Pakistan Mail
Author:
Khushwant SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
भारत-विभाजन की त्रासदी पर केन्द्रित ‘पाकिस्तान मेल’ सुप्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यासकार खुशवंत सिंह का अत्यन्त मूल्यवान उपन्यास है। सन् 1956 में अमेरिका के ‘ग्रोव प्रेस एवार्ड’ से पुरस्कृत यह उपन्यास मूलतः उस अटूट लेखकीय विश्वास का नतीजा है, जिसके अनुसार अन्ततः मनुष्यता ही अपने बलिदानों में जीवित रहती है।</p>
<p>घटनाक्रम की दृष्टि से देखें तो 1947 का भयावह पंजाब! चारों ओर हज़ारों-हज़ार बेघर-बार भटकते लोगों का चीत्कार! तन-मन पर होनेवाले बेहिसाब बलात्कार और सामूहिक हत्याएँ! लेकिन मज़हबी वहशत का वह तूफ़ान मनो-माजरा नामक एक गाँव को देर तक नहीं छू पाया; और जब छुआ भी तो उसके विनाशकारी परिणाम को इमामबख़्श की बेटी के प्रति जग्गा के बलिदानी प्रेम ने उलट दिया।</p>
<p>उपन्यास के कथाक्रम को एक मानवीय उत्स तक लाने में लेखक ने जिस सजगता का परिचय दिया है, उससे न सिर्फ़ उस विभीषिका के पीछे क्रियाशील राजनीतिक और प्रशासनिक विरूपताओं का उद्घाटन होता है, बल्कि मानव-चरित्र से जुड़ी अच्छाई-बुराई की परम्परागत अवधारणाएँ भी खंडित हो जाती हैं। इसके साथ ही उसने धर्म के मानव-विरोधी फ़लसफ़े और सामाजिक बदलाव से प्रतिबद्ध बौद्धिक छद्म को भी उघाड़ा है।</p>
<p>संक्षेप में कहें तो अंग्रेज़ी में लिखा गया खुशवंत सिंह का यह उपन्यास भारत-विभाजन को एक गहरे मानवीय संकट के रूप में चित्रित करता है; और अनुवाद के बावजूद उषा महाजन की रचनात्मक क्षमता के कारण मूल-जैसा रसास्वादन भी कराता है।
ISBN: 9788126704262
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ब्रिटिश शासनकाल में जिन समुदायों को अपराधी के श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया था, उनमें एक पारधी समाज भी है। कभी जंगलों में रहकर अपना जीवनयापन करने वाले इस समाज ने स्वतंत्रता संग्राम में भी खासी भूमिका निभाई थी। आजादी मिलने के बाद देश की सरकार ने उन्हें अपराधी के कलंक से तो मुक्त कर दिया लेकिन पुलिस, प्रशासन और पुलिस की दृष्टि में उन्हें सम्मान आज तक नहीं मिला। यह उपन्यास इसी पारधी समाज की यंत्रणा, पुलिस द्वारा उसके उत्पीड़न और प्रशासनिक उपेक्षा की मार्मिक कहानी बयान करता है। दलित-दमित समाज के हित में लगातार कलम चलाते आ रहे मराठी लेखक लक्ष्मण गायकवाड़ ने इस उपन्यास में बताया है कि रोजी-रोटी की तलाश में खानाबदोश जीवन जीने वाले इस समाज के लोगों को पुलिस किस तरह झूठे मामलों में फँसाकर कैद कर लेती है, फिर अपने अनसुलझे मामलों में उनसे झूठी गवाही दिलवाती है, और उनकी औरतों के साथ बदसलूकी करती है। अपने इस यातनाग्रस्त समाज के लिए लड़ने को हौसले के साथ वकील बनने का सपना सँजोने वाले एक बालक के रास्ते में ताकतवर समाज द्वारा पैदा की जाने वाली अड़चनों के माध्यम से इसमें पारधी समाज के प्रति शेष समाज के रवैये को भी बखूबी स्पष्ट किया गया है। उपन्यास से हमें पारधी समाज के सांस्कृतिक और परिवेशगत जीवन-मूल्यों, उनके दैनिक जीवन की अन्य समस्याओं और सामाजिक संरचना का भी प्रामाणिक परिचय मिलता है।
Karobare Tamanna
- Author Name:
Rahi Masoom Raza
- Book Type:

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Description:
