
Dinkar Ki Sooktiyan
Author:
Ramdhari Singh DinkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
सूक्तियों की भूमिका अक्सर प्रेरक होती है। वे हमारी संवेदना और विचारों को स्पर्श कर परिष्कृत करने का काम करती हैं। वे किसी भी भाषा में लिखी गई हों, बोलचाल में इस तरह घुलमिल जाती हैं कि उद्देश्य हो या उपदेश उसकी पूर्व पीठिका की तैयारी में सहज ही उदाहरण बन व्यक्त हो जाती हैं, और बात की प्रामाणिकता तनिक बढ़ जाती है।</p>
<p>सूक्ति-संग्रह का रिवाज उर्दू में रहा है, मगर हिन्दी में यह यदा-कदा ही देखने को मिलता है। संस्कृत में भी एक समय सुभाषित-संचय की प्रथा ख़ूब बढ़ी थी। ऐसे शब्द-समूह, वाक्य या अनुच्छेदों को सुभाषित कहते हैं जिसमें कोई बात सुन्दर ढंग से या बुद्धिमत्तापूर्ण तरीक़े से कही गई हो। शायद इसी से प्रेरित हो कभी दिनकर जी ने भी कई सुभाषित रचे थे जो उनके ‘नये सुभाषित’ संग्रह में शामिल हैं। और दिनकर जी की मानें तो ‘वर्तमान संग्रह में नए सुभाषित से एक पंक्ति भी नहीं ली गई है। इस संग्रह की सभी सूक्तियाँ मेरे नाना काव्य-संग्रहों में से चुनी गई हैं।’ निस्सन्देह, ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ एक राष्ट्रकवि की एक ऐसी कृति है जो विचारोत्तेजक और मार्गदर्शक तो है ही, प्रखर चिन्तन और मानवतावादी दर्शन का एक अनुपम संग्रह भी है।
ISBN: 9789389243772
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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‘कैफ़ी’ के फ़िल्मी गीतों का मूल उर्दू पाठ ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के उनवान से 1974 में प्रकाशित हुआ था और तब से इसके अनेकों संस्करण सामने आ चुके हैं।
बेशक दूसरे फ़िल्मी गीतकारों की तरह ‘कैफ़ी’ की भी सीमाएँ रही हैं। क्या कहना है, इसका निश्चय गीतकार नहीं करता, फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक करते हैं।
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क्या है आख़िर ‘कैफ़ी’ के गीतों की वह विशेषता जो इनको दूसरे हज़ारों फ़िल्मी गीतों से अलग करती है ? बात बहुत सादा-सी है। ‘कैफ़ी’ ने किसी की छत पर कबूतरों को गुटुर-गूँ नहीं कराया, किसी की शालू का टाँका समोसे के आलू से नहीं भिड़ाया, किसी से ‘आ जा आ जा मोरे बालमा’ की पुकार भी नहीं लगवाई जो फ़िल्मी गीतकारों के लिए आसान-सा नुस्ख़ा है। ‘कैफ़ी’ उन गीतकारों में से नहीं जो फ़ख़्र से कहते हैं कि उन्होंने एक दिन में 23 गीत लिखे। इसके बजाय ‘कैफ़ी’ उन गीतकारों में एक हैं जो अपनी नज़्मों और ग़ज़लों की तरह अपने गीतों को भी महीनों तक माँजते रहते हैं और इस तरह अपनी रूह की गहराइयों से जो चीज़ निकालकर पेश करते हैं, वह तक़रीबन 24 कैरेट की होती है। इसीलिए ‘कैफ़ी’ के गीत उन हज़ारों गीतों में नहीं हैं कि इधर सिनेमा हॉल से फ़िल्म का बैनर उतरा और उधर उसके गीत भी लोगों की ज़बान से उतर गए। वो उतरें भी कैसे, उन्हें तो फ़िल्म देखनेवालों और गीत सुननेवालों ने ‘कैफ़ी’ की नहीं, अपनी आवाज़ समझकर अपनी रूह की गहराइयों में बसा लिया है !
