Tabadala
Author:
Vibhuti Narayan RaiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती मौजूदगी और कॉरपोरेट दुनिया में कार्य-संस्कृति पर लगातार एक नैतिक मूल्य के रूप में ज़ोर दिए जाने के बावजूद भारतीय मध्यवर्ग की पहली पसन्द आज भी सरकारी नौकरी ही है, तो उसका सम्बन्ध, उस आनन्द से ही है जो ग़ैर-ज़िम्मेदारी, काहिली, अकुंठ स्वार्थ और भ्रष्टाचार से मिलता है; और हमारे स्वाधीन पचास सालों में सरकारी नौकरी इन सब ‘गुणों’ का पर्याय बनकर उभरी है। इन्हीं के चलते तबादला-उद्योग वजूद में आया तो आज दफ़्तरों से लेकर राजनेताओं के बँगलों तक, शायद बाक़ी कई उद्योगों से ज़्यादा, फल-फूल रहा है।</p>
<p>इस उद्योग की जिन बारीक डिटेल्स को हम बिना इसके भीतर उतरे, बिना इसका हिस्सेदार बने, नहीं जान सकते, उन्हीं को यह उपन्यास इतने तीखे और मारक व्यंग्य के साथ हमारे सामने रखता है कि हमें उस हताशा को लेकर नए सिरे से चिन्ता होने लगती है जो भारतीय नौकरशाही ने पिछले पचास सालों में आम जनता को दी है। इस उपन्यास का वाचक व्यंग्य के उस ठंडे कोने में जा पहुँचा है जहाँ ‘कोई उम्मीदबर नहीं आती’। उपन्यास पढ़कर हम सचमुच यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि अगर यह हताशा वास्तव में हमारे इतने भीतर तक उतर चुकी है तो फिर रास्ता है किधर!
ISBN: 9788183613897
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘लोक’ में भी कोई एक गाइड नहीं होता। लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं—जो जहाँ तक का रास्ता बता दे वही गाइड बन जाता है—कभी-कभी तो कोई विशेष पेड़, कुआँ या खँडहर ही गाइड का रूप ले लेते हैं। ऋतु भी ईसुरी-रजऊ की प्रेम-कथा के ऐसे ही बीहड़ों के सम्मोहन की शिकार है। बड़ा ख़तरनाक होता है जंगलों, पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन...हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के ‘दर्शन’ के लिए...‘कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऐसे ही भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है।
इस उपन्यास का नायक ईसुरी है, मगर कहानी रजऊ की है—प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ दोनों के रास्ते बिलकुल विपरीत दिशाओं को जाते हैं। प्यार बल देता है तो तोड़ता भी है...
सिद्ध संगीतकार कविता की किसी एक पंक्ति को सिर्फ़ अपना प्रस्थान-बिन्दु बनाता है—बाक़ी ठाठ और विस्तार उसका अपना होता है। ‘बाजूबंद खुल-खुल जाए’ में न बाजूबंद रात-भर खुल पाता है, न कविता आगे बढ़ पाती है क्योंकि कविता की पंक्ति के बाद सुर-साधक की यात्रा अपने संसार की ऊँचाइयों और गहराइयों के अर्थ तलाश करने लगती है। मैत्रेयी पुष्पा की यह कहानी उसी आधार का कथा-विस्तार है—शास्त्रीय दृष्टि के ख़िलाफ़ अवैध लोक का जयगान।
Kagaj Ki Nav
- Author Name:
Krishna Chander
- Book Type:

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Description:
उर्दू और हिन्दी में समान रूप से समादृत कथाकार कृश्न चन्दर का उपन्यास ‘काग़ज़ की नाव’ उनकी सशक्त लेखनी का मुखर साक्षी है। एक दस रुपए के नोट की आत्मकथा के माध्यम से उन्होंने इस उपन्यास में समाज के विभिन्न पक्षों के विभिन्न अंगों का चित्र बड़ी सरसता एवं स्पष्टता से खींचा है। आज की जीवन-प्रणाली में नोट इतना प्रधान हो गया है कि उसके आगे सभी अन्य वस्तुएँ धुँधली नज़र आती हैं। किसी की ख़ुशी का वादा एक नोट है, किसी की मुहब्बत का धोखा नोट है, किसी की मजबूर मेहनत का एक पल नोट है, तो किसी की प्रेमिका की मुस्कान भी एक नोट ही है। सच तो यह है कि संसार का हर व्यक्ति अपने जीवन के प्रति क्षण को नोट—यानी काग़ज़ की नाव में खेये चला जा रहा है। शायद यह नोट काग़ज़ का एक पुर्जा नहीं, इस युग की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है।
निस्सन्देह, आज के युग-यथार्थ की अगर कोई शक्ल है तो यही काग़ज़ की नाव। कृश्न चन्दर की प्रवाहमयी भाषा-शैली ने इसे जिस तेज़ी से घटनाओं की उत्ताल तरंगों पर तैराया है, उसका रोमांच बहुत गहरे तक पाठकीय भाव-संवेदन का हिस्सा बन जाता है।
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