति और संघर्ष करती, स्वप्नों से यथार्थ के बीच निरन्तर आवाजाही करती, ‘किरणों का सिरा थाम लेने’ का स्वप्न देखती वह यह भी जानती है कि 'चोंच के स्पर्श बिना घर नहीं बनता’ और यह भी कि ‘औरत ही घर बनाती है/पर जब भी बात होती है घर की/तो वह हमेशा मर्द का ही होता है।’ इस स्त्री के संवेदना जगत में मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति भी है तो मातृहीन बिलौटे और अजन्मे बच्चे भी।
जीवन के हर सफे़ पर लिखे ‘असम्भव' से टकराती और ‘घर की तरह घर में रहने' ही नहीं ‘संगीनों के साए तले प्रेम करने की अदम्य जिजीविषा से भरी सुमन केशरी की ये कविताएँ समकालीन कविता के रुक्ष वातावरण में मिथक, लोक और स्वप्न का एक भव्य वातायन ही सृजित नहीं करतीं अपितु प्रेम, करुणा और औदार्य के मानवीय जीवन-मूल्यों पर आधारित एक समन्वयवादी वितान भी रचती हैं जिसमें भविष्य के स्वप्न देखे जा सकें। ‘पिरामिडों की तहों में’ में संकलित कविताएँ अनिवार्यतः हिन्दी कविता के पाठक के संवेदनाजगत को और निर्मल करेंगी तथा असहनीय होते जा रहे इस दौर में मनुष्य बने रहने के लिए आवश्यक मानवीय चेतना का संचार भी करेंगी।
—अशोक कुमार पांडेय
Mughal Badshahon Ki Hindi Kavita
- Author Name:
Manager Pandey
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Description:
यह आश्चर्यजनक लगेगा, लेकिन तथ्य है, कि बाबर से लेकर बहादुरशाह जफ़र तक, लगभग सभी मुग़ल बादशाह शायर और कवि भी थे; और उन्होंने फ़ारसी-उर्दू में ही नहीं, ब्रजभाषा और हिन्दी में भी काव्य-रचना की।
यह पुस्तक प्रमाण है कि जिस भी बादशाह को राजनीति और युद्धों से इतर सुकून के पल नसीब हुए, उन्होंने कवियों-शायरों को संरक्षण देने के अलावा न सिर्फ़ कविताएँ-ग़ज़लें लिखीं, अपने आसपास ऐसा माहौल भी बनाया कि उनके परिवार की महिलाएँ भी काव्य-रचना कर सकें। लिखित प्रमाण है कि बाबर की बेटी गुलबदन बेगम और नातिन सलीमा सुल्ताना फ़ारसी में कविताएँ लिखती थीं। हुमायूँ स्वयं कवि नहीं था, लेकिन काव्य-प्रेम उसका भी कम नहीं था। अकबर का कला-संस्कृति प्रेम तो विख्यात ही है, वह फ़ारसी और हिन्दी में लिखता भी था। ‘संगीत रागकल्पद्रुम’ में अकबर की हिन्दी कविताएँ मौजूद हैं। जहाँगीर, नूरजहाँ, फिर औरंगजेब की बेटी जेबुन्निसाँ, ये सब या तो फ़ारसी में या फ़ारसी-हिन्दी दोनों में कविताएँ लिखते थे। कहा जाता है कि शाहजहाँ के तो दरबार की भाषा ही कविता थी। दरबार के सवाल-जवाब कविता में ही होते थे। दारा शिकोह का दीवान उपलब्ध है, जिसमें उसकी ग़ज़लें और रुबाइयाँ हैं। अन्तिम मुग़ल बादशाह जफ़र की शायरी से हम सब परिचित हैं। उल्लेखनीय यह कि उन्होंने हिन्दी में कविताएँ भी लिखीं जो उपलब्ध भी हैं।
कहना न होगा कि हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. मैनेजर पाण्डेय द्वारा सम्पादित यह संकलन भारत में मुग़ल-साम्राज्य की छवि को एक नया आयाम देता है; इससे गुज़रकर हम जान पाते हैं कि मुग़ल बादशाहों ने हमें क़िले और मक़बरे ही नहीं दिए, कविता की एक श्रेष्ठ परम्परा को भी हम तक पहुँचाया है।
Sahar Ke Khwab
- Author Name:
Monika Singh
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Description:
प्रेम की गहरी व्यंजना, नज़दीकियों और दूरियों की हस्सास अक्कासी, देश और समाज की तल्ख़ हक़ीक़तों से ज़ख़्मी मिसरों और शे’रों की गहरी बुनावट—इन सबसे मिलकर बनती हैं मोनिका सिंह की ग़ज़लें और इस नए ग़ज़ल-संग्रह के ख़्वाब।
कहते हैं सहर यानी सुबह के वक़्त देखे गए ख़्वाब सच हो जाते हैं। इस संग्रह की ग़ज़लों में ऐसे अनेक ख़्वाब सँजोए गए हैं, जिन्हें सच होना ही चाहिए। ख़ुशियों के, प्यार के, मिलन के, समाजी एकता और क़ौमी मुहब्बत के ख़्वाब के साथ मोनिका सिंह अपने वक़्त को भी बहुत गहराई से देखती है; और अपने मन को भी। यही वजह है कि उनके अहसास का सन्तुलन कहीं भी गड़बड़ाता नहीं है।
‘यकायक नींद में आँसू निकल आए; वो ख़्वाबों में मुझे तड़पा गया शायद।’ एक ग़ज़ल का यह शे’र जहाँ इश्क़ की गहरी संवेदना को रौशन करता है, वहीं हमें ऐसे शे’र भी पढ़ने को मिलते हैं: ‘दूरियाँ दो मज़हबों में की जिन्होंने, कह रहे वो/फ़ासले होते नहीं कम, बात इतनी सी नहीं है/ फेंककर स्याही बने हैं देशभक्ति के पुजारी/बँट गए मुद्दों में यूँ हम, बात इतनी सी नहीं है।’
देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली ग़ज़लों ने धीरे-धीरे उर्दू अल्फ़ाज़ से अपनी नज़दीकी बढ़ाई है, आमफ़हम होने के नाम पर सपाट होने की आशंका को उसने काफ़ी कम किया है, और उर्दू ग़ज़ल की बहुस्तरीय अर्थगर्भिता के नज़दीक गई है। यह बात इस संग्रह में भी देखने को मिलती है।
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