Bela
Author:
Suryakant Tripathi 'Nirala'Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
‘बेला' और ‘नए पत्ते' के साथ निराला-काव्य का मध्यवर्ती चरण समाप्त होता है। 'बेला' उनका एक विशिष्ट संग्रह है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक ताज़गी है। अफ़सोस कि निराला-काव्य के प्रेमियों ने भी इसे लक्ष्य नहीं किया, इसे उनकी एक गौण कृति मान लिया है। ‘नए पत्ते' में छायावादी सौन्दर्य-लोक का सायास किया गया ध्वंस तो है ही, यथार्थवाद की अत्यन्त स्पष्ट चेतना भी है। ‘बेला' की रचनाओं की अभिव्यक्तिगत विशेषता यह है कि वे समस्त पदावली में नहीं रची गईं, इसलिए ‘ठूँठ' होने से बच गई हैं।</p>
<p>इस संग्रह में बराबर-बराबर गीत और ग़ज़लें हैं। दोनों में भरपूर विषय-वैविध्य है, यथा—रहस्य, प्रेम, प्रकृति, दार्शनिकता, राष्ट्रीयता आदि। इसकी कुछ ही रचनाओं पर दृष्टिपात करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘रूप की धारा के उस पार/कभी धँसने भी दोगे मुझे?', ‘बातें चलीं सारी रात तुम्हारी; आँखें नहीं खुलीं तुम्हारी।', ‘लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो/भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा।' बाहर मैं कर दिया गया हूँ। भीतर, पर, भर दिया गया हूँ।' आदि। राष्ट्रीयता ज़्यादातर उनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है।</p>
<p>निराला की ग़ज़लें एक प्रयोग के तहत लिखी गई हैं। उर्दू शायरी की एक चीज़ उन्हें बहुत आकर्षित करती थी। वह भी उसमें पूरे वाक्यों का प्रयोग। उन्होंने हिन्दी में भी ग़ज़लें लिखकर उसे हिन्दी कविता में लाने का प्रयास किया। लेकिन निराला-प्रेमियों ने उसे एक नक़ल-भर मान उन्हें असफल ग़ज़लकार घोषित कर दिया। सच्चाई यह कि आज हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, उनके पुरस्कर्ता भी निराला ही हैं। ये ग़ज़लें मुसलसल ग़ज़लें हैं। मैं स्थानाभाव में उनकी एक ग़ज़ल का एक शे’र ही उद्धृत कर रहा हूँ :</p>
<p>तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर-करके,</p>
<p>प्रसूनों पर लचककर बैठती हैं, मन लुभाया है।
ISBN: 9788180319983
Pages: 111
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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कबीर के प्रति रवीन्द्रनाथ ठाकुर का आकर्षण साहित्य-जगत की अत्यन्त विशिष्ट परिघटना है। कबीर को पढ़कर उनके व्यक्तित्व और रचनाओं से रवीन्द्रनाथ इतने प्रभावित हुए कि उनके चुनिन्दा पदों को अंग्रेजी में अनूदित कर दुनिया के सामने रखना उन्हें आवश्यक लगा। आचार्य क्षितिमोहन सेन द्वारा वाचिक परम्परा से संकलित कबीर के पदों और बेलवेडियर प्रेस से प्रकाशित ‘कबीर वाणी’ को आधार बनाकर उन्होंने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया—‘वन हंड्रेड पोएम्स ऑव कबीर’। उनकी दृष्टि में कबीर इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने तमाम कुरीतियों को भेदकर भारत के अन्तर में निहित सत्य को पहचाना और उसी की साधना की। रवीन्द्रनाथ ने विशेष रूप से वे पद चुने जिनमें कबीर का प्रेमी, साधक और आत्मसन्धानी व्यक्तित्व उभरता है तथा जो विरहिनी जीवात्मा के परमात्मा से मिलन के साक्षी हैं। इस तरह कबीर को कबीरपन्थी मठों और अखाड़ों से बाहर निकलकर प्राच्य और पाश्चात्य जगत के सामने लाने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।
रवीन्द्रनाथ के कबीर सम्बन्धी इस रचनात्मक प्रयास का निस्सन्देह ऐतिहासिक महत्त्व है, जिसको रेखांकित करते हुए वरिष्ठ लेखक-अनुवादक रणजीत साहा ने यह पुस्तक ‘कबीर के सौ पद’ तैयार की है। इसमें ‘वन हंड्रेड पोएम्स ऑव कबीर’ और उसके लिए इसमें प्रख्यात विद्वान एवलिन अंडरहिल द्वारा लिखी गई सुचिन्तित भूमिका का हिन्दी अनुवाद तो है ही, आचार्य क्षितिमोहन सेन द्वारा संकलित संग्रह से इन पदों के मूल पाठ भी दिए गए हैं। कहना न होगा कि साहित्य के अध्येताओं और शोधार्थियों से लेकर सामान्य पाठकों तक के लिए यह एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है।
Assi Ghat Ka Bansuri Wala
- Author Name:
Tajendra Singh Luthra
- Book Type:

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Description:
चाहता हूँ/अकेला हो जाऊँ/कोई
आसपास न रहे/ज्यादा देर तक/
आए और चला जाए/अपने आप।
तजेन्दर सिंह लूथरा की कविताओं में ‘अनायासता’ का यह स्वर कई स्तरों पर दिखाई पड़ता है। वे सायास कवि नहीं होना चाहते; न आई हुई कविता को अतिरिक्त प्रयास से गढ़ने-बनाने की कोशिश करते हैं; सामने से गुजरते हुए जीवन व संसार की जिस-जिस छवि को पकड़ते हैं, उसे हूबहू उसी रूप में पाठक के सामने रखने की उनकी इच्छा ही उनकी काव्य-कला है। इसके चलते कई बार अनुभूतियों के जो बिम्ब कुछ अनगढ़ रूप में दिखाई पड़ते हैं, वे दरअसल एक भीतरी तराश का ऊपरी आवरण हैं, जो पाठक को धीरे-धीरे अपने भीतर उतरने के लिए आमंत्रित करते हैं।
घर से लेकर महानगर तक के विस्तार में विचरण करती उनकी काव्य-संवेदना जीवन की हर उस विकलता का नोटिस लेती है, जिसका प्रभाव मनुष्य की नियति पर पड़ता है या पड़ सकता है। संग्रह में शामिल कविता ‘मुझे जीने दो’ की यह पंक्ति ‘मैं इतना सार्वजनिक हो गया/कि मुझे मेरे सिवा सब पहचानने लगे थे।’ सार्वजनिक स्पेस की आक्रामकता के बीच मौजूद व्यक्ति की पीड़ा का अचूक रेखांकन है।
यह कवि का पहला कविता-संग्रह है, लेकिन कविता-प्रेमियों के लिए उनका कवि-व्यक्तित्व और उनकी कविताएँ अपरिचित नहीं हैं। इस संग्रह में शामिल ‘अस्सी घाट का बाँसुरी वाला’, ‘जैसे माँ ठगी गई थी’ और ‘एक साधारण शवयात्रा’ जैसी कविताओं ने बराबर सुधी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है; और अपनी नवीन दृष्टि और पर्यवेक्षण के चलते उनकी याददाश्त में स्थायी जगह बनाई है।
उम्मीद है, कविता का यह नया रंग पाठकों को ताजगी प्रदान करेगा।
Bindu Sindhu Ki Oor
- Author Name:
Vairamuthu
- Book Type:

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Description:
भारतीय साहित्य के वर्तमान युग के शलाका-पुरुष कमलेश्वर जी के शब्दों में—‘समकालीन कविता परिदृश्य पर तमिल कवि वैरमुत्तु ने जिस तरह अपने अनुवाद के साथ हिन्दी में उपस्थिति दर्ज की है, उससे साबित होता है कि कविता भाषाओं की सीमा में बँधी नहीं रह सकती। इन कविताओं में वैरमुत्तु अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा और कलात्मक प्रखरता के साथ मौजूद हैं। वह शब्दों को ध्वजा की तरह फहराकर कविता नहीं बुनते, वरन् समय को पकड़कर कविता में ही भविष्य का सपना गूँथ देते हैं। वे जीवन में शेष हो चली आस्थाओं की पुनर्रचना करते हैं। उनके शब्दों में संवेदना की छायाएँ झाँकती हैं।...कवि के रचना-संसार में वह सब कुछ है जिसके माध्यम से वह आत्मा की क्षत-विक्षत स्मृतियों में जाकर समय की संवेदना और खुद की सृजनशीलता के मानवीय स्रोतों को खोजता है, तब ही कविता क्लासिकी रंगत के साथ पाठकों को झकझोरने लगती है।’
हिन्दी में विचार-कविताओं के प्रवर्तक तथा स्वप्नदर्शी चिन्तक डॉ. बलदेव वंशी का निरीक्षण है—‘कविताओं में सर्वाधिक मुखर स्वर प्रकृतिपरक कविताओं, प्रकृति-तत्त्वों, प्रकृति-सत्यों, लयों-रंगतों-गतियों एवं विभिन्न बिम्ब-प्रतीकों आदि का है। इसी से कवि की समृद्ध अनुभूतिशीलता, संवेदना, दृष्टिबोध की व्यापकता का परिचय मिलता है और इसी के आधार पर उसके स्वर की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है; क्योंकि प्रकृति अपने आप में एक सत्य है।...निसर्ग (प्रकृति) के साथ ऐसा एकात्म भाव वैरमुत्तु के कवि की ऐसी विरल विशेषता है, जो उन्हें भिन्न एवं महत्त्वपूर्ण बनाती है। युग की बाज़ारवादी, आर्थिक भूमंडलीकरण की अमानवीयता एवं संवेदना-विहीनता के विपरीत वे आत्मिक एवं संवेदनात्मक आग्रहों को लेकर अपनी और भारतीय विश्वदृष्टि की विधेयता सिद्ध कर रहे हैं...‘माटी की गंध’ से भरपूर मस्ती और संघर्ष की साहसिक उत्फुल्लता तथा मज़दूर-ग़रीब-शोषित के प्रति अक्षय आत्मीयता उन्हें बृहत्तर आयामों से जोड़ती है।’
Fiza Ke Samandar Mein
- Author Name:
Ramswaroop Kisan
- Book Type:

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Description:
ग्रामीण जीवन के अनूठे चित्र और मनुष्य के संसार के ऐसे बिम्ब जिन पर सामान्यतः हमारी निगाह कम ही ठहरती है, रामस्वरूप किसान की कविताओं में बहुतायत से मिलते हैं।
मिसाल के तौर पर इस संग्रह की पहली ही कविता-शृंखला ‘पीठ’ को लिया जा सकता है जिसमें कुल सोलह कविताएँ शामिल हैं। ‘पीठ एक कारुणिक क्षेत्र’ है जिसे देखकर कवि-मन बार-बार कभी अपने भीतर और कभी बाहर की ओर एक प्रश्नाकुल चिन्तन-यात्रा पर निकल जाता है।
‘फ़िज़ा के समन्दर में’ शीर्षक कविता-शृंखला की ग्यारह कविताएँ पुनः कवि की विशिष्ट दृष्टि का पता देती हैं जिसमें प्रेम के लिए घर से भागती हुई लड़की हमें और हमारे समाज को पुनः पुनः सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है—
यह रहा/तुम्हारा दूल्हा/साथ-साथ रहोगे तो/प्यार हो जाएगा/पापा ने कहा।...नहीं, ऐसा कहो पापा/यह रहा तुम्हारा प्यार/साथ-साथ रहोगे/तो दूल्हा हो जाएगा।
संग्रह में शामिल अधिकांश कविताएँ इसी तरह पाठक को सहसा चौंका देती हैं और हमारी देखी जानी चीज़ों को नये ढंग से हमारे सामने ला देती हैं।
आम जन-जीवन के दैनन्दिन दुखों, व्यवस्था-जनित असहायताओं और मनुष्य की आन्तरिक और बाह्य पीड़ाओं के साथ इन कविताओं की राजनैतिक चेतना भी मुखर रूप में सामने आती है—
पब्लिक लड़ती है चुनाव—पैसों से/बातों से/लातों से/भालों-बन्दूक़ों-तलवारों से/ख़ून के फ़व्वारों से/और लड़ा-लड़ाया चुनाव/उनके गले में डाल देती है.../वे चुनाव नहीं लड़ते/वे तो पहनते हैं चुनाव।
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