Media Jantantra Aur Atankvad
Author:
Sudhish PachauriPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Available
ग्यारह सितम्बर की सुबह दो अमेरिकी टॉवरें ही नहीं गिरीं, मीडिया की ‘बाइनरी’ यानी ‘विलोमवाची मीडिया’ टावरें भी गिर गईं। ग्यारह सितम्बर के बाद का मीडिया एक क़िस्म के विकेन्द्रण की चपेट में है। अब एक मामूली-सा अरबी चैनल ‘अलजजीरा’, ‘सी.एन.एन.’ पर भारी है। मीडिया का कंटेंट अब ‘पहचान के चिह्नों’ को, उसके ‘भावकों’ को सक्रिय करता है और वे ही पलटकर उसका कंटेंट बनाते हैं। आप स्टूडियो में जो बनाते हैं, वही कंटेंट नहीं होता। जो उसे रिसीव करता है, ग्रहण करता है वह अपना कंटेंट बनाता है। यह एक प्रकार की उत्तर-संरचनावादी अनेकार्थता है जो मीडिया बनाने लगा है और जो नज़र आने लगी है।</p>
<p>आतंकवाद जनतन्त्र का विलोम है। वह स्वयं किसी जनतन्त्र को नहीं मानता। न उसे बने रहने देना चाहता है। ऐसे में यदि जनतन्त्र स्वयं ही सिकुड़ने लगे या कि उसे सत्ता सिकोड़ने लगे तो आतंकवाद को ही ताकत मिलती है। शुरू में लग सकता है कि आतंकवादी जनतन्त्र का लाभ उठा रहे हैं, उन्हें रोकना चाहिए। चूँकि मीडिया अब तक सत्ता संवलित जनतन्त्र पर पलता आया है और उसने आतंकवाद को हमेशा ऑफ़िसियल नज़र से देखा है, इसलिए वह उसे न दिखाने में यक़ीन किया करते हैं। इससे आतंकवाद की साख बढ़ती है, बिन लादेन का मिथक्करण इसी कारण है। तब क्या करें ? इस मामले में बाबा तुलसीदास हमारे बड़े काम के हैं और अपने चैनलों को तुलसीदास का रावण-वर्णन इन दिनों ज़रूर पढ़ना चाहिए। आतंकवाद सूचना की पकड़ से बाहर रहस्य बनकर सूचना बनता है। उसे और बाहर कर देने से उसी की मदद होती है। आतंकवाद मीडिया युग की राजनीतिक कार्रवाई है। उसका भूत मीडिया ही उतार सकता है। वह जितना सूचना में रहेगा उतना ही संवाद में रहेगा। जितना संवाद में रहेगा उतना ही जनतन्त्र में आकर सहज बनेगा।
ISBN: 9788171198221
Pages: 215
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कार्पोरेट तथा सत्ता के अपने गणित भी हैं और मीडिया को उनसे तालमेल बैठाने के लिए भी बाध्य होना पड़ा है। मगर जहाँ तक बाज़ार का सवाल है तो उसका सबसे बड़ा हथियार है विज्ञापन। वह विज्ञापनों पर भारतीय मीडिया की निर्भरता का लाभ उठाता है। इसके लिए उसके पास एक बहुत ही कारगर हथियार है–टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट।
टीआरपी दरअसल क्या है, वह क्यों है और न्यूज़ चैनलों की सामग्री को कैसे नियंत्रित और संचालित करती है, इस बारे में ठोस जानकारियाँ कम ही उपलब्ध हैं। यही नहीं, अत्यधिक चर्चाओं में रहने के बावजूद टीआरपी मापने की प्रणाली में क्या ख़ामियाँ हैं, उसमें कैसे धाँधली की जाती है और वह कितनी विश्वसनीय है, है भी या नहीं, इस बारे में सामग्री का अभाव रहता है, जबकि इन सब पहलुओं के बारे में जाने बगैर न टीआरपी को समझा जा सकता है और न ही बाज़ार के ऑपरेट करने के तरीक़े को। यह किताब टीआरपी के इन तमाम रहस्यों से परदा उठाती है।
यह सवाल भी बड़ी अहमियत रखता है कि टीवी न्यूज़ या न्यूज़ चैनल टीआरपी के दुष्चक्र से निकल सकते हैं या नहीं? इस पुस्तक में इन प्रश्नों पर विचार करके कुछ रास्ते सुझाने की कोशिश भी की गई है।
शैक्षणिक, अकादमिक और पत्रकारिता तीनों ही क्षेत्रों में सक्रिय लोगों के लिए तो पुस्तक उपयोगी है ही, वे पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे जिनकी दिलचस्पी मीडिया में आई विसंगतियों या नई प्रवृत्तियों को जानने-समझने में रहती है।
Lutian Ke Tile Ka Bhugol
- Author Name:
Prabhash Joshi
- Book Type:

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Description:
