Kuchh Din Aur
Author:
Manzoor EhteshamPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
‘कुछ दिन और’ निराशा के नहीं, आशा के भँवर में डूबते चले जाने की कहानी हैं—एक अन्धी आशा, जिसके पास न कोई तर्क है, न कोई तंत्र; बस, वह है अपने-आप में स्वायत्त<strong>।</strong></p>
<p>कहानी का नायक अपनी निष्क्रियता में जड़ हुआ, उसी की उँगली थामे चलता रहता है<strong>।</strong> धीरे-धीरे ज़िन्दगी के ऊपर से उसकी पकड़ छीजती चली जाती है<strong>।</strong> और, इस पूरी प्रक्रिया को झेलती है उसकी पत्नी—कभी अपने मन पर और कभी अपने शरीर पर<strong>।</strong> वह एक स्थगित जीवन जीनेवाले व्यक्ति की पत्नी है<strong>।</strong> इस तथ्य को धीरे-धीरे एक ठोस आकार देती हुई वह एक दिन पाती है कि इस लगातार विलम्बित आशा से कहीं ज़्यादा श्रेयस्कर एक ठोस निराशा है जहाँ से कम-से-कम कोई नई शुरुआत तो की जा सकती है<strong>।</strong> और, वह यही निर्णय करती है<strong>।</strong></p>
<p>‘कुछ दिन और’ अत्यन्त सामान्य परिवेश में तलाश की गई एक विशिष्ट कहानी है, जिसे पढ़कर हम एकबारगी चौंक उठते हैं और देखते हैं कि हमारे आसपास बसे इन इतने शान्त और सामान्य घरों में भी तो कोई कहानी नहीं पल रही<strong>।</strong>
ISBN: 9788126728817
Pages: 152
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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किसी भी व्यक्ति के निजी और आत्मीय संसार में उसके समय की राजनीति और हालात किस तरह सेंध लगा सकते हैं, इसका एक बेचैन कर देनेवाला दस्तावेज़ है, सुपरिचित कथाकार मंज़ूर एहतेशाम का बहुचर्चित उपन्यास ‘दास्तान-ए-लापता’।
दरअसल संसार लोगों का ही नहीं, ‘लापताओं’ का भी मंच है। अन्य प्रजातियों की तरह यहाँ ‘लापता’ भी जन्म लेते हैं, बड़े होते हैं और आख़िर थककर अपने अन्त को प्राप्त होते हैं।
‘दास्तान-ए-लापता’ दास्तान है ज़मीर अहमद ख़ान की, जिसने ज़िन्दगी की शुरुआत में बहुत विश्वास से कहा था, ‘‘मुझे सच्चा प्यार चाहिए, बस।’’ और यह भी कि ‘‘मैं उसे हासिल करके दिखाऊँगा!’’ ‘दास्तान-ए-लापता’ इस क्रूर दुनिया में उसके बड़े होने का दस्तावेज़ है। ‘दास्तान-ए-लापता’ ज़मीर अहमद ख़ान सहित उन सब लोगों की कहानी है जो जाने-अनजाने किसी परिवार या व्यवस्था की परिधि से छूट जाते हैं। ‘दास्तान-ए-लापता’ उन लोगों की कथा है जो चाहते हुए भी अन्धी दौड़ का हिस्सा नहीं बन पाते, जो हर बार अपने अन्तर्विरोधों के साथ सिर्फ़ अपने भीतरी तहख़ानों में उतर पाते हैं। यह उन लोगों की कथा है जो ज़िन्दगी की हर असफलता में अतीत के शाप सुनते हैं, जो अपनी छोटी-छोटी बेईमानियों को आत्मा में पैबन्द की तरह लगाकर चलते हैं और एक दिन सबके देखते-देखते अपने भीतर लापता हो जाते हैं।
कथानक में पीड़ा की एक धुँधली लकीर बराबर चलती है। अपने देश-काल से असुविधाजनक सवाल पूछते-पूछते यह लकीर मंज़ूर एहतेशाम के पिछले उपन्यास ‘सूखा बरगद’ से ‘दास्तान-ए-लापता’ तक अनायास खिंच आई है। हालाँकि यहाँ पाठक को भ्रमित करने के लिए सांसारिक घटनाक्रम है, परिवारों और व्यक्तियों का सनकीपन है, फिर भी लेखक का कोई भी शिल्पगत प्रयोग इस लकीर को पूरी तरह ढक नहीं पाता।
एक तरह से ‘दास्तान-ए-लापता’ मंज़ूर एहतेशाम के पिछले उपन्यास ‘सूखा बरगद से’ प्रस्थान है। जहाँ इससे पहले लेखक का सरोकार एक अल्पसंख्यक समाज था, वहाँ इस बार अल्प या बहुसंख्यक की परिभाषा को बेमानी करता एक अकेला आदमी है, जो परिधि से बाहर की ओर चल निकला है, एक क्रमशः अदृश्य होता आदमी, जो लोप होने से पहले इस कथानक के परिदृश्य में अपने पदचिह्न छोड़ता है, अपनी सुप्त पीड़ा के साथ, शायद आख़िरी बार...
Mahuacharit
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Kashinath Singh
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Description:
वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह का उपन्यास ‘महुआचरित’ जीवन के अपार अरण्य में भटकती इच्छाओं का आख्यान है। मध्यवर्गीय समाज की सच्चाइयों को लेखक ने विशिष्ट कथा-रस के साथ प्रकट किया है। यह उपन्यास जिस शिल्प में अभिव्यक्त हुआ है, वह कथा-संसार में एक नया प्रस्थान निर्मित करता है। छोटे-बड़े किंचित् असमाप्त अपूर्ण वाक्य संकेतों की ओर उन्मुख विवरण और बहुअर्थी बिम्ब इस रचना को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं। महुआ की सहेली है उसके मकान की छत जहाँ वह खुलती, खिलती और खेलती है। यह कल्पना ही अपने आपमें अनूठी और व्यंजक है।
कहना न होगा कि ‘महुआचरित’ को ‘वृत्तान्त का अन्त’ करती कथा-रचना के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।
अस्सी साल के स्वतंत्रता सेनानी पिता की पुत्री महुआ की देहासक्ति से विवाह तक की यात्रा और फिर उसमें जागता अस्मिता-बोध—इस कथा को लेखक ने समुचित सामाजिक सन्दर्भों के साथ प्रस्तुत किया है। स्त्री-विमर्श की अनुगूँज के बावजूद यह प्रश्न आकार लेता है, ‘ऐसा क्या है देह में कि उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता/लेकिन मन का सारा रिश्ता-नाता तहस-नहस हो जाता है।’
सघन संवेदना और सर्वथा नवीन संरचना से समृद्ध ‘महुआचरित’ उपन्यास निश्चित रूप से पाठकों की आत्मीयता अर्जित करेगा।
Parishishta
- Author Name:
Giriraj Kishore
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Description:
‘दिनमान’ (5-11 अगस्त, 1984) के ‘फ़िलहाल’ स्तम्भ में, ‘परिशिष्ट’ के बारे में गिरिराज किशोर का कथन छपा था, “अनुसूचित कोई जाति नहीं, मानसिकता है। जिसे अभिजातवर्ग (जिसका वर्चस्व हो) परे ढकेल देता है, वह अनुसूचित हो जाता है।” ‘परिशिष्ट’ इसी भयानक मानसिकता को उद्घाटित करनेवाला एक महाअभियोग है। अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘यथा प्रस्तावित’ में भी गिरिराज ने इसी वर्ग की दारुण पीड़ा को चित्रित किया था। राष्ट्रीय महत्त्व की महान शिक्षा-संस्थाओं में किसी तरह दाख़िला प्राप्त करनेवाले साधनहीन और तथाकथित जातिहीन छात्रों की त्रासदी, उबलते तेल में डाल दिए जानेवाले व्यक्ति के संत्रास की तरह होती है जो पहली बार ‘परिशिष्ट’ के रूप में सामने आई है।
राष्ट्रीय स्तर पर ऊँच-नीच और छुआछूत का विष फैला है। आरक्षणवादी नीतियों के बावजूद इनसान को जिस अमानवीय स्थिति का सामना करना पड़ता है, वह हर एक को अपने गिरहबान में मुँह डालकर झाँकने के लिए मजबूर करती है। उपन्यास से पता चलता है कि लेखक उस सबका अन्तरंग साक्षी है। अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़नेवाला हर पात्र एक ऐसे दबाव में जीने के लिए मजबूर है जो या तो उसे मरने के लिए बाध्य करता है या फिर संघर्ष को तेज़ कर देने की ख़ामोश प्रेरणा देता है। यह उपन्यास गिरिराज किशोर की पहचान को ही गहरा नहीं करता बल्कि हिन्दी उपन्यास की परम्परा को समृद्ध भी करता है।
एक लड़ाकू जहाज़ की तरह ऊपर उठते-उठते फट पड़नेवाला, उसी वर्ग का एक पात्र रामउजागर आत्महत्या से पहले नोट लिखकर जेब में रख लेता है कि “मेरा जाना स्वेच्छा से है। गवेषणात्मक है। हालाँकि उसका प्रतिफल दूसरों को बाँट पाना सम्भव नहीं होगा।...किसी घृणा या शिकायत के कारण नहीं, एक आत्मीयता और आत्म-सन्तोष के कारण मेरा केवल यही प्रश्न है कि जब प्रकृति, जिससे हम सब कुछ पाते हैं, घृणामुक्त है, तो मनुष्य मुक्त क्यों नहीं?”... उपन्यास का नायक अनुकूल एक संकल्पशील व्यक्ति है जो सहता है, भोगता है और विचलित नहीं होता। वस्तुतः ‘परिशिष्ट’ संत्रास, संघर्ष और संकल्प की महागाथा है।
Vaishali Ki Nagarvadhu
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Acharya Chatursen
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‘वैशाली की नगरवधू’ की गणना हिन्दी के श्रेष्ठतम ऐतिहासिक उपन्यासों में की जाती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वयं भी इसे अपनी उत्कृष्टतम रचना मानते हुए इसकी भूमिका में लिखा था कि निरन्तर चालीस वर्षों की अर्जित अपनी सम्पूर्ण साहित्य-सम्पदा को मैं आज प्रसन्नता से रद्द करता हूँ; और यह घोषणा करता हूँ कि आज मैं अपनी यह पहली कृति विनयांजलि सहित आपको भेंट कर रहा हूँ।
कथा उस अम्बपाली की है जो शैशवावस्था में आम के एक वृक्ष के नीचे पड़ी मिली और बाद में चलकर वैशाली की सर्वाधिक सुन्दर एवं साहसी युवती के रूप में विख्यात हुई। नगरवधू बनने के अनिवार्य प्रस्ताव को उसने धिक्कृत कानून कहा और उसके लिए वैशाली को कभी क्षमा नहीं कर पाई। लेकिन वह अपने देश को प्रेम भी करती है जिसके लिए उसने अपने निजी सुखों का बलिदान भी किया। और अन्त में अपना सर्वस्व त्यागकर बौद्ध दीक्षा ले ली।
कई वर्षों तक आर्य, बौद्ध और जैन साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त और लेखक के तौर पर लम्बे समय में अर्जित अपने भाषा-कौशल के साथ लिखित यह उपन्यास न सिर्फ पाठकों के लिए एक नया आस्वाद लेकर आया बल्कि हिन्दी उपन्यास-जगत में भी इसने अपना एक अलग स्थान बनाया जो आज तक कायम है।
Yanosh Bahadur
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- Description: 2023 में शान्दोर पैतोफ़ी की 200वीं जयंती मनाने की विश्वव्यापी तैयारी हो रही है। उनकी 43 कविताओं के संग्रह स्वाधीनता, प्यार की कविताओं पर प्रसिद्ध कवि यानोश हाय और संगीतज्ञ तॉमॉश रोज़ ने संगीतबद्ध प्रस्तुतियाँ दीं और इन कविताओं ने श्रोताओं को ख़ूब प्रभावित किया। जैसा कि मारिया नेज्यैशी लिखती हैं, इस काव्यात्मक कथा यानोश बहादुर का संग-साथ उन्हें तब से प्राप्त है जब वे 5-6 साल की थीं और पढ़ना-लिखना भी नहीं जानती थीं। यानोश हाय लिखते हैं कि यानोश बहादुर के रचनाकार शान्दोर पैतोफ़ी उन आरम्भिक चार-पाँच शब्दों में से एक हैं, जिन्हें उनके देश के बच्चे पहली बार अपनी भाषा सीखते समय ही याद कर लेते हैं। यानोश बहादुर किस विधा की रचना है? 1845 में इसके प्रकाशन के बाद से इसे विभिन्न खाँचों में रखने की कोशिश होती रही है। यह लोकगीत है या महाकाव्य है? कुछ लोगों ने इसे हल्की-फुल्की ‘कहानी’ भी कहा है। लेकिन इसने एक अनाथ लघु मानव के संघर्ष की, उत्कर्ष की, साहसिक यात्रा की, और शायद सबसे अधिक एक अटूट प्रेम की अनोखी कहानी दी है। यहाँ तक कि यह भी कहा जाता है कि इसे पढ़कर हर नौजवान यानोश बहादुर, और युवती इलुश्का बनना चाहती है।
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