Neera Ke Liye
Author:
Sunil GangopadhyayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Unavailable
सुनील गंगोपाध्याय के देहावसान के बाद विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने एक कविता लिखी—‘पत्र जिसे पढ़नेवाला चला गया’। इसकी पंक्तियाँ हैं—‘कौन जाने नीरा का पत्र हो जिसके लिए लिखता रहा वह कविताएँ और कविताएँ और कविताएँ।’</p>
<p>सुनील गंगोपाध्याय की रचनाशीलता में 'नीरा' का एक विचित्र स्थान है। एक साथ ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिय। 'नीरा के लिए' कविता-संग्रह में इसका अनुभव किया जा सकता है। प्रस्तुत कविता-संग्रह की भूमिका में सुनील गंगोपाध्याय स्वीकारते हैं, “...तमाम बीते बरसों में नीरा बार-बार घूम-फिरकर आती रही मेरी कविता में। मेरी उम्र ढल रही है पर नीरा आज भी किसी स्थिर चित्र की तरह ‘नव-यौवना’ है। मैं उसे रक्त-मांस की मानवी बनाकर रखना चाहता हूँ पर कभी-कभी अचानक से वह प्रवेश कर जाती है शिल्प की सीमाओं के भीतर।</p>
<p>मैं उसे फिर वापस ले आना चाहता हूँ, उसके पाँव में काँटे चुभ जाते हैं, उसकी आँखों में अश्रु झिलमिलाने लगते हैं। यह दूरी, साथ ही यह आलिंगन की निकटता, नीरा के साथ यह खेल चलता ही रहा है जीवन-भर।”</p>
<p>मूलत: बांग्ला में लिखी इन कविताओं का सोमा बंद्योपाध्याय द्वारा किया गया यह अनुवाद मौलिक आस्वाद प्रदान करता है। आसक्ति व अनासक्ति के बीच विचरण करती अद्भुत कविताओं का प्रीतिकर संग्रह।
ISBN: 9788126726349
Pages: 80
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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बदल देती
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सर्वाधिक उल्लेखनीय भयावहता की तरह रेखांकित करना, कवि की गहरी दृष्टि और क्षमता का ही
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है। उनकी अनेक कविताओं में कहन की नई कला और दीप्ति है। अपने से पूर्व की कविता की सुदीर्घ
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एक हद तक इस संग्रह की कविताएँ, प्रश्न करती हुई कविताएँ भी हैं। यह देखना भी प्रासंगिक है कि ये अनगिन प्रश्न ढेरों तरीक़ों से कई दिशाओं में सम्भव हुए हैं। फिर वह कोसी नदी हो, शवयात्रा के आगे बाजा बजाने वाले लोग हों, विष्णु गणपत चौधुले के मार्फत पुलिस विभाग हो, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हो, फ़ज़र की नमाज़ हो, कबड्डी का खेल हो या फिर नदी की मछली—कवि हर जगह गया है और अद्भुत रूप से अपनी काव्य भंगिमाओं को एक सार्थक संवाद दे पाया है।
भारतीय समाज के मध्यवर्ग के तमाम आख्यानों, इतिहास, स्मृति और राजनीति का अचूक इस्तेमाल करते हुए, साथ ही उसे बाज़ार की भाषा से दूर ले जाकर हर दिन दुःसाध्य होती जाती दुनिया और जीवन को खोजने-नबेरने का साहस दिखाती हुई इन कविताओं में मनुष्य की चिन्ताओं को बड़े फ़लक पर विमर्श का मौक़ा मिला है। इसी कारण इन कविताओं में ऐसे चरित्रा औ गतिविधियाँ सहज ही अपनी भागीदारी बना पाए हैं, जो एक साथ पढ़े जाने पर अपने समवेत प्रतिरोध का शोर रचते हैं।
प्रतापराव कदम, इन कविताओं के बहाने—राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक प्रपंचों पर ऐसा तीक्ष्ण प्रहार करते हैं कि यह देख पाना सम्भव लगता है कि मनुष्य की आकांक्षाओं और सपनों के समर्थन में कभी शब्द या भाषा भी खड़ी हो सकती है। यह इन कविताओं के माध्यम से बख़ूबी सम्भव हो सका है और शोर-शराबे वाले ऐसे कृतघ्न समय में अगर कोई कवि अपने भ्रम के सहारे जीवन की सहजता को बचाए रखता है, तो वह कोशिश कम नहीं मानी जा सकती—‘दूर से, अछड़ते जैसे कोई है झोपड़ी में/जैसे कोई फ़सल निहारते खड़ा बीच खेत/यही भरम बनाए-बचाए रखता है। (भरम)’
इसी भरम को पोसते हुए स्वयं कवि, उसकी कविता या पाठक ही नहीं, बल्कि वे तमाम लोग भी समृद्ध होते हैं, जिनके जीवन में इस तरह का कोई भरम या विश्वास बचा हुआ है।
—यतीन्द्र मिश्र
Sheeshon Ka Masiha
- Author Name:
Faiz Ahmed 'Faiz'
- Book Type:

