Tokara Bhar Prem
Author:
Alok SaxenaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Unavailable
अचानक ही धन देवी लक्ष्मी जी गहरे संताप में आ गई कि कल तक उसका आस्तिक उपासक, जो 500 और 1000 रुपए के अविनाशी नोटों को अपनी तिजोरियों, अलमारियों यहाँ तक कि अपने डबलबेड के बॉक्स व गद्दों के नीचे सँभाल-सँभालकर रखता था, बेनागा प्रतिदिन उसके आगे अगरबत्ती और दीपक जलाकर उसकी पूजा भी किया करता था, आज अचानक नास्तिक हो गया है। नास्तिक ही नहीं, जल्लाद बन गया है और उसे गंदे, मटमैले-कुचैले थैलों में भर-भरकर घर से बेघर करने पर आमादा हो गया है। हैवानियत उसके सिर चढ़कर अपना काम कर रही है। वह वर्षों से प्यार से सँजोकर रखी हुई अपनी लक्ष्मी को रात के अँधेरे में नदी-नालों, गटर, कूड़ेदान व आस-पास की झाड़-झाडि़यों में फेंकने पर आमादा हो गया है। उसे आज अपनी सुख-समृद्धि का बिलकुल भी ध्यान नहीं है। इस समय उसके लिए सुख-समृद्धि जाए चूल्हे में या फिर कहीं भी जाए, उसकी बला से! उसे तो इस समय अपने वैभव से ज्यादा अपने घर की लक्ष्मी को गुप्त रूप से ठिकाने लगाने की चिंता है। वह पहले उसे पाने के लिए अपना दिन-रात एक करता था। रात में सोता अपनी पत्नी के साथ था, परंतु खयालों में उसे ही रखता था। रात में बिस्तर पर करवटें बदलता था तो अपने गद्दों के नीचे बिछाकर रखी हुई, अपनी धन-लक्ष्मी को जब तब झाँक-झाँककर भरपूर देख नहीं लेता, तब तक उसे नींद नहीं आती थी।
—इसी संग्रह से
ISBN: 9789387980754
Pages: 192
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
‘सोशल वर्क’ और ‘सोशल जस्टिस’ इन दो शब्दों के बीच के स्पेश का मोहक किन्तु मार्मिक प्रतिबिम्बन है अलका सरावगी का उपन्यास—‘शेष कादम्बरी’। वृद्ध और युवा जीवन-दृष्टि के फ़र्क़ को रेखांकित करनेवाला यह उपन्यास अलका सरावगी के जीवन्त लेखन का ऐसा प्रतीक है जिसमें उन्नीसवीं सदी में जन्मे, रूबी दी के मामा देवीदत्त का व्यक्तित्व रूबी दी के लिए ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ का कारक बनकर उभरता है। इस ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ की गिरफ़्त में रूबी दी अपनी किशोरावस्था में ही आ चुकी हैं और इससे उबरने के प्रयास में वे एकरेखीय ‘सोशल-वर्क’ के आडम्बर से जुड़ी रहीं और अन्ततः अपनी नातिन ‘कादम्बरी’ में अपनी शेष कथा देखने को बाध्य हुईं। जीवन और उपन्यास का तालमेल बैठाने के लिए अलका सरावगी ने परिचित ढाँचे से बाहर निकलकर यह रेखांकित किया है कि ‘शेष कादम्बरी’ ऐसा जीवन है जिसमें उपन्यास का प्रवाह या फिर जीवन का
उद् दात है। अलका सरावगी की यह औपन्यासिक कृति उपभोक्तावादी मूल्यों के बरक्स उदारवादी मूल्यों की स्थापना भी करती है। आधुनिक जीवन के पेचोखम का रूपायण इस उपन्यास को अविस्मरणीय बनाता है।
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