समस्या बड़ी हो या छोटी, उसका प्रभाव समाज के छोटे-से हिस्से पर हो या देशव्यापी हो, नियम-क़ानून द्वारा उस पर कितना क़ाबू किया जा सकता है? यह मुद्दा विचारणीय है। यह वास्तविकता है कि समस्या की जड़ में जाकर मूल कारणों की पहचान की जाए तो समस्या से मुक्ति मिल सकती है। इस दिशा में रचनाकार की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वह समस्या की जड़ में जाकर मूल कारणों की न केवल पहचान करता है, बल्कि उनके विरुद्ध अवाम की मानसिकता का निर्माण करने की ज़िम्मेदारी भी निभाता है।
वेश्यावृत्ति का ज्वलन्त मुद्दा उपन्यास ‘कारोबारे तमन्ना’ के केन्द्र में है। निम्नवर्गीय मुस्लिम समाज की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में वेश्यावृत्ति के कारणों की जाँच-पड़ताल की गई है। उपन्यास वेश्याओं की जटिल जीवन-शैली और उस वृत्ति के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करता है। यह रचना अपनी सम्पूर्णता में उसका विरोध भी करती है।
राही मासूम रज़ा के औपन्यासिक कर्म की मुख्यधारा के बरक्स ‘कारोबारे तमन्ना’ की ख़ूबी इसके दिलचस्प होने में है। यह अपने कथ्य के आधार पर विशिष्ट है। हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में लिखे उपन्यासों से इतर राही ने शाहिद अख़्तर और आफ़ाक़ हैदर नाम से उर्दू भाषा में कई उपन्यासों की परम्परा में परिगणित होने के कारण कभी चर्चा के लायक़ ही नहीं समझे गए।
‘कारोबारे तमन्ना’ को डॉ. एम. फ़िरोज़ खाँ ने लिप्यन्तरित कर हिन्दी पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है।
राही मासूम रज़ा के असंख्य पाठकों हेतु एक संग्रहणीय पुस्तक।
Ummid Hai, Aayega Vah Din
- Author Name:
Emile Zola
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Description:
यह उपन्यास मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्तता की महत्ता स्पष्ट करते हुए संघर्ष में सचेतनता के आविर्भाव और क्रमिक विकास की जटिल और मन्थर प्रक्रिया को तथा संघर्ष की विभिन्न मंज़िलों को इतने प्रभावी ढंग से दर्शाता है कि मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए आज भी यह एक ज़रूरी अध्ययन-सामग्री लगने लगता है। ज़ोला ने इस प्रक्रिया का प्रभावशाली चित्रण किया है कि किस प्रकार अल्पविकसित चेतना वाले मज़दूर नए विचारों के क़ायल होते हैं, किस प्रकार अपनी जीवन-स्थिति को नियति मानकर जीनेवाले मज़दूरों के सोचने-समझने का ढंग हड़ताल के प्रभाव में बदलने लगता है और किस प्रकार वे आन्दोलन द्वारा उठाए गए सवालों को समझने और उनके हल के बारे में सोचने की कोशिश करने लगते हैं।
उपन्यास मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कार्यनीति या रणकौशल (टैक्टिक्स) से जुड़े प्रश्नों पर भी विस्तार में जाता है। मिसाल के तौर पर इसमें हड़ताल के दौरान तोड़-फोड़ की कार्रवाई और ‘फ्लाइंग पिकेट्स’ की सम्भावित भूमिकाओं पर भी विचार किया गया है। ‘फ्लाइंग पिकेट्स’ की हड़ताल के दौरान एक विशेष भूमिका दर्शाई गई है। यह इतिहास का तथ्य है कि फ़्रांसीसी कोयला खदानों में इनकी स्थापित परम्परा रही थी और 1869 की ल्वार हड़ताल के दौरान इनका विशेष रूप से इस्तेमाल किया गया था।
उपन्यास एक तरह से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन का एक लघु प्रतिरूप प्रस्तुत करता है। खदान मज़दूरों के एक छोटे से गाँव में तीन राजनीतिक धाराओं के सुस्पष्ट-सटीक प्रतिनिधियों की उपस्थिति हमें देखने को मिलती है। रासेनोर एक सुधारवादी है जो टकराव के बजाय वार्ताओं की राजनीति में विश्वास रखता है। सूवारीन अराजकतावादी है। एतिएन की अवस्थिति इन दोनों के बीच की बनती है। अनुभववादी ढंग से वह जुझारू वर्ग संघर्ष की सोच और क्रान्तिकारी जनदिशा की सोच की ओर आगे बढ़ता हुआ चरित्र है। पेरिस कम्यून के पूर्व, पहले इंटरनेशनल में भी यही तीन राजनीतिक धाराएँ कमोबेश प्रभावी रूप में मौजूद थीं।
