Do Ekant
Author:
Shri Naresh MehtaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Available
आधुनिकता सामाजिक ढाँचा ही नहीं है, बल्कि हमारी व्यक्तिगत मानसिक स्थिति और स्वत्व बन गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रेम जैसी निजी अनुभूति पर भी इसका तनाव अनुभव होता है। इसलिए कभी-कभी तो आजीवन प्रेम के स्थान पर हम प्रेम के तनाव में ही रहते होते हैं। इस उपन्यास में वानीरा और विवेक के माध्यम से इस आधुनिक तनाव वाली घटना-हीन वास्तविकता को अत्यन्त सूक्ष्म शैली, चित्रों और मन:स्थितियों के द्वारा श्रीनरेश मेहता ने प्रस्तुत किया है।</p>
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ISBN: 9788180317194
Pages: 180
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त किसी युवती को जब जीवन-ज्ञापन के लिए काम करना पड़ता है तो समाज के भूखे भेड़िए उसे ललचाई नज़रों से देखने लगते हैं। लेकिन जब उसकी आर्थिक विपन्नता के साथ उसके पति की शारीरिक निष्क्रियता भी जुड़ जाए, तो उसे सार्वजनिक सम्पत्ति ही समझ लिया जाता है। ‘बिना दरवाज़े का मकान’ की नायिका दीपा निम्न वर्ग की एक ऐसी ही अभिशप्त युवती है जो जीविकोपार्जन के साथ-साथ अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए लगातार संघर्ष कर रही है। उसकी जीवन-प्रक्रिया तथा संघर्ष के क्रम में सम्भ्रान्त बेनक़ाब होता जाता है और दो समाज आमने-सामने तने हुए दिखाई पड़ते हैं। दिल्ली की एक भरी-पूरी कॉलोनी की पृष्ठभूमि पर आधारित कथा कभी-कभी गाँव की ओर भी चली जाती है और तब विडम्बना एकदम गहरा जाती है। दर्द और यातना के गहरे प्रसार के बीच जिजीविषा एवं संघर्ष से उत्पन्न मूल्य-चेतना उपन्यास को और सशक्त बनाती है।
khul Ja Sim-Sim
- Author Name:
Subhah Mishra
- Book Type:

- Description: "प्रसिद्ध लेखक श्री सुभाष मिश्र के पास शिल्प और भाषा का सुंदर संयोजन है। वे व्यंग्य के लिए सुरक्षित शिल्प में व्यंग्य की भाषा से ऐसी आत्मीयता स्थापित नहीं करते जिसमें कहन पीछे छूट जाता है और लेखक की भाषा पर मुग्धता बची रह जाती है और ध्येय अलक्षित रह जाता है। सुभाष समाज और समय की जटिल और विद्रुप होती जा रही निम्नतर, लेकिन अतिपरिचित स्थितियों के बीच एक संतुलित व्यंग्य भाषा में कथ्य-ध्येय का परिचय स्पष्ट करते हैं। व्यंग्य लेखक को व्यंग्य को तल्ख बनाना होता है, उसको आक्रामक नहीं, इसी संतुलन में सुभाष मिश्र निष्णात हैं, जिससे कई बार वे भाषा में व्यंग्य की अपेक्षा एक तल्ख टिप्पणी करते नजर आते हैं, लेकिन उसकी सपाट बयानगी से बचते हैं। एक व्यंग्य लेखक से ज्यादा निर्भिकता और आक्रामकता की अपेक्षा के कारण व्यंग्य लेखक को रचना और अपेक्षा के द्वंद्व के बीच कथ्य की रक्षा भी करनी होती है। सुभाष मिश्र की व्यंग्य-निर्भिकता कथ्य और भाषा दोनों में प्रकट होती है। लेकिन वे चीजों और स्थितियों के सरलीकरण और निष्कर्षों पर पहुँचने की उतावली नहीं दिखाते हैं। वे खुद को और पाठक को उन विसंगतियों से पैदा हुई दुर्बलताओं से बचते-बचाते हैं। सुभाष मिश्र की यह पुस्तक सामाजिक विसंगतियों, रूढि़यों और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ मामूली आदमी की ओर से एक प्रतिरोध बयान है। इसे उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता के आग्रह में देखना उचित होगा। —भालचंद्र जोशी (‘अपनी बात’ से)
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