Dharashayi Hebaak Samay
Author:
Taranand ViyogiPublisher:
Antika Prakashan Pvt. Ltd.Language:
MaithiliCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 213.2
₹
260
Available
मैथिली साहित्यक आधुनिक काल जहिया सँ प्रतिष्ठापित भेल, मैथिलीक साहित्यकार-समाज सेहो एहि मर्मान्तक दृश्य सब केँ साहित्य मे मूर्त करैत रहला अछि। दुनिया जें कि प्रौद्योगिक विकास पर चढ़ैत आइ ग्लोबल विलेज भ' गेल अछि, कोविड-19 नामक अइ महामारीक प्रकोप सेहो मनुष्यक नक्शे-कदम पर चलैत ग्लोबल जटिलता सँ भरल-पुरल साबित भ' रहल अछि। भारत सहित दुनियाक तमाम भाषा मे साहित्यकार लोकनि अइ अभूतपूर्व परिस्थिति केँ शब्दांकित करैत देखल गेला अछि। मैथिली अइ मे पाछू नहि रहल अछि। तारानंद वियोगीक ई संग्रह कविता मे कोरोना-काल केँ दृश्यांकित करबाक चेष्टा थिक। महामारीक फैलाव, एकर चुनौती, मानव-संबंध पर पड़ल एकर असर, व्यवस्था आ विज्ञानक लाचारगी, प्रभावित लोकनिक हाहाकार—सब कथू अइ कविता सब मे जगह-जगह आयल अछि। प्रकृति सँ दूर हटैत उत्तर आधुनिक मनुष्यक सभ्यता केँ ल' क' कतेको ठाम वियोगी कइएक मूलभूत प्रश्न सब उठबैत छथि। प्रकृतिक स्वयं मे की संकेत अछि, आ विकासक पैमाना कोना अपूर्ण अछि, इहो सब प्रसंग ठाम-ठाम आयल अछि। कवि अपने सेहो कोरोना सँ संक्रमित भेला, कठिन परिस्थिति सँ जूझैत स्वास्थ्य-लाभ केलनि। घोर आदंकक दौर मे सेहो ओ रोगग्रस्त अवस्था मे प्रतिदिन कविता-डायरी लिखलनि, सेहो अइ संग्रह मे संगृहीत अछि। ई मनुष्यक जिजीविषाक ज्वलंत निदर्शन बनि क' सोझा आयल अछि। वियोगीक काव्य के सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता ओकर लोकधर्मिता अछि। हुनक काव्य भाषाक सहजता, सरलता आ बिम्बधर्मिता ओकरा अत्यधिक व्यंजक बनबैत अछि। ओ मर्मस्पर्शी काव्य शिल्पक रचनाकार तँ छथिहे, सब सँ रोचक अछि वियोगीक काव्यभाषा, जकरा लेल ओ सब दिन स्मरण कयल जेता। —केदार कानन
ISBN: 9789388799799
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी साहित्य में मार्कण्डेय की पहचान मुख्यतः कहानीकार के रूप में है। 2-डी, मिन्टो रोड से सीधे जुड़े रहे लोग भी उन्हें एक बेहतरीन क़िस्सागो के रूप में ही याद करते हैं। लेकिन देश और समाज-संस्कृति की लेकर उनकी चिन्ताएँ व ज़िम्मेदारी का भाव उन्हें कहानी से निर्बन्ध भी करता रहता और विचार-रूप में सीधे व्यक्त हो उठता। यह पुस्तक मार्कण्डेय की इस पहचान को सामने लाती है।
इस पुस्तक की अन्तर्वस्तु का फैलाव साहित्य से लेकर राजनीति की हद तक है। मार्कण्डेय यहाँ जिस चिन्तनधारा व इतिहासबोध को अपनाते हैं, वह आधुनिक समाज-विज्ञानों से आता तो है लेकिन अपने समाज की आन्तरिक स्थिति, ‘जन’ तथा ‘लोक’ से अन्तःक्रिया के साथ।