- Description: शीशों का मसीहा की शुरुआत होती है फ़ैज़ के एक लेख से जो उन्होंने अपने बारे में लिखी है, ज़ाहिर है बहुत संकोच के साथ क्योंकि उनके मुताबिक अपने बारे में बात करना ‘बोर लोगों का शग़ल है।’ लेकिन आगे जो वे बताते हैं, वो फ़ैज़ के पाठकों के लिए काफ़ी काम का है; उनसे हम इस किताब में संकलित उनकी नज़्मों, ग़ज़लों और अशआर की पृष्ठभूमि को जानते हैं। ‘नक़्शे-फ़रियादी’ के बारे में बताते हैं कि इसकी शुरुआती नज़्में जिस फ़ज़ा में आईं वह तालिबे-इल्मी का दौर था जिसमें ‘इब्तिदा-ए-इश्क़’ का तहय्युद भी शामिल था कि ‘ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू’; लेकिन यह दौर लम्बा न चलाए—कॉलेज के बड़े-बड़े बाँके तीसमारखाँ रोजी-रोटी की तलाश में गलियों की ख़ाक फाँकने लगे; और दिल कह उठा—‘मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग’। फिर फ़ैज़ पत्रकारिता, ट्रेड यूनियन, और जेलख़ाना जिसके बारे में उनका कहना है कि ‘जेलख़ाना’ आशिक़ी की तरह ख़ुद का बुनियादी तजुर्बा है। इस तजुर्बे की साक्षी हैं ‘दस्ते-सबा’ और ‘ज़िन्दाँनामा’। ‘शीशों का मसीहा’ इस तरह हमें फ़ैज़ की रचना-यात्रा को समझने का एक रास्ता देती है।
Jeevan Ke Din
- Author Name:
Prabhat
- Book Type:

-
Description:
ये लोक में टहलती हुई कविताएँ हैं। इन्होंने शहर की मुख्यधारा से सिर्फ़ लिपि उठाई है, बाक़ी सब इनका अपना है। नागर मुख्यधारा में रहते-बहते न इन कविताओं को रचा जा सकता है, न पढ़ा जा सकता है। इन्हें लिखने के लिए धीमी हवा की तरह बहते पानी की सतह जैसा मन चाहिए होता है, जो निश्चय ही कवि के पास है। कवि ने इन कविताओं को जैसे धीरे-धीरे उड़ती चिडिय़ों के पंखों से फिसलते ही अपनी भाषा की पारदर्शी प्याली में थाम लिया है, और फिर काग़ज़ पर सहेज दिया है। इनमें दु:ख भी है, सुख भी है, अभाव भी है, प्रेम भी, बिछोह भी, जीवन भी और मृत्यु भी, और इन कविताओं को पढ़ते हुए वे सब प्रकृति के स्वभाव जितने नामालूम ढंग से, बिना कोई शोर मचाए हमारे आसपास साँस लेने लगते हैं। यही इन कविताओं की विशेषता है कि ये अपनी विषयवस्तु के साथ इस तरह एकमेक हैं कि आप इनका विश्लेषण परम्परागत समीक्षा-औज़ारों से नहीं कर सकते। ये अपने आप में सम्पूर्ण हैं; और जिस चित्र, जिस अनुभव को आप तक पहुँचाने के लिए उठती हैं, उसे बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के जस का तस आपके इर्द-गिर्द तम्बू की तरह तान देती हैं, और अनजाने आप अगली साँस उसकी हवा में लेते हैं।
संग्रह की एक कविता ‘गड़रिये’ जैसे इन कविताओं के मिज़ाज को व्यक्त करती है—‘वे निर्जन में रहते हैं/ इनसानों की संगत के वे उतने अभ्यस्त नहीं हैं जितने प्रकृति की संगत के/...वे झाड़ों के सामने खुलते हैं/वे झिट्टियों के लाल-पीले बेरों से बतियाते हैं/...वे आकाश में पैदल-पैदल जा रही बारिश के पीछे-पीछे/दूर तक जाते हैं अपने रेवड़ सहित...’
ये कविताएँ अपने परिवेश के समूचेपन में पैदल-पैदल चलते हुए सुच्चे फूलों की तरह जुटाई गई कविताएँ हैं; जिनका प्रतिरोध, जिनकी असहमति उनके होने-भर से रेखांकित होती है। वे एक वाचाल समाज को थिर, निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए उसे उसकी व्यर्थता के प्रति सजग कर देती हैं, और उसके दम्भ को सन्देह से भर देती हैं।
Agar Main Sher Na Kahta
- Author Name:
Abbas Tabish
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- Description: Awating description for this book
Koi Doosra Naheen
- Author Name:
Kunwar Narain
- Book Type:

- Description: ‘कोई दूसरा नहीं’ की कविताएँ मन को केवल आह्लादित ही नहीं करतीं, बल्कि विवेक का सम्बल भी प्रदान करती हैं। व्यक्ति से समष्टि की ओर ले जानेवाली ये कविताएँ पाठकों की सामाजिक संचेतना में नई त्वरा और नए संवेग भरती हैं। भाषा जब अनुभव का दामन थामकर चलती है तब उसकी प्रभावोत्पादकता और सम्प्रेषण की क्षमता किस तरह परिपक्व और हृदयग्राही बन जाती है, उसकी मिसाल है—‘कोई दूसरा नहीं’ की कविताएँ। ये कविताएँ कभी सहजता से मन को सहलाती हैं तो कभी कोमलता से कल्पना की पाँखों को उत्प्रेरित करती हैं—निराडम्बर-उदात्त मानवीय संस्कारों को जगाती हैं और इसके साथ ही जीवन और जगत के कड़े यथार्थ का आरोहण भी करती हैं। कविताएँ तलाशती हैं वैसी परिस्थितियाँ और वैसा परिवेश भी जिसमें बेहतर इंसान की कल्पना साकार होती है। इन कविताओं की विशेषता है—प्रगाढ़ जीवनानुभव और सादगी।
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