Isliye Kahungi Main
Author:
Sudha UpadhyayaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Unavailable
यह दर्ज करना उचित होगा कि इधर की हिन्दी कविता में अभिधा के प्रति बढ़ती उदासीनता के बावजूद सुधा उपध्याय उसकी शक्ति और सम्भावनाओं का अन्वेषण करने से नहीं हिचकतीं और सीधी बात को सीधे तरीक़े से कहने में संकोच नहीं करतीं...</p>
<p>‘उन सबका आभार/जिनके नागपाश में बँधते ही/यातना ने मुझे रचनात्मक बनाया उनका भी हृदय से आभार/जिनके घात-प्रतिघात/छल-छद्म के संसार में/मैं घंटे की तरह बजती रही।/मेरे आत्मीय शत्रु/तुमने तो वह सब कुछ दिया/जो मेरे अपने भी न दे सके।’</p>
<p>यहाँ कटुता या प्रतिहिंसा नहीं, जीवन की शर्तों का सामना उद्वेगरहित भाव से करनेवाला साहस है। वह इस कवयित्री को ‘अबला जीवन, हाय तुम्हारी यही कहानी—आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ वाली पारम्परिकता से तो भिन्न बनाता ही है; बल्कि सुधा उपाध्याय की इन कविताओं में जो नारी-चेतना आदि से अन्त तक फैली हुई है, वह न अबला की ‘हाय’ से शुरू होती है, न जगत के दु:ख-संकटमय जंत्र को ‘चकनाचूर’ करने की दुराशा में ख़त्म दिखती है। उलटे, वह हालात को बदलने में यक़ीन करती है जिसके तमाम पड़ावों में से कुछ ये हैं—‘सुना है वह स्त्री/हो गई है अब ख़ुद के भी ख़िलाफ़/चीख़-चीख़कर दर्ज करा रही है सारे प्रतिरोध/कहती है, सहना और चुपचाप रहना/कल की बात थी।’</p>
<p>यदि कोई पूछे कि अँधेरों से लड़ने की क़ूवत/औरत, तूने कहाँ से जुटाई/ये आईना जो दरक गया था कभी का/इसे फिर कहाँ से उठा लाई?’ तो सुधा के पास उत्तर मौजूद है—‘अब पेंसिलों की धार बनाने से पहले/हँसिए की धार बनानी होगी/दिमाग़ चलाने के साथ, चलाने होंगे हाथ/दूसरों को कहने से पहले/अब दिखाना होगा ख़ुद करके।’</p>
<p>लेकिन यह समझने के लिए दूर जाना ज़रूरी नहीं कि सुधा को हँसिए की धार बनानी है—ख़ुद करके दिखाने के लिए, न कि प्रतिपक्ष की गरदन रेतने के लिए : ‘जब पक कर खड़ी हो जाए फ़सल/बाँट दो बूरा-बूरा/चूरा-चूरा/यही है सृजन।’</p>
<p>सन्तोष का विषय यह है कि सुधा उपाध्याय की दृष्टि निकट और तत्काल तक सीमित नहीं; वह इतिहास और अतीत को भी अपने फलक का हिस्सा बनाती हैं। वहाँ सम्भावनाओं के अनेक द्वार खुलने की प्रतीक्षा में होंगे।
ISBN: 9788183616218
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
साँस–भर ज़िन्दगी, पेट–भर अन्न, लिप्सा–भर प्यार, लाज–भर वस्त्र, प्राण–भर सुरक्षा—अर्थात् तिनका–भर अभिलाषा की पूर्ति के लिए मनुष्य धरती के इस छोर से उस छोर तक बेतहाशा भागता और निरन्तर संघर्ष करता रहता है। जीवन और जीवन की इन्हीं आदिम आवश्यकताओं रोटी, सेक्स, सुरक्षा, प्रेम–प्रतिष्ठा–ऐश्वर्य, बल–बुद्धि–पराक्रम के इन्तज़ाम में जुटा रहता है। इसी इन्तज़ाम में कोई शेर और कोई भेड़िया हो जाता है, जो अपनी उपलब्धि के लिए दूसरों को खा जाता है, और कोई भेड़–बकरा, हिरण–ख़रगोश हो जाता है, जो शक्तिवानों के लिए उपकरण–भर होता है।
राजकमल चौधरी की कविताएँ मशीन और मशीनीकरण, पश्चिमी देशों और पश्चिमी व्यवसायों, संस्कृतियों से प्रभावित–संचालित आधुनिक भारतीय समाज और सभ्यता के इसी जीवन–संग्राम की अन्दरूनी कथा कहती हैं।
सन् 1950–1956 के बीच लिखी गई अप्रकाशित कविताओं का यह संकलन हमारे समाज की इन्हीं स्थितियों की जाँच–पड़ताल करता नज़र आता है। सुखानुभूति, जुगुप्सा और क्रोध इनकी तमाम रचनाओं से ये तीन परिणतियाँ पाठकों के सामने बार–बार आती हैं और ऐसा इस संकलन में भी है।
राजकमल की कविताओं में घटना और विषय के मुक़ाबले ‘शब्द’ बहुत अर्थ रखता है। ये ‘शब्द’ ही इन कविताओं को कहीं कविता की लयात्मकता में जलतरंग की ध्वनियों के साथ सुखानुभूति से भर देते हैं, कहीं सभ्य इनसान की ग़लीज़ हरकतों के कारण जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं और कहीं देवताओं की दानवी प्रवृत्ति पर ज्वालामुखी फटने–सा क्रोध।
संकलन की हरेक कविता अपनी मौलिक ताज़गी और निजी गुणवत्ता के कारण भावकों, पाठकों से बहस करती है। भावकों के अन्दर सत्–असत् को लड़ाकर, सत् को विजय दिलाती है। राजकमल की कविता में यही विजय ‘शब्द’ की विजय है।
Mirza Ghalib
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Mirza Ghalib
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- Description: हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’ कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
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