‘कैफ़ी’ के इन्हीं गीतों का तबर्रुक (प्रसाद) आज ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के उनवान से हिन्दी पाठक के हाथों में है। सलाम इस आवाज़ पर और आवाज़ देनेवालों पर, सलाम ‘कैफ़ी’ के हमनवाओं पर, और सलाम उस रवायत पर जिसने ‘कैफ़ी’ को ‘कैफ़ी’ बनाया !!
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एक अद्वितीय तत्त्व हमें नरेश सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है और वह है मानव और प्रकृति के बीच लगभग सम्पूर्ण तादात्म्य—और यहाँ प्रकृति से अभिप्राय किसी रूमानी, ऐन्द्रिक शरण्य नहीं, बल्कि पृथ्वी सहित सारे ब्रह्मांड से है, वे सारी वस्तुएँ हैं जिनसे मानव निर्मित होता है और वे भी जिन्हें वह निर्मित करता है। मुक्तिबोध के बाद की हिन्दी कविता यदि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को नए अर्थों में अभिव्यक्त कर रही है तो उसके पीछे नरेश सरीखी प्रतिभा का योगदान अनन्य है। धरती को माता कह देना सुपरिचित है किन्तु नरेश उसके अपनी धुरी पर घूमने के साथ-साथ प्रदक्षिणा करने तथा उसके शरीर के भीतर के ताप, आर्द्रता, दबाव, रत्नों और हीरों से रूपक रचते हुए उसे पहले पृथ्वी-स्त्री सम्बोधित करते हैं। वे यह मूलभूत पार्थिव तथ्य भी नहीं भूलते कि आदमी कुछ प्राथमिक तत्त्वों से बना है—मानव-शरीर की निर्मिति में जल, लोहा, पारा, चूना, कोयला सब लगते हैं। ‘पहचान’ सरीखी मार्मिक कविता में कवि फलों, फूलों और हरियाली में अपने अन्तिम बार लौटने का चित्र खींचता है जो ‘पंचतत्त्वों में विलीन होने’ का ही एक पर्याय है।
नरेश यह किसी अध्यात्म या आधिभौतिकी से नहीं लेते—वे शायद हिन्दी के पहले कवि हैं जिन्होंने अपने अर्जित वैज्ञानिक ज्ञान को मानवीय एवं प्रतिबद्ध सृजन-धर्म में ढाल लिया है और इस जटिल प्रक्रिया में उन्होंने न तो विज्ञान को सरलीकृत किया है और न कविता को गरिष्ठ बनाया है। यांत्रिकी उनका अध्यवसाय और व्यवसाय रही है और नरेश ने नवगीतकार के रूप में अपनी प्रारम्भिक लोकप्रियता को तजते हुए धातु-युग की उस कठोर कविता को वरा, जिसके प्रमुख अवयव लोहा, क्रंक्रीट और मनुष्य-शक्ति हैं। एक दृष्टि से वे मुक्तिबोध के बाद शायद सबसे ठोस और घनत्वपूर्ण कवि हैं और उनकी रचनाओं में ख़ून, पसीना, नमक, ईंट, गारा बार-बार लौटते हैं। दूसरी ओर उनकी कविता में पर्यावरण की कोई सीमा नहीं है। वह भौतिक से होता हुआ सामाजिक और निजी विश्व को भी समेट लेता है। हिन्दी कविता में पर्यावरण को लेकर इतनी सजगता और स्नेह बहुत कम कवियों के पास है। विज्ञान, तकनीकी, प्रकृति और पर्यावरण से गहरे सरोकारों के बावजूद नरेश सक्सेना की कविता कुछ अपूर्ण ही रहती यदि उसके केन्द्र में असन्दिग्ध मानव-प्रतिबद्धता, जिजीविषा और संघर्षशीलता न होती। वे ऐसी ईंटें चाहते हैं जिनकी ‘रंगत हो सुर्ख/बोली में धातुओं की खनक/ऐसी कि सात ईंटें चुन लें तो जलतरंग बजने लगे’ और जो घर उनसे बने उसे जाना जाए ‘थोड़े से प्रेम, थोड़े से त्याग और/थोड़े से साहस के लिए’, किन्तु वे यह भी जानते हैं कि उन्हें ढोनेवाली मज़दूरिन और उसके परिवार के लिए वे ईंटें क्या-क्या हो सकती हैं। जब वे दावा करते हैं कि दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा है तो उन्हें यह ज़िम्मेदारी भी याद आती है कि ‘फिर दुनिया-भर में बहते हुए ख़ून और पसीने में/हमारा भी हिस्सा होना चाहिए।’ पत्थरों से लदे ट्रक में सोए या बेहोश पड़े आदमी को वे जानते हैं जिसने ‘गिट्टियाँ नहीं अपनी हड्डियाँ तोड़ी हैं/और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया’। उधर हिन्दुत्ववादी फासिस्ट ताक़तों द्वारा बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर उनकी छोटी-सी कविता—जो इस शर्मनाक कुकृत्य पर हिन्दी की शायद सर्वश्रेष्ठ रचना है—अत्यन्त साहस से दुहरी धर्मान्धता पर प्रहार करती है : ‘इतिहास के बहुत से भ्रमों में से/ एक यह भी है/कि महमूद गज़नवी लौट गया था/लौटा नहीं था वह/यहीं था/सैकड़ों बरस बाद अचानक/वह प्रकट हुआ अयोध्या में/सोमनाथ में उसने किया था/अल्लाह का काम तमाम/इस बार उसका नारा था/जय श्रीराम।’
टी.एस. इलियट ने कहीं कुछ ऐसा कहा है कि जब कोई प्रतिभा या पुस्तक साहित्य की परम्परा में शामिल होती है तो अपना स्थान पाने की प्रक्रिया में वह उस पूरे सिलसिले के अनुक्रम को न्यूनाधिक बदलती है—वह पहले जैसा नहीं रह पाता—और ऐसे हर नए पदार्पण के बाद यह होता चलता है। नरेश सक्सेना के साथ जटिल समस्या यह है कि यद्यपि वे पिछले चार दशकों से पाठकों और श्रोताओं में सुविख्यात हैं और सारे अच्छे—विशेषत: युवा—कवि उन्हें बहुत चाहते हैं किन्तु अपना पहला संग्रह वे हिन्दी को उस उम्र में दे रहे हैं जब अधिकांश कवि (कई तो उससे भी कम आयु में) या तो चुक गए होते हैं या अपनी ही जुगाली करने पर विवश होते हैं। अब जबकि नरेश के कवि-कर्म की पहली, ठोस और मुकम्मिल क़िस्त हमें उपलब्ध है तो पता चलता है कि वे लम्बी दौड़ के उस ताक़तवर फेफड़ोंवाले किन्तु विनम्र धावक की तरह अचानक एक वेग-विस्फोट में आगे आ गए हैं जिसके मैदान में बने रहने को अब तक कुछ रियायत, अभिभावकत्व, कुतूहल और किंचित् परिहास से देखा जा रहा था। उनकी जल की बूँद जैसी अमुखर रचनाधर्मिता ने आख़िरकार हिन्दी की शिलाओं पर अपना हस्ताक्षर छोड़ दिया है और काव्येतिहास के पुनरीक्षण को उसी तरह लाज़िमी बना डाला है जैसे हमारे देखते-देखते मुक्तिबोध और शमशेर ने बना दिया था।
—विष्णु खरे
Vishwa Sangeet Ka Itihas
- Author Name:
Amal Dash Sharma
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Description:
संगीत के इतिहास से हम क्या समझते हैं? केवल घटनाओं का समावेश करना ही इतिहास नहीं कहलाता, बल्कि उन घटनाओं के परस्पर सम्बन्धों का समन्वय करना भी अत्यन्त आवश्यक है; अर्थात् कब, कहाँ और कैसे उन घटनाओं का विकास हुआ, उन सबका यथार्थ वर्णन और कालक्रम की दृष्टि से उपलब्ध सभी तत्त्वों और तथ्यों का प्रामाणिक रूप में समावेश—यह सभी कुछ इतिहासकार का कर्तव्य है। वस्तुतः संगीत का विकास मनुष्य जाति के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। इसमें हज़ारों वर्षों का समय लगा है। इसी कालावधि में संगीत का भी विकास हुआ है। इसलिए संगीत कला के इतिहास की व्याख्या के लिए उस समूचे काल को कई भागों में बाँटकर देखना होगा।