Basti
- Author Name:
Intizar Hussain
- Book Type:

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Description:
यह उपन्यास भारत और पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में अपनी अनूठी कथा-शैली और इंसानी सरोकारों के संवेदनशील आकलन के कारण अपूर्व स्थिति रखता है। हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक मिथकों, क़िस्सों, जातक कथाओं, लोककथाओं को यथार्थपरक घटनाओं के साथ इस जादू से पिरोया गया है कि कथ्य की सम्प्रेषणीयता देश-काल को लाँघ गई है।
इस उपन्यास में भारत के विभाजन के बाद सीमा-पार के एक संवेदनशील व्यक्ति की मनःस्थिति, अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की अकुलाहट, अपनी सांस्कृतिक पहचान की छटपटाहट से उत्पन्न नॉस्टेल्जिया, 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान की फ़िज़ा में आम आदमी की प्रतिक्रियाएँ, बौद्धिकों की नपुंसकता, जकड़ती हुई राजनीतिक व्यवस्था की काली छाया का चित्रण बड़ी ही सहज और रोचक भाषा में किया गया है। उपन्यासकार अपने इस उपन्यास में इस भोलेपन से इंसानी नियति से जुड़े अनेक मूलभूत प्रश्न उठाता है कि निरंकुश राजनीति की काइयाँ नज़र पहचाने भी और न भी पहचाने।
सांस्कृतिक पहचान की अन्तर्यात्रा का यह उपन्यास भारतीय पाठकों को बेहद रुचेगा।
Punarnava
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
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Description:
जिसे प्रायः सत्य कहा जाता है, वह वस्तुस्थिति का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। लोग सत्य को जानते हैं, समझते नहीं। और इसीलिए सत्य कई बार बहुत कड़ुवा तो लगता ही है, वह भ्रामक भी होता है। फलतः जनसाधारण ही नहीं, समाज के शीर्ष व्यक्ति भी कई बार लोकापवाद और लोकस्तुति के झूठे प्रपंचों में फँसकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
‘पुनर्नवा’ ऐसे ही लोकापवादों से दिग्भ्रान्त चरित्रों की कहानी है। वस्तुस्थिति की कारण-परम्परा को न समझकर वे समाज से ही नहीं, अपने-आपसे भी पलायन करते हैं और कर्तव्याकर्तव्य का बोध उन्हें नहीं रहता। सत्य की तह में जाकर जब वे उन अपवादों और स्तुतियों के भ्रमजाल से मुक्त होते हैं, तभी अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय उन्हें मिलता है और नवीन शक्ति प्राप्त कर वे नए सिरे से जीवन-संग्राम में प्रवृत्त होते हैं।
‘पुनर्नवा’ ऐसे हीन चरित्र व्यक्तियों की कहानी भी है जो युग-युग से समाज की लांछना सहते आए हैं, किन्तु शोभा और शालीनता की कोई किरण जिनके अन्तर में छिपी रहती है और एक दिन यही किरण ज्योतिपुंज बनकर न केवल उनके अपने, बल्कि दूसरों के जीवन को भी आलोकित कर देती है।
‘पुनर्नवा’ चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, लेकिन जिन प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है, वे चिरन्तन हैं और उनके प्रस्तुतीकरण तथा निर्वाह में आचार्य द्विवेदी ने अत्यन्त वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचय दिया है।
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