Hanso Hanso Jaldi Hanso
Author:
Raghuvir SahayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
रघुवीर सहाय विडम्बना के खोजी कवि हैं। समाज और उसके ऊपर-नीचे खड़ी-पड़ी तमाम संरचनाओं, यथा राजनीति, शासन-प्रशासन और ताक़त से बने या ताक़त से बिगड़े अनेक मूर्त-अमूर्त फ़ॉर्म्स को वे एक नई और असंलग्न निगाह से देखते हैं। इस बहुपठित-बहुचर्चित संग्रह की अनेक कविताएँ, जिनमें अत्यन्त प्रसिद्ध कविता, 'रामदास' भी है उनकी उसी असंलग्नता के कारण इतनी भीषण बन पड़ी है। वह असंलग्नता जो अपने समाज से बहुत गहरे, बेशर्त जुड़ाव के बाद किसी शुभाकांक्षी मन का हिस्सा बनती है।</p>
<p>वे इस समाज और उसको चला रही व्यवस्था को बदलने की इतनी गहरी आकांक्षा से बिंधे थे कि कविता भी उन्हें कवि न बनाकर एक चिन्तित सामाजिक के रूप में प्रक्षेपित करती थी। इसीलिए उनकी हर कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता के विस्तार की तरह नहीं, एक नई शाखा की तरह प्रकट होती थी। यह संग्रह अपने संयोजन में स्वयं इसका साक्षी है कि हर कविता न तो शिल्प में, और न ही भाषा में अपनी किसी परम्परा का निर्माण करने की चिन्ता करती दिखती और न किसी और काव्य-परम्परा का निर्वाह करती। हर बार उनका कवि समाज नामक दु:ख के इस विस्तृत पठार में एक नई जगह से उठता दिखाई देता है और पीड़ा के एक नए रंग, नए आकार का ध्वज लेकर।</p>
<p>ये कविताएँ बार-बार पढ़ी गई हैं और बार-बार पढ़े जाने की माँग करती हैं। आज भी, क्योंकि, हमारे समूह-मन की जिन दरारों की ओर इन कविताओं ने संकेत किया था, आज वे और गहरी हो गई हैं।
ISBN: 9788126728183
Pages: 96
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी में हास्य-व्यंग्य कविताओं का उदय मुख्यतः स्वतंत्रता के बाद हुआ। बेढब बनारसी, रमई काका, गोपालप्रसाद व्यास और काका हाथरसी आदि कवियों ने हिन्दी की ज़मीन में हास्य-व्यंग्य कविताओं के बीज बोए। कालान्तर में, ख़ासकर सन् 1970 के बाद, ये बीज भरपूर फ़सल बने और लहलहाए। जीवन में बढ़ते तनाव ने हास्य-व्यंग्य को कवि सम्मेलनों के केन्द्र में स्थापित कर दिया। इसने लोकप्रियता के शिखर छुए। देश में ही नहीं, विदेश में भी। हिन्दीभाषियों में ही नहीं, अहिन्दीभाषियों में भी।
इस ऐतिहासिक प्रक्रिया में कुछ कविताओं की भूमिका विशेष रही। इस पुस्तक में वही कविताएँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इस दृष्टि से कि कोई एक संकलन ऐसा हो, जो हिन्दी की सर्वाधिक सराही गई हास्य-व्यंग्य कविताओं का प्रतिनिधित्व सचमुच कर सके। इस दृष्टि से भी कि हिन्दी की महत्त्वपूर्ण हास्य-व्यंग्य कविताओं के समुचित मूल्यांकन के लिए आधार-सामग्री एक जगह उपलब्ध हो सके।
उम्मीद है कि प्रस्तुत प्रयास आज़ादी के बाद की हास्य-व्यंग्य प्रधान कविताओं और उनमें व्यक्त देश-काल की विडम्बनाओं-विद्रूपताओं को रेखांकित करने की भूमिका अदा करेगा; और कविता-संवेदना की इस धारा की क्षमताओं को सामने लाने में भी सफल होगा।
Dilfareb
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Ullanghan
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Rajesh Joshi
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उल्लंघन संग्रह में कवि हुक्म-उदूली की अपनी प्राकृतिक इच्छा से आरम्भ करते हुए मौजूदा दौर की उन विवशताओं से अपनी असहमति और विरोध जताता है, जिन्हें सत्ता हमारी दिनचर्या का स्वाभाविक हिस्सा बनाने पर आमादा है।
एक ऐसे समय में ‘जिसमें न स्मृतियाँ बची हैं/न स्वप्न और जहाँ लोकतंत्र एक प्रहसन में बदल रहा है/एक विदूषक किसी तानाशाह की मिमिक्री कर रहा है’—ये कविताएँ हमें निर्प्रश्न अनुकरणीयता के मायाजाल से निकलने का रास्ता भी देती हैं, और तर्क भी।
कवि देख पा रहा है कि ‘सिकुड़ते हुए इस जनतंत्र में सिर्फ़ सन्देह बचा है’, ताक़त के शिखरों पर बैठे लोग नागरिकों को शक की निगाह से देखते हैं, तरह-तरह के हुक्मों से अपने को मापते हैं; कहते हैं कि साबित करो, तुम जहाँ हो वहाँ होने के लिए कितने वैध हो, और तब कविता जवाब देती है–‘ओ हुक्मरानो/मैं स्वर्ग को भूलकर ही आया हूँ इस धरती पर/तुम अगर मुझे नागरिक मानने से इनकार करते हो/तो मैं भी इनकार करता हूँ /इनकार करता हूँ तुम्हें सरकार मानने से!’