इस पुस्तक में वैचारिक लेखों के आलावा ‘गोदान’ तथा अन्य ग्राम-उपन्यासों पर लिखे लेख तथा पुस्तक समीक्षाएँ भी शामिल हैं। लोक-साहित्य पर दो लेख और दो भाव-चित्र हैं जो आधुनिक और प्रगतिशील दृष्टि को ही अपना प्रस्थान-बिन्दु बनाते हैं। इस पुस्तक में मार्कण्डेय सर्वथा भिन्न रूप में पाठकों से रू-ब-रू होते हैं। मार्कण्डेय के साहित्य-संवाद का यह संस्करण ‘प्रगतिशील साहित्य की ज़िम्मेदारी’ पर खरा उतरता है।
—भूमिका से
Ek Ladka Milane Aata Hai
- Author Name:
Sanjay Kumar 'Kundan'
- Book Type:

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Description:
संजय कुमार ‘कुन्दन’ की शायरी किसी भी रूप में जब मेरे सामने आई तो मुझे यह समझने में बड़ी दुश्वारी हुई कि वे शायरी के हवाले से दिल पर बीतनेवाली वारदात का ज़िक्र कर रहे हैं या ये तमाम वारदातें तहरीर की शक्ल में संजय कुमार ‘कुन्दन’ को ख़ुद लिख रही हैं। ये वो सच्ची शायरी है जिसे समझने के लिए आपको दिल के आँगन में उतरना नहीं पड़ता, बल्कि दिल की पहली सतह पर ये अपनी जगह बनाती हैं, जबकि अपनी शायरी के ऐब को छुपाने के लिए लोग तरह-तरह के रंगो-रोग़न का इस्तेमाल करते हैं। चाहे ‘एक लड़का मिलने आता है...’, ‘उसको भी डर है’, ‘ख़याल कोई क़र्ज़ है’ हो या ‘तस्वीर’ ऐसा लगता है जैसे उन्होंने शब्दों के सहारे उन तमाम कैफ़ियतों की तस्वीर पेश कर दी है जहाँ बड़े-बड़े चित्रकार नाकाम होने पर उसे ऐब्सट्रैक्ट आर्ट का नाम दे दिया करते हैं। और शायरी इतनी आसान, इतनी सहज लेकिन दिल को काट देनेवाली है कि इसकी चुभन को हम भुला नहीं पाते।
‘एक लड़का मिलने आता है...’ में ‘नींद की बदगुमानी’, ‘हाथों में लम्स की ठंडक’, ‘शाम की ख़ुशबू’, ‘खिलखिलाहट का बचपन’, ‘रोशनी की धड़कन पर सियाही का ख़ौफ़नाक हमला’ और ‘लरज़ते काँपते क़दमों की आहट’ ही नहीं है, बल्कि ‘महीन खद्दरों में क़ैद बड़े-बड़े तोंद की क़लम से लिखी कहानियों को जलाकर ख़ाक कर देने’ का अज़्म, ‘कारख़ाने के वहशी तगो-दौ में राख में दबी हुई आग की किरचियों को कुदेरने’ की मशक़्क्त और ‘कितने शहरों, कितने बाग़ों, कितनी मिट्टी से होकर गुज़रने वाले आवारा लम्हों’ का कर्ब भी शामिल है। ऐसा महसूस होता है शायरी संजय कुमार ‘कुन्दन’ की महबूबा है जिसने ज़िन्दगी के इस लम्बे, वीरान और डगमगाते हुए क़दमों पर उसे और उसके पढ़नेवालों को सहारा दिया है। मुस्तकिल तरक़्क़ी की मंज़िलों को तय कर रही इस शायरी की नज़र एक शेर :
‘न थक के बैठ कि तेरी उड़ान बाक़ी
है ज़मीन ख़त्म हुई, आस्मान बाक़ी है।’
—शानुर्रहमान
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