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए लेखक ने विश्व-संगीत के इतिहास को भी—कालक्रम से प्राचीन, मध्य एवं आधुनिक—मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित कर विवेचित किया है तथा विभिन्न संस्कृतियों और शासनकाल के आधार पर उसे उपभागों में बाँटकर देखा है। इस क्रम में लेखक ने भारतीय संगीत को एक जाति की असाधारण मनीषा के इतिहास के रूप में रेखांकित करते हुए विश्व-संगीत के इतिहास में उसके अमूल्य अवदान का मूल्यांकन किया है।
Ichchaon Ke Jivashm
- Author Name:
Usman Khan
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- Description: उस्मान ख़ान की कविता उखड़े हुए नागरिक के एलिएनेशन की कविता है। आततायी राज्य, अन्याय, सत्तात्मक दम्भ, लूट, निर्बुद्धिकरण और कुबुद्धिकरण, राजनीतिक पतन, सामाजिक विषमता और विभाजन ने उस्मान को आन्दोलित कर रखा है। वे बेज़ार हैं। यह मामूली मोहभंग नहीं है। लेकिन यह ग़ैरमामूली असन्तोष उन्हें न तो निरुपाय बनाता है और न ही असंयत। उनके यहाँ भाषा एक बड़े उपाय में बदल जाती है। लोकतंत्र, सत्ता और समाज के स्लम को वर्णित करने के लिए उस्मान को ‘स्ट्रीट लैंग्वेज’ उपलब्ध होती जाती है जो हिन्दुस्तानी विपन्नता, दारिद्र्य, असहमति और बेदखली की अस्ल अभिव्यंजना है। इस जन भाषा, जो नई हिन्दुस्तानियत की द्रोह-भाषा सरीखी है, को पाने के बाद उस्मान ख़ान समकालीन हिन्दी के मध्यवर्गीय टकसाली भाषिक रूप-बन्ध को आहिस्ता से परे हटा देते हैं और अपने निहंग अनुभवों और देखन को किसी निचाट ज़बान के हवाले कर देते हैं। इसीलिए उस्मान को पढ़ना काफ़ी कुछ ख़ुसरो की याद दिलाता है। तब यह बात भी खुल जाती है कि कविता के अपने कारोबार में वह ला-सानी हैं। कोई उन जैसा नहीं, वह किसी जैसे नहीं। फिर भी मुक्तिबोध की चिन्ताओं और राजकमल की उखड़ी हुई साँसों वाली कविता का यदि कोई काव्याकार देखना हो तो उस्मान ख़ान की बेचैन चहलक़दमियों में वह दिख जाएगा। और अपनी इस बेचैनी में वह मुक्तिबोध की तरह एक बडे भूभाग में नहीं भटकते—उनकी दुविधाएँ और द्वन्द्व बेहद संघनित और आन्तरिक होने के साथ ही प्रतिरोधात्मक और वैचारिक होते जाते है। जीवन के नष्ट होने की वजह यदि जनविरोधी तंत्र है तो इसका विकल्प ढूँढ़ना पड़ेगा जो तुरत-फुरत तो हासिल नहीं हो सकता। कह लीजिए कि उस्मान सामूहिक आत्मन् के निर्माण को किसी सतत् धीरज का परिणाम मानने से विरत नहीं होते। विपत्तियों को देखने-समझने का जो हुनर उन्होंने हासिल किया है और फ़कीरी बेबाक़ी, बाँकपन और तंज़ के साथ कहने की जो शैली उन्होंने पा ली है, हिन्दी कविता के समकाल में वह बड़ी रचनात्मक उपलिब्ध है जो उस्मान की क़द-काठी को नायाब और अप्रतिम बनाती है और अपनी पीढ़ी का सबसे निराला राजनीतिक काव्य-व्यक्तित्व। -देवी प्रसाद मिश्र
Deewan-E-Meer