लगातार गहरे होते राजनीतिक-सामाजिक घटाटोप के विरुद्ध पिछले चार-पाँच सालों में जो स्वर मुखर रहते आए हैं, राजेश जोशी उनमें सबसे आगे की पाँत में रहे हैं। इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ इसी दौर में लिखी गई हैं। कुछ कविताएँ महामारी के जारी दौर को भी सम्बोधित हैं जिसने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के सरकारी उद्यम पर जैसे एक औपचारिक मुहर ही लगा दी–‘सारी सड़कों पर पसरा है सन्नाटा/बन्द हैं सारे घरों के दरवाज़े/एक भयानक पागलपन पल रहा है दरवाज़ों के पीछे/दीवार फोड़कर निकल आएगा जो/किसी भी समय बाहर/और फैल जाएगा सारी सड़कों पर!’
Monalisa Ki Aankhen
- Author Name:
Suman Keshari
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सुमन केशरी की कविताएँ एक आधुनिक स्त्री की कविताएँ हैं : वे जितनी एक आधुनिक चौकस व्यक्ति हैं, उतनी ही एक संवेदनशील और सजग स्त्री भी। उनमें एक गहरा अवसाद और प्रतिरोध है लेकिन चीख़-पुकार नहीं। वे घटनाओं और आसपास जो हो रहा है, उससे प्रतिकृत तो होती हैं लेकिन उसे नाटकीय वक्तव्य बनाने से बचती हैं। उनके पास आधुनिकता का अतिरेक नहीं, संवेदना का सहज संयम है। उनकी कविता में मोनालिसा, माँ, बेटी, पूर्वज, सपने, चिड़िया, मणिकर्णिका, सम्बन्ध, औरत सब जीवन की असंख्य छवियों में से कुछ की तरह विन्यस्त होते
हैं।सुमन केशरी की कविता यह अहसास बनाए रखती है कि जीवन विस्तृत और अबाध है और कविता उस पर, उस विशाल और जटिल वितान पर ससंकोच खुली खिड़की-भर है। उनकी कविता में कई मर्मचित्र हैं जो मन में बिंध से जाते हैं : ‘लहू का आलता लगाए’, ‘सुनो बिटिया/मैं उड़ती हूँ/खिड़की के पार चिड़िया बन/तुम आना’, ‘अपने ही तारे को/अस्त होते देखना/मरने जैसा है/धीरे...धीरे’, ‘पीठ दिए एक चिता को/धोती सुखाता दूसरी की आँच में/प्रेत-सा खड़ा’, ‘बिटिया बोली/चिड़िया का बच्चा बोला’, ‘चुटकी-भर विश्वास/नमक-सा’ आदि।
सुमन केशरी का संग्रह काव्य-कौशल की परिपक्वता और अनुभव के विस्तार के लिए उल्लेखनीय है। —अशोक वाजपेयी।
Do Sharan
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Suryakant Tripathi 'Nirala'
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निराला की सम्पूर्ण गीत-रचना का एक बहुत बड़ा भाग शरणागति या प्रपत्ति-भाव के गीतों से सम्बद्ध है। भक्ति, प्रार्थना और शरणागति के गीत ‘परिमल’ संग्रह से ही हमें मिलने लगते हैं। इसकी क्षीण ध्वनि उनके पहले संग्रह ‘अनामिका’ की ‘माया’ कविता में हमें सुनाई देती है। ‘या कि ले कर सिद्धि तू आगे खड़ी, त्यागियों के त्याग की आराधना’—कहकर कवि अपनी रचनात्मकता की उस विशेष दिशा की ओर संकेतित करता है, जो आगे चलकर उसके अवसाद, उसकी उदासी, खिन्नता, मृत्यु-भय और आत्म-जर्जरता से होती हुई, अन्ततः शरणागति की प्रार्थना-भूमि पर उसे उतारती है।
‘आराधना’ और ‘अर्चना’ में उसकी संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। अकेले ‘अर्चना’ में शरणागति के लगभग 34-35 गीत संगृहीत हैं। ‘गीत-गुंज’ और उनके अन्तिम संग्रह ‘सांध्य काकली’ में भी यह प्रार्थना-क्रम तिरोहित नहीं हुआ है। यद्यपि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में निराला ‘प्रार्थना की व्यर्थता’ की बात भी करते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन यह उत्कट नैराश्य के क्षणों की ही अभिव्यक्ति लगती है, अन्यथा वे अपनी कारुणिक आत्म-जर्जरता में लगातार ‘प्रभु’ की अमर फ़ैंटेसी में शरण लेते हुए दिखाई देते हैं। उनके सारे संग्रहों को मिलाकर शरणागति और प्रार्थना-क्रम के इन गीतों की संख्या लगभग 90 के आस-पास पहुँचती है। इस तरह निराला के अन्तःसंगीत का एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाग ‘प्रभु’ के इसी साक्षात्कार से सम्बद्ध है।
वरिष्ठ लेखक दूधनाथ सिंह ने निराला की प्रपत्ति भाव की कविताओं को संकलित किया है। इन कविताओं में मनुष्य की उस आत्मिक मुक्ति की जद्दोजहद को सहज ही परिलक्षित किया जा सकता है, जो दरअसल सम्पूर्ण मानवमुक्ति का एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य हिस्सा है।
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