Voh Apana Chehra
Author:
Govind MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
क़रीब-क़रीब अमानवीय और जड़ होता जाता संसार गोविन्द मिश्र के लेखन की मुख्य चिन्ताओं में से है। जहाँ वे एक परिवेश का केवल भीतरी-बाहरी कच्चा चिट्ठा-भर प्रस्तुत करते हैं, वहाँ भी सर्जनात्मक व्यथा मानवीयता और मूल्यों के न होने की ही होती है। गोविन्द मिश्र के लेखन का मूल स्वर सकारात्मक है जो उनकी रचनाओं में उत्तरोत्तर साफ़ होता चला गया है।</p>
<p>'वह अपना चेहरा’ एक तलाश है जो चेहरों से शुरू होकर जीवन-पद्धति एवं मान्यताओं से होती हुई नैतिकता और मूल्यों तक जाती है। नौकरशाही का परिवेश, दफ़्तरी मानसिकता, फ़ाइलों-इमारतों की दुनिया यहाँ एक ऐसे तनाव के माध्यम से उभारे गए हैं जो जितना उग्र है, उतना ही फ़िज़ूल—लालफीताशाही के अपने स्वभाव की तरह। यहाँ चेहरे भी फ़ाइलों की तरह घूम रहे हैं, 'अपना’ चेहरा 'वह’ हो जाता है, वही जिसके ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई थी। चरित्रों की गहरी पकड़, कलात्मकता और भाषा का एक अपने ढंग का खुरदुरापन इस उपन्यास को विशिष्ट बनाते हैं।
ISBN: 9788126727599
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: रणविजय ने अपने आपको प्रीलिम्स परीक्षा की तैयारी में पूरी तरह से झोंक दिया, जिसका नतीजा यह हुआ कि प्रीलिम्स की परीक्षा में वह अव्वल रहा। इस नतीजे ने उसका मनोबल और बढ़ा दिया। वह और भी उत्साह के साथ मुख्य परीक्षा की तैयारी में जुट गया। अपनी पहली उपलब्धि जब उसने अपने पिता जागीर सिंह को बताई तो वे खुशी के मारे फूले नहीं समाए, और जब यही खबर जागीर सिंह ने रणविजय की माँ को बताई तो उनकी आँखें खुशी से छलछला आईं। तभी वह वार्ड बॉय हाथ में कुछ सामान लेकर हमारे पास आया। उसने रणविजय का नाम लिया तो मैंने हामी भर दी। जिसके बाद उसने वे चीजें हमारे बगल में रख दीं, जिसमें लकड़ी का एक डंडा था, जिसे रणविजय अपने आखिरी दिनों में सहारे के लिए इस्तेमाल करता था। एक पॉलिथिन में उसके कुछ कपड़े थे। एक डायरी थी, जिसमें शायद उसने कुछ नोट्स लिखे थे और एक पोटली जैसी कोई चीज थी, जिस पर रणविजय की माँ की निगाहें जाकर टिक गई थीं। उन्होंने उसी पल उस पोटली को उठा लिया और उसे सीने से लगाकर रोने लगीं। मैं समझ गया, शायद यह वही पोटली थी, जिसमें वे हर बार खाने के रूप में अपना प्यार बाँधकर अपने बेटे को देती थीं। बेटा खुद तो चला गया, मगर वह खाली पोटली माँ के लिए छोड़ गया, जिसे वे शायद दोबारा कभी नहीं भर पाएँगी। —इसी पुस्तक से अत्यंत भावपूर्ण उपन्यास, जिसके मुख्य पात्र के जीवन को लेखक ने खुद नए सिरे से जिया है। यह एक पुस्तक न होकर जीवन-दर्शन साबित होगी।
Bhishma Pitamah
- Author Name:
Suryakant Tripathi 'Nirala'
- Book Type:

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Description:
भारतीय पौराणिक इतिहास में भीष्म पितामह-जैसा चरित्र दूसरा नहीं। महान वीर, संकल्पशील और धर्मपरायण होते हुए भी उन्होंने जो जीवन जिया, एक गहरे अवसाद की छाया उस पर सदैव पड़ती रही। कुरुवंशी राजकुमारों के पारस्परिक कलह ने उन्हें आजीवन उद्विग्न रखा, लेकिन कोई भी दारुण स्थिति उन्हें कर्तव्य-पथ से कभी विचलित नहीं कर पाई। अपने विलक्षण जीवन के अनेक मोड़ों पर वे हमें आदर्शों के चरम शिखर पर दिखाई देते हैं।
महाकवि निराला ने भीष्म पितामह के इसी महान चरित्र को इस पुस्तक में शब्दबद्ध किया है। उन्हीं के शब्दों में, “महावीर भीष्म के चरित्र से सब शिक्षाएँ एक साथ मिल जाती हैं। पिता के प्रति पुत्र की कैसी भक्ति होनी चाहिए, माता और विमाता के प्रति उसके क्या कर्तव्य हैं, मनुष्यता का आदर्श क्या हो, शास्त्र-अध्ययन, ब्रह्मचर्य और सरल भाव से जीवन के निर्वाह का फल क्या है, समर-क्षेत्र में क्षत्रिय का आदर्श क्या है, यथार्थ वीरता किसे कहते हैं—इस तरह से मनुष्य के मस्तिष्क में मनुष्यता से सम्बन्ध रखनेवाले जितने प्रश्न आ सकते हैं, उन सबका उत्तर भीष्म के जीवन से मिल जाता है।’’
निश्चय ही यह एक ऐसी पुस्तक है, जो किशोर एवं प्रौढ़—दोनों ही तरह के पाठकों को पसन्द आएगी।
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