Jhoola Nat
Author:
Maitreyi PushpaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
गाँव की साधारण–सी औरत है शीलो—न बहुत सुन्दर और न बहुत सुघड़...लगभग अनपढ़—न उसने मनोविज्ञान पढ़ा है, न समाजशास्त्र जानती है। राजनीति और स्त्री–विमर्श की भाषा का भी उसे पता नहीं है। पति उसकी छाया से भागता है। मगर तिरस्कार, अपमान और उपेक्षा की यह मार न शीलो को कुएँ–बावड़ी की ओर धकेलती है, और न आग लगाकर छुटकारा पाने की ओर। वशीकरण के सारे तीर–तरकश टूट जाने के बाद उसके पास रह जाता है जीने का नि:शब्द संकल्प और श्रम की ताक़त एक अडिग धैर्य और स्त्री होने की जिजीविषा...उसे लगता है कि उसके हाथ की छठी अँगुली ही उसका भाग्य लिख रही है...और उसे ही बदलना होगा।</p>
<p>‘झूला नट’ की शीलो हिन्दी उपन्यास के कुछ न भूले जा सकनेवाले चरित्रों में एक है। बेहद आत्मीय, पारिवारिक सहजता के साथ मैत्रेयी ने इस जटिल कहानी की नायिका शीलो और उसकी ‘स्त्री–शक्ति’ को फ़ोकस किया है–––</p>
<p>पता नहीं ‘झूला नट’ शीलो की कहानी है या बालकिशन की! हाँ, अन्त तक, प्रकृति और पुरुष की यह ‘लीला’ एक अप्रत्याशित उदात्त अर्थ में ज़रूर उद्भासित होने लगती है।</p>
<p>निश्चय ही ‘झूला नट’ हिन्दी का एक विशिष्ट लघु उपन्यास है…।
ISBN: 9788126702916
Pages: 163
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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फिर इन्हीं शब्दों की ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द।
कथा लेखन की एक नई छटा है इस उपन्यास में। इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज़ में चलते हैं। हमारी चिर-परिचित हदों-सरहदों को नकारते लाँघते। जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहाँ। इसका संसार परिचित भी है और जादुई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता। काल भी यहाँ अपनी निरन्तरता में आता है। हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियाँ। मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं ‘क़त्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर’, और संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लम्बे साए।
और सरहदें भी हैं जिन्हें लाँघकर यह कृति अनूठी बन जाती है, जैसे स्त्री और पुरुष, युवक और बूढ़ा, तन व मन, प्यार और द्वेष, सोना और जागना, संयुक्त और एकल परिवार, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, मानव और अन्य जीव-जन्तु (अकारण नहीं कि यह कहानी कई बार तितली या कौवे या तीतर या सड़क या पुश्तैनी दरवाज़े की आवाज़ में बयान होती है) या गद्य और काव्य : ‘धम्म से आँसू गिरते हैं जैसे पत्थर। बरसात की बूँद।’
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