Nauka Doobi
Author:
Rabindranath ThakurPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
भारत को आधुनिक समाज बनने के मार्ग पर आगे बढऩे की शक्ति प्रदान करनेवाले रवीन्द्रनाथ ने 'नौका डूबी' उपन्यास में व्यक्ति की मनोव्याकुलता के रहस्य उद्घाटित किए हैं। इसमें व्यक्ति के अन्तर्लोक और समाज की इच्छाओं-आस्थाओं के मध्य होनेवाली टकराहट से उत्पन्न त्रासद जीवन-दशाओं की अभिव्यक्ति हुई है। कमला, रमेश, हेमनलिनी और नलिनाक्ष तेज़ी से तथा अकस्मात् आकार लेती घटनाओं के जाल में निरन्तर उलझते रहते हैं। 'गोरा' की रचना के पूर्व रवीन्द्रनाथ भारत के समाज का जो रूप देख रहे थे और व्यक्तियों की चिन्तन-प्रणाली में जिस परिवर्तन की आहट सुन रहे थे, वही इस कृति में है। 'नौका डूबी' को उसमें निहित विशिष्ट सांस्कृतिक और सामाजिक प्रयोगों को जाने बिना अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता। ध्यान यह भी रखना होगा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारतीय साहित्य की अवधारणा के पहले-पहले पक्षधरों में से थे; अत: उन्होंने अपनी रचनाओं में समग्र समाज के भीतरी व्यवहारों को भरपूर जगह दी है। जो पाठक यथास्थान प्रस्तुत टिप्पणियों पर ध्यान देंगे, उन्हें पता चल जाएगा कि 'नौका डूबी' के अनुवाद में इस सत्य को सामने लाने का प्रयास किया गया है। प्रामाणिकता और मूल की यथासाध्य रक्षा इस अनुवाद-कार्य का लक्ष्य रहा है।
ISBN: 9788126725687
Pages: 252
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
उड़िया के प्रख्यात कथाकार शांतनु कुमार आचार्य की कालजयी कृति है—‘शकुन्तला’। इसमें लेखक ने तेलंगाना की कृषक क्रांति की असफलता के कारणों के साथ-साथ उस क्षेत्र की तत्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों का बेबाकी से खुलासा किया है। “तेलंगाना में स्थित कौनुआँ एक पुराना गाँव है। संभव है यह गाँव उस प्राचीन ‘कण्वाश्रम’ से भी अधिक पुराना हो। क्या पता कौनुआँ का कण्व होने से पहले यहाँ मनुष्य के भाग्य-मंच पर हजारों-लाखों बार ‘शकुन्तला’ नाटक का अभिनय हुआ हो!” किंतु जिस समय का यह इतिहास है, उस समय कौनुआँ गाँव नक्सलियों का अड्डा बन चुका था। नक्सलियों की धर-पकड़, मार-काट, लूट-खसोट—पूरा माहौल रक्तरंजित था। बिना तहकीकात किए, शक के आधार पर ही निर्दोषों को सजा देने की जैसे पुलिस ने कसम खा ली थी! ऐसे समय में एक औरत नदी को पार कर, एकदम अकेली कौनुआँ गाँव में आ पहुँची ‘अप्सरा’ बनकर। उसी नगरी में जहाँ कभी ‘कण्व ऋषि’ का आश्रम था। वह अप्सरा कोई और नहीं, शकुन्तला ही थी, जो अपने पीहर आई थी।
लेकिन आज सबके सामने वह एक मुजरिम की तरह खड़ी थी—बेबस, गुमसुम ! नक्सलियों के निर्मम आत्मसमर्पण के लिए वह अप्सरा अपने-आपको जिम्मेदार ठहरा रही थी। उसे अच्छी तरह मालूम था कि आगे की दुर्घटना का क्या मतलब है। स्वयं उसने नक्सलियों को उकसाया था। जनता का मुकाबला करने को। “यह गुरिल्ला युद्ध छोड़ो। जैसे भी हो, हमें आखिरकार जनता का सामना तो करना पड़ेगा न। दुनिया में आज तक ऐसी कोई सामाजिक क्रांति सफल नहीं हो पाई, जो समाज से छिपकर संघटित हुई।” नक्सलियों को यही तर्क देकर अप्सरा हरा सकी थी। किंतु आज, अंतिम क्षण में उसके नेतृत्व और निर्देशन के कारण यह दुर्घटना हो रही है—यह सोचकर अप्सरा स्वयं को मुजरिम मान लेती है। ...अब वह अप्सरा नहीं रह गई। वह सिर्फ असीमा उपाध्याय है—एक सर्वोदय कार्यकर्ता।
तत्कालीन परिवेश को अपने जीवंत रूप में प्रस्तुत करनेवाली एक महान कथाकृति—‘शकुन्तला’।
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