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मीर तक़ी मीर भारतीय कविता के उन बड़े नामों में से हैं, जिन्होंने लोगों के दिलो-दिमाग़ में स्थान बनाया हुआ है। अपनी शायरी को दर्द और ग़म का मज़मूआ बताते हुए मीर ने यह भी कहा है कि मेरी शायरी ख़ास लोगों की पसन्द की ज़रूर है, लेकिन ‘मुझे गुफ़्तगू अवाम से है।’ और अवाम से उनकी यह गुफ़्तगू इश्क़ की हद तक है। इसलिए उनकी इश्क़िया शायरी भी उर्दू शायरी के परम्परागत चौखटे में नहीं अँट पाती। इन्सानों से प्यार करके ही वे ख़ुदा तक पहुँचने की बात करते हैं, जिससे इस राह में मुल्ला-पंडितों की भी कोई भूमिका नज़र नहीं आती। यही नहीं, मीर की अनेक ग़ज़लों में उनके समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों तथा व्यक्ति और समाज की आपसी टकराहटों को भी साफ़ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है, जो उन्हें आज और भी अधिक प्रासंगिक बनाती हैं।
दरअसल मीर की शायरी भारतीय कविता, ख़ास कर हिन्दी-उर्दू की साझी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा सबूत है, जो उनकी रचनाओं के लोकोन्मुख कथ्य और आम-फहम गंगा-जमुनी भाषायी अन्दाज़ में अपनी पूरी कलात्मक ऊँचाई के साथ मौजूद है।
Ahalya
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पेट भरने के प्रबन्ध के बाद जो समस्या सामने आती है, वह है—सम्भोग की। यह समस्या उदित होती है किशोरावस्था में, और यौवन से प्रौढ़ावस्था के ढल जाने तक चलती है। इस समस्या के समाधान के लिए क्या किया जाए? जब तक सम्पन्नता एवं स्वस्थ मनोवृत्ति निर्मित नहीं होती है और सबका एक निवास-स्थल और पति-पत्नी के अलग नीड़ का प्रबन्ध नहीं होता है तब तक सरकार के नियंत्रण में स्त्री-पुरुषों की ऐसी संस्थाओं की स्थापना करना अनुचित न माना जाए, जहाँ प्रेम-प्रधान मनोविनोद एवं कलात्मक वातावरण रहे, ताकि सम्भोग की मूल प्रवृत्ति का मार्गान्तरीकरण हो सके। तब भी बलात्कार की घटनाएँ होती हों तो फिर दंड-विधान प्रभावी हो सकता है अन्यथा हर क्षण, हर एकान्त स्थली और हर व्यक्ति बलात्कार की सृष्टि के साधक हो सकते हैं। 'अहल्या’ में यही दिखाया गया है। स्त्री-पुरुष के मिलन की घटनाओं को राजकुमार राम की तरह अधिक तूल न देकर सहानुभूति से जाँचने की आवश्यकता है। किसी भी कारण सर्वसम्पन्न इन्द्र और कुलीन अहल्या का संयोग-वृत्त उन्हें अक्षम्य शाप-दंड की परिधि के अन्दर नहीं ले जाता है। राम के आदेश पर शाप-दंड दाता गौतम सबको क्षमा करता है। ठीक है, थाली में रखे भोजन को खाने से जूठा हो जाने की तरह नारी जूठी नहीं हो जाती है, वह केवल सम्भोग-सामग्री नहीं, पूज्य माँ है। राम अपने मुँह से 'माँ! उठो’, कहकर ही सबकी दृष्टि में उसका उद्धार करते हैं और गौतम उसे पाकर अपने को धन्य समझता है। अहल्या, जो कि इस काव्य की नायिका है, उसके माध्यम से नारी के पुरुष-सम्पर्क से उद्भूत समस्याओं का आकलन करना तथा उनका समाधान ढूँढ़कर उसे एक दिशा दिखाना मेरे इस काव्य का प्रमुख उद्देश्य है। काव्य-कर्ता को वस्तु की प्रबन्धात्मकता के औचित्य के अन्दर समाहित करने में काव्यशास्त्र का सहारा लेना पड़ता है। फलत: वस्तुगत सत्य और साहित्यिक सत्य में कुछ भिन्नता आ जाती है, अत: विद्वज्जन को मेरे काव्य में भिन्नता दिखाई देगी, हालाँकि मैंने अपनी ओर से विभिन्न स्रोतों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है।
—'प्रस्तावना’ से
Weekend Wali Kavita
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- Description: सुबह का वक़्त कपालभांति में गुज़ारा, तो चाय पर पत्नी के विचार छूट गए। कॉर्नफ़्लेक्स और फ़्रूट प्लेट में रखे, तो आलू के परांठे और नींबू के अचार छूट गए। न ज़िन्दगी की ये छोटी-बड़ी उलझने बदलती हैं, ना हम बदलते है।कविताएँ बस इन्हें देखने का नज़रियाँ बदल देती हैं।लाख योजनाओं के बावज़ूद जैसे हम अस्त-व्यस्त-सी ज़िन्दगी जीते हैं, ठीक उसी तरह इस संग्रह की कविताएँ भी बेतरतीब विषयों पर लिखी गयी हैं।कई बार हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी बिलकुल नीरस हो जाती है, जैसे जेठ की दुपहरी में सड़क पर लावारिस पड़ा टीन का डिब्बा। इसी ज़िन्दगी से निकली इन कविताओं को फुर्सत के पलों में पढ़ियेगा, क्या पता उस जेठ की नीरसता को बसंत की नज़र लग जाए।
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'खोई चीज़ों का शोक' सघन भावनात्मक आवेश से युक्त कविताओं की एक शृंखला है जो अत्यन्त निजी होते हुए भी अपने सौन्दर्यबोध में सार्वभौमिक हैं। ये कविताएँ जीवन, प्रेम, मृत्यु और प्रकृति के अनन्त मौसमों से उनके सम्बन्ध पर भी सोचती हैं, इसलिए इनका एक पहलू दार्शनिक भी है। कुछ खोने के शोक के साथ, किसी और लोक में उसे पुनः पाने की उम्मीद भी इन कविताओं में है। कवि के हृदय से सीधे पाठक के हृदय को छूने वाली ये कविताएँ सहानुभूति से ज़्यादा हमसे हमारी नश्वरता पर विचार करने की माँग करती हैं। संग्रह में शामिल शीर्षक कविता किसी अपने के बिछोह पर एक अभूतपूर्व और कभी भुलाई न जा सकने वाली श्रद्धांजलि है।
—के. सच्चिदानंदन
'खोई चीज़ों का शोक' की अधिकतर कविताएँ मृत्यु के साथ एक अन्तरंग संवाद हैं। यह संवाद एक नहीं अनेक दिशाओं में खुलता है। प्रिय साथी की मृत्यु चहुँओर प्रवाहित हो रही मृत्यु की अनगिनत धारों के करीब होने का बहाना मुहैया करती है। अपने भीतर की मृत्यु, सामाजिक जीवन की मृत्यु, आततायी राजनीति की सहचर मृत्यु, पृथ्वी और उसकी आकाश की मृत्यु। सब मृत्युएँ जीवन की वासना के साथ घुल-मिलकर रहती-सहती हैं, बोलती-बतियाती हैं। यह देखना बहुत उत्तेजक है कि पिछले संग्रहों में पुरुष साथी को हमेशा अन्य पुरुष की तरह सम्बोधित करने वाली कवयित्री इस संग्रह में उसी के भीतर परकाया प्रवेश करती है। वह उसकी मृत्यु को अपने भीतर और अपनी मृत्यु को उसके भीतर खोजते हुए मृत्यु के स्त्री-आशय का उन्मेष करती है। जिस मृत्यु को पितृसत्ता ने हमेशा जीवन के समापन के रूप में तिरस्कृत किया, उसी को सविता जी की कविता ने इस संग्रह में जीवन के अन्तहीन संघर्ष के रूप में पुनराविष्कृत किया है। यह मृत्यु की भी मुक्ति है।
—आशुतोष कुमार
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