‘लुटियन के टीले का भूगोल’ में प्रभाष जोशी के वे लेख संकलित किए गए हैं जिनके केन्द्र में हैं राजनीतिक दल और उनसे जुड़े राजनीतिज्ञ तथा लोकतंत्र को क़ायम रखनेवाली संस्थाएँ। इसके अलावा ऐसे लेख भी हैं जो समाज और समुदाय के समकालीन प्रसंगों का विवेचन करते हैं और अपने समय की राजनीति से भी जुड़ते हैं।
प्रभाष जोशी अपनी भूमिका में लिखते हैं :
“ ‘लुटियन के टीले का भूगोल’ में ऐसे कागद हैं जो मैंने राजनीति पर कारे किए। नई दिल्ली में जहाँ केन्द्र सरकार बैठकर काम करती है—वह लुटियंस हिल कहलाती है। वहाँ अंग्रेज़ राजधानी लाए, उसके पहले रायसीना गाँव था और जिस पर अंग्रेज़ों ने अपनी सरकार के बैठने के लिए भवन बनवाए, वह रायसीना की पहाड़ी कही जाती थी। लुटियन उस वास्तुशास्त्री का नाम था जिसने रायसीना पहाड़ी पर वायसराय की लॉज (जो अब राष्ट्रपति भवन है) नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक और उसके नीचे एसेम्बली (जो अब संसद भवन है) बनवाए। बाद में यह पूरा परिसर लुटियंस हिल कहलाने लगा। उज्जैन के विक्रम के टीले की तर्ज पर इसे मैंने लुटियन का टीला बना लिया—दोनों का अन्तर्विरोध और विडम्बना दिखाने के लिए। आज की राजनीति और सत्ता का केन्द्र यह लुटियन का टीला है।
लेकिन ये मेरे राजनीति पर लिखे लेख नहीं हैं। वे मैंने ‘जनसत्ता’ के सम्पादकीय पेज पर लिखे और यहाँ संकलित नहीं हैं। ‘कागद कारे’ में राजनीति के मानवीय और निजी पहलुओं को खोलने की कोशिश करता हूँ। इनमें उन दस सालों की सभी राजनीतिक घटनाओं और उनके नायक-नायिकाओं के मानवीय और निजी पक्षों को समझने की कोशिश की गई है। नरसिंह राव, सोनिया गांधी, चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी, मायावती आदि राजनीतिक व्यक्तित्वों को महज़ राजनीति के नज़रिए से नहीं देखा गया है। इनमें वे पहलू खोजे गए हैं जिनके बिना राजनीति नहीं होती। राजनीति के बिना लोकतंत्र नहीं हो सकता।”
Jab Top Mukabil Ho
- Author Name:
Prabhash Joshi
- Book Type:

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Description:
‘जब तोप मुकाबिल हो’ पुस्तक में प्रभाष जोशी के पत्रकारिता और मीडिया के दूसरे माध्यमों से सम्बन्धित लेखों के अलावा भाषा, अर्थ, जगत और महिलाओं से जुड़े लेख संकलित हैं। पुस्तक की भूमिका में प्रभाष जोशी लिखते हैं :
“ जब तोप मुकाबिल हो’ तो अख़बार निकालो’—ऐसा अकबर इलाहाबादी ने कहा है। आज लोग तोप का मुक़ाबला करने को अख़बार नहीं निकालते। वे पैसा और थोड़ा-बहुत पव्वा कमाने के लिए अख़बार निकालते हैं। इसलिए छापने के पैसे माँगने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती। अपन ऐसी पत्रकारिता करने नहीं आए थे। आज़ादी के बाद के दूसरे दशक में लगता था कि पत्रकारिता समाज बदलने और नया समतावादी और न्याय आधारित समाज बनाने का एक माध्यम है। आज आप ऐसी बातें करें तो लोग हँसने लगते हैं। फिर भी नरसिंह राव के कहने पर मनमोहन सिंह जब सन् इक्यानबे में नवउदार आर्थिक व्यवस्था लाए तब तक भारतीय पत्रकारिता में समाज परिवर्तन की वाहक बनने की इच्छा थी। आज जो प्रवृत्तियाँ आप देख रहे और दुखी हो रहे हैं, वे सब इसके बाद की हैं।
लेकिन यहाँ जो लेख संकलित हैं, वे आज की पत्रकारिता की आलोचना में नहीं हैं। ये पत्रकारिता करने या उसे कॉलेजों में पढ़ानेवालों के लिए भी नहीं हैं। मुझे हमेशा लगता रहा कि पत्रकारिता करने और करके दिखाने की चीज़ है, उपदेश देने या सिखाने की नहीं। यह अपने काम की आत्मालोचन है और जो कर न पाए, उसका अफ़सोस भी। लेकिन यह पत्रकारिता को जनसम्पर्क अभियान या प्रकाशन उद्योग बना देने के विरुद्ध तो है ही। मुझे अब कोई पचास साल हो जाएँगे लेकिन कभी मुझे नहीं लगा कि पत्रकारिता बेकार का काम है। ऐसा होता तो अपने अख़बार में मैं लगातार लिखता नहीं रह सकता था—न दैन्यम् न पलायनम